हिन्दू राष्ट्र का ढोल और जातिवाद का आतंक

The drumbeat of Hindu Rashtra and the terror of casteism

निर्मल रानी

स्वयंभू हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा गत एक दशक से देश के बहुसंख्यक समाज को भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र ‘ बनाने का सपना दिखाया जा रहा है। देश के अनेक दक्षिणपंथी नेताओं से लेकर तमाम कथावाचक व संत समाज से जुड़े लोग इसी ‘प्रोपेगण्डे ‘ को प्रचारित करने में जुटे हुये हैं। इसी हिन्दू राष्ट्र की दुहाई देकर समाज में धर्म के आधार पर नफ़रत फैलाई जा रही है। सत्ता संरक्षित नफ़रती लोग धर्म विशेष के विरुद्ध जमकर ज़हर उगल रहे हैं और इसी बहाने देश के बहुसंख्य समाज को हिंदुत्व के नाम पर संगठित होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जिस देश में सभी धर्मों के लोग सदियों से मिलकर रहते आ रहे हों उस देश के बहुसंख्य समाज को अब अल्पसंख्यक समाज का भय दिखाकर शेष बहुसंख्य समाज को एकजुट होने का पाठ केवल और केवल अपने राजनैतिक लाभ के लिए पढ़ाया जा रहा है। और इन्हीं दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा इसी हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर छेड़ी गयी मुहिम के मध्य, देश के उस संविधान को भी बदलने का प्रयास किया जा रहा है जो भारतवसियों को समानता,समरसता,समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता का अधिकार देता है। साथ ही इन्हीं स्वयंभू हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा विवादित मनुस्मृति को भातीय संविधान के रूप में थोपे जाने की वकालत भी की जा रही है। यह शक्तियां उसी मनुस्मृति को देश पर थोपने के लिये प्रयासरत हैं जिसे संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को महाराष्ट्र के महाड में सार्वजनिक रूप से जलाया था। मनुस्मृति का विरोध करने वाले लोग आज भी उस ऐतिहासिक दिन को ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ के रूप में याद करते हैं। डॉ अंबेडकर ने मनु स्मृति का दहन इसलिये किया था क्योंकि यह ग्रंथ सामाजिक असमानता और जाति व्यवस्था को प्रोत्साहित करने वाली शिक्षाओं को बढ़ावा देता है । जबकि मनु स्मृति का विरोध व इसके दहन का उद्देश्य दलितों और शोषित वर्गों के लिए समानता और न्याय की मांग को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करना था।

सवाल यह है कि दक्षिणपंथियों द्वारा जिस मनुस्मृति की पैरवी की जा रही है क्या वह हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा दिखाये जा रहे हिन्दू राष्ट्र निर्माण के स्वप्न को पूरा करने में सहायक साबित हो सकती है ? यदि हाँ तो पहला सवाल तो यही की बाबा साहब जैसी शख़्सियत को इसे जलाने की नौबत ही क्यों आई ? और दूसरे यह कि आख़िर हिन्दू धर्म में वह कौन सी व्यवस्था थी जिसका विरोध करते हुये डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में एक ऐतिहासिक धर्म परिवर्तन समारोह में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। और इस सामूहिक धर्म परिवर्तन समारोह में डॉ. आंबेडकर के साथ उनके लगभग 3,80,000 अनुयायियों ने जिनमें मुख्य रूप से दलित समुदाय के लोग शामिल थे, बौद्ध धर्म स्वीकार किया। आज भी इस सामूहिक धर्म परिवर्तन को भारत में सामाजिक समानता और दलित आंदोलन का एक महत्वपूर्ण क़दम माना जाता है।

