
कैसे सहकारिता आंदोलन से बदलती लोगों की जिंदगी
विवेक शुक्ला
हाल ही में राजधानी के दिल्ली हाट में एक कश्मीरी महिला व्यवसायी खदीजा भट्ट बता रही थीं कि वे सारे भारत में कश्मीरी हस्तशिल्प और दूसरा सामान बेचकर बेहतर जिंदगी गुजार रही हैं। यह इसलिए संभव हो रहा क्योंकि वे एक सहकारी संगठन के तहत काम करती हैं। भारत में सहकारिता आंदोलन से लाखों महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया हैं। यह आंदोलन, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक सशक्तिकरण और आत्मविश्वास प्रदान कर रहा है। सहकारी समितियों के माध्यम से महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों जैसे कृषि, दुग्ध उत्पादन, हस्तशिल्प, और सूक्ष्म वित्त में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।सहकारी समितियों ने महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान किए हैं। उदाहरण के लिए, अमूल जैसी दुग्ध सहकारी समितियों में लाखों महिलाएं दूध उत्पादन और वितरण से जुड़ी हैं, जिससे उनकी आय में वृद्धि हुई है।
फिलहाल देश में 8 लाख से अधिक पंजीकृत सहकारी समितियाँ हैं, जिनसे लगभग 30 करोड़ लोग जुड़े हैं। 20% कृषि ऋण, 35% उर्वरक वितरण और 31% चीनी उत्पादन अब सहकारी संगठनों द्वारा संभाला जाता है। इसके अलावा, डेयरी सहकारी समितियाँ भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 4.5% का योगदान देती हैं। अनुमान है कि 2030 तक सहकारी क्षेत्र 11 करोड़ से अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करेगा, जिसमें प्रत्यक्ष और स्व-रोजगार दोनों शामिल हैं।
दरअसल केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा सहकारिता के माध्यम से विकास का यह मॉडल न केवल कश्मीर में बल्कि पूरे देश में सफल हो रहा है। कुछ साल पहले तक ग्रामीण भारत में सबसे बड़ी समस्या यह थी कि छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए लोगों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था और उसका बड़ा हिस्सा बिचौलियों को देना पड़ता था। लेकिन अब उन्हें इससे राहत मिल रही है। आज, दिल्ली से दूर राज्यों में रहने वाली आदिवासी महिलाएं भी सहकारी समितियों के माध्यम से अपने घरेलू खर्च आसानी से चला सकती हैं। वे पोल्ट्री, डेयरी और कृषि के जरिए सालाना 1.5 से 2 लाख रुपये कमा रही हैं। सहकारी समितियों से जुड़े स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से उन्हें आसान शर्तों पर कर्ज मिल रहा है, जिससे वे अपने व्यवसाय को बढ़ा रही हैं और अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य बना रही हैं।
पिछले एक दशक में सहकारी आंदोलन ने लंबी छलांग लगाई है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ अभी भी बाकी हैं, जैसे भ्रष्टाचार, प्रबंधन की कमियां और कुछ क्षेत्रों में जागरूकता की कमी। सहकारिता मंत्री अमित शाह ने इन समस्याओं से निपटने के लिए सख्त कदम उठाए हैं, जैसे सहकारी समितियों में ऑडिट और जवाबदेही अनिवार्य करना।
दरअसल देश के सहकारिता क्षेत्र में बदलाव की बयार बहने की शुरूआत नरेंद्र मोदी ने तब कर दी थी जब उन्होंने ग्रामीण विकास में सहकारिता के महत्व को समझते हुए इसके लिए एक अलग मंत्रालय बनाया। फिर अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी अमित शाह को इसका मंत्री नियुक्त किया। जानकार जानते हैं कि 2014 से पहले सहकारी संगठनों से लोग निराश थे। सहकारी समितियाँ भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी थीं। उनके कामकाज में पारदर्शिता की कमी थी, लेकिन इस मंत्रालय ने अब एक सुसंगत, आधुनिक और डेटा-आधारित सहकारी संगठन का मॉडल स्थापित किया है।
जम्मू-कश्मीर में सहकारी आंदोलन का विस्तार, खासकर 2014 के बाद, विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अनुच्छेद 370 के हटने के बाद, इस क्षेत्र में आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए सहकारिता को एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा गया है। जम्मू-कश्मीर में सेब, केसर और अखरोट जैसे स्थानीय उत्पादों के लिए सहकारी समितियाँ बनाई गई हैं। इन समितियों ने किसानों को बेहतर बाजार, भंडारण सुविधाएँ और उचित कीमतें दिलाने में मदद की है।
उदाहरण के लिए, कश्मीर के सेब उत्पादकों के लिए सहकारी समितियों ने न केवल स्थानीय स्तर पर मार्केटिंग को बढ़ावा दिया है, बल्कि उनके उत्पादों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुँचाने में भी मदद की है। अमित शाह ने सहकारी सम्मेलनों में जोर दिया है कि कश्मीर जैसे क्षेत्रों में सहकारिता छोटे किसानों और कारीगरों को सशक्त बनाने का एक प्रभावी तरीका है। इससे न केवल आर्थिक विकास हुआ है, बल्कि सामाजिक एकता भी मजबूत हुई है।
भारत में सहकारिता आंदोलन और महिलाओं की बदलती जिंदगी
सहकारिता ने सामाजिक स्तर पर भी प्रभाव डाला है। महिलाएं सहकारी समितियों के माध्यम से नेतृत्व की भूमिकाएं निभा रही हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ी है। ये समितियां सामुदायिक एकजुटता को बढ़ावा देती हैं, जिससे महिलाएं सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी आवाज उठा रही हैं।
सहकारी संगठनों में बढ़ते जनविश्वास का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम से कर्ज वितरण पिछले तीन वर्षों में पाँच गुना बढ़ गया है। इसने 2021 में 25,000 करोड़ रुपये के कर्ज वितरित किए थे, जबकि अब तक 1.28 लाख करोड़ रुपये स्वीकृत और वितरित किए जा चुके हैं।
केंद्र सरकार का नारा, “सहकार से समृद्धि”, इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है कि सहकारिता के माध्यम से ग्रामीण और कमजोर वर्गों को आर्थिक रूप से सशक्त किया जा सकता है। अमित शाह ने बार-बार जोर दिया है कि सहकारिता उन लोगों के लिए एक शक्तिशाली साधन है जिनके पास कम या कोई पूँजी नहीं है। यह समझना चाहिए कि भारत जैसे कृषि प्रधान और सामाजिक-आर्थिक रूप से विविध देश में, सहकारी आंदोलन की सफलता राष्ट्रीय विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
यह जानना जरूरी है कि यदि ग्रामीण भारत का विकास करना है, तो सहकारी आंदोलन को और मजबूत करना होगा। अच्छी बात यह है कि इस दिशा में देश में ठोस काम हो रहा है। हां, इस क्षेत्र में जो अब तक कमियां रही हैं उन्हें भी जड़ से खत्म करना ही होगा।