कृत्रिम बुद्धिमत्ता: नवाचार की उड़ान या बौद्धिक चोरी का यंत्र?

Artificial intelligence: A flight of innovation or a tool for intellectual theft?

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) आज नई रचनात्मकता का माध्यम बन चुकी है, पर यह बहस का विषय है कि क्या यह नवाचार, रचनाकारों की मेहनत की चोरी पर टिका है? अमेरिका में अदालतों ने