परन्तु दुःख का विषय तो यह है कि शोषित वर्ग द्वारा किये गये इस धर्म परिवर्तन के बावजूद आज भी मनुवादियों की सोच में कोई अंतर नहीं आया है। बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह जातिवादी विचारधारा गत दस वर्षों में और भी सिर चढ़ कर बोलने लगी है। और तो और अब इस जातिवादी सोच का शिकार केवल दलित समाज के लोग ही नहीं बल्कि पिछड़ी जातियों के लोग भी होने लगे हैं। इसका जीता जागता प्रमाण पिछले दिनों उत्‍तर प्रदेश के इटावा ज़िले में केवर थाना क्षेत्र के दादरपुर गांव में देखने को मिला। यहाँ भागवत कथा कहने आए यादव समाज से सम्बन्ध रखने वाले एक कथावाचक भागवताचार्य व्यास मुकुट मणि के साथ ब्राह्मण समाज के लोग अत्यंत क्रूरता से पेश आये। कथावाचक को अपमानित किया उनके साथ मारपीट की और उनकी चोटी काटकर इस क्रूरता का वीडियो भी वायरल कर दिया गया। उनका क़ुसूर यही बताया गया कि कथा वाचन कर रहे व्यास, ब्राह्मण समुदाय के नहीं थे इसलिए उनकी चोटी काट दी गई और उनका वीडियो वायरल किया गया। इतना ही नहीं बल्कि बाल काटने के बाद 5 घंटे तक उन्हें बंधक बनाकर भी रखा गया। जातिवादी क्रूरता का अध्याय यहीं समाप्त नहीं हुआ बल्कि पीड़ित कथावाचक के अनुसार भागवत कथा के दौरान जो ब्राह्मण महिला परीक्षित थी, उसके पैरों पर कथावाचक की जबरन नाक रगड़वाई गई और उसी ब्राह्मण महिला के मूत्र से उस पर छिड़काव भी किया गया। उस पंडितानी महिला का मूत्र छिड़कने के बाद इन जातिवादियों द्वारा उससे कहा गया कि ‘ब्राह्मण का मूत्र तुम्हारे ऊपर पड़ गया अब तुम पवित्र हो गए’। ज़रा सोचिये कि कौन सी शिक्षा व संस्कार हैं जो इस क्रूरता के लिये जाति विशेष के लोगों दूसरी जातियों के विरुद्ध प्रोत्साहित करते हैं ?

दलितों के साथ तो ऐसी घटनाएं गोया आम बात हो चुकी हैं। पिछले दिनों ऐसी ही एक ह्रदय विदारक घटना उड़ीसा में हुई जहाँ गोतस्करी का आरोप लगाकर कुछ जातिवादी गुंडों द्वारा पहले तो उनसे पैसे वसूलने की कोशिश की गयी। जब दलित युवक पैसे देने में असमर्थ हुये तो उन दोनों युवाओं को 2 किलोमीटर तक घुटने के बल चलने के लिये मजबूर किया गया। इनके सर के बाल भद्दे तरीक़े से काटे गये उन्हें मारा पीटा गया ,उनके कपड़े फाड़े गये, उन्हें घास फूस खिलाई गयी। इतना ही नहीं बल्कि उन्हें नाले का गन्दा पानी पीने के लिए भी मजबूर किया गया। इस तरह की घटनाएं भी आम हो चुकी हैं। अफ़सोस यह कि ऐसी क्रूर सोच व घृणित संस्कार रखने वाले लोगों को अनेक संतों व नेताओं का समर्थन भी मिल जाता है और वह मनुस्मृति जैसे जातिवादी धर्म ग्रंथों व संहिताओं से ही ढूंढ कर इन जातिवादियों के पक्ष में तर्क भी पेश कर देते हैं। और ऐसे ही जातिवादी लोगों के पैरोकार व समर्थक ही हिन्दू राष्ट्र व हिन्दू एकता जैसी विरोधाभासी बातें भी करते हैं।

और इससे भी बड़ी हास्यास्पद बात यह है कि यह शक्तियां अपनी कुरीतियां छुपाने के लिये अपने धर्म ग्रंथों व संहिताओं का ज़िक्र करने के बजाये मुग़लों का नाम लेने लग जाती हैं। यानी एक ओर तो यह हिन्दू धर्म व संस्कृति को विश्व का सबसे प्राचीन धर्म बताते हैं जिसमे वर्ण व्यवस्था का ज़िक्र और इस व्यवस्था का महिमामंडन जगह जगह किया गया है दूसरी ओर मात्र 1400 वर्ष पुराने इस्लाम धर्म पर अपनी जातिवादी व्यवस्था का ठीकरा फोड़ने की कोशिश करते हैं। दरअसल स्वयंभू उच्च जाति वालों की यह एक सोची समझी रणनीति है जिसके तहत यह लोग हिन्दू राष्ट्र का ढोल पीटते रहते हैं इसी बहाने हिन्दू समाज को एकजुट कर इनका राजनैतिक लाभ उठाने की भी कोशिश करते हैं। परन्तु इनके ग्रन्थ व संस्कार इन्हें जातिवाद का आतंक फैलाने से रोक नहीं पाते।