
बृज खंडेलवाल
भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था विराट तो है, पर इसकी नींव कमजोर है। शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मात्र 3% हिस्सा आवंटित होने से विश्वविद्यालय संसाधनों की कमी और भीड़भाड़ से जूझ रहे हैं। रट्टामार पद्धति और परीक्षा-केंद्रित शिक्षा ने रचनात्मकता को कुंद कर दिया है, जिससे शिक्षा अंकों की दौड़ तक सिमट गई। परिणामस्वरूप, छात्रों में तनाव और आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ रही हैं। जहाँ वैश्विक विश्वविद्यालय कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित व्यक्तिगत शिक्षा और उद्योग-उन्मुख कौशल पर जोर दे रहे हैं, वहीं भारत के विश्वविद्यालय नौकरशाही और जड़ता में फँसे हैं, जो बेरोजगार डिग्रीधारकों की भीड़ पैदा कर रहे हैं।
रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. देव वेंकटेश कहते हैं, “राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने सुधारों का वादा किया था, पर इसका कार्यान्वयन धीमा है। डिजिटल असमानता ग्रामीण छात्रों को पीछे छोड़ रही है, और निजी संस्थानों की लाभ-केंद्रित प्रवृत्ति व भ्रष्ट नियामक तंत्र ने ‘डिग्री मंडी’ को बढ़ावा दिया है।” भारतीय विश्वविद्यालय बदलती वैश्विक माँगों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे।
इसी विफलता का प्रतीक बन चुका है आगरा का डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना 1927 में हुई थी। कभी यह संस्थान राष्ट्रपतियों (रामनाथ कोविंद, शंकर दयाल शर्मा), प्रधानमंत्रियों (अटल बिहारी वाजपेयी, गुलज़ारीलाल नंदा, चौधरी चरण सिंह), मुख्यमंत्रियों (कल्याण सिंह, मुलायम सिंह यादव) और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जैसे दिग्गजों का गौरवशाली केंद्र रहा। आज वही विश्वविद्यालय बदहाली, भ्रष्टाचार और अकादमिक ठहराव का शिकार है। हालाँकि प्रशासन कुछ उपलब्धियों का दावा करता है, ग्रेडिंग में सुधार, बेहतर शैक्षिक माहौल, शिकायतों का त्वरित निपटान, समय से रिजल्ट आदि। वर्तमान कुलपति ने मेहनत और कठोरता से काफी सुधार किया है, लेकिन सच्चाई यह है कि इसे आमूल-चूल सुधारों की सख्त ज़रूरत अभी भी है, और सफर लंबा है।
पिछले चार दशकों में आगरा विश्वविद्यालय की साख गिरी है। सुधार प्रक्रिया को धार देने के लिए स्थानीय शिक्षाविदों और जनप्रतिनिधियों ने इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की माँग की है। दो वर्ष पूर्व लोकसभा में केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल ने जोर देकर कहा था कि डॉ. अंबेडकर की विरासत के सम्मान में इसे केंद्रीय दर्जा मिलना चाहिए। इससे वित्तीय सहायता, स्वायत्तता और जवाबदेही बढ़ेगी, जिससे संस्थान अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर सकता है। लेकिन राज्य सरकार की उदासीनता के कारण यह माँग अधूरी है।
कभी ज्ञान और शोध का केंद्र रहा यह विश्वविद्यालय आज अपनी साख बचाने की जद्दोजहद में है। मेरठ, झाँसी, बरेली, जौनपुर और कानपुर जैसे शहरों में इसके प्रभाव से नए संस्थान उभरे, पर इसका अपना स्तर गिरता गया। 1,000 से अधिक संबद्ध कॉलेज और तीन लाख से ज्यादा छात्रों का बोझ इसे प्रशासनिक रूप से जटिल बना चुका है। राष्ट्रीय रैंकिंग में यह शीर्ष संस्थानों से कोसों दूर है। शोध का स्तर भी कमजोर है, और भर्ती में अनियमितताएँ, फर्जी डिग्रियाँ, परीक्षा में देरी और अव्यवस्था ने छात्रों का भरोसा तोड़ा है। एक पूर्व छात्र ने निराशा भरे स्वर में कहा, “यहाँ शिकायतों का ग्राफ कभी नीचे नहीं आता।”
विश्वविद्यालय का विशाल ढाँचा इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। शिक्षाविदों ने इसे तीन या चार छोटे विश्वविद्यालयों में विभाजित करने का सुझाव दिया है। उदाहरण के लिए, राजा बलवंत सिंह कॉलेज को स्वतंत्र कृषि विश्वविद्यालय बनाया जा सकता है। आगरा कॉलेज (1823) और सेंट जॉन्स कॉलेज (1850) को ‘डीम्ड यूनिवर्सिटी’ का दर्जा देकर उनके ऐतिहासिक गौरव को संरक्षित किया जा सकता है। SN मेडिकल कॉलेज को स्वतंत्र मेडिकल विश्वविद्यालय बनाने की क्षमता है। कुछ उत्कृष्ट कॉलेजों को स्वायत्त कर ‘सेंटर ऑफ एक्सीलेंस’ के रूप में विकसित किया जा सकता है।
2023 की UGC रिपोर्ट के अनुसार, विश्वविद्यालय के केवल 15% पाठ्यक्रम राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों पर खरे उतरते हैं, जबकि JNU जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों में यह आँकड़ा 60% है। पिछले पाँच वर्षों में छात्र नामांकन में कमी आई है, और शोध पत्रों का प्रकाशन भी घटा है। स्थानीय उद्योगों और व्यवसायों से विश्वविद्यालय का कोई जुड़ाव नहीं है, जिससे छात्रों को व्यावहारिक कौशल नहीं मिल पा रहे।
यदि अब भी साहसिक कदम नहीं उठाए गए, तो यह ऐतिहासिक संस्थान इतिहास बनकर रह जाएगा। केंद्रीय दर्जा, ढाँचागत पुनर्गठन और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण ही इसे डूबने से बचा सकते हैं। आधे-अधूरे उपाय अपर्याप्त हैं; केवल संपूर्ण सुधार ही इस विश्वविद्यालय को उसके गौरवशाली अतीत की ऊँचाइयों तक ले जा सकते हैं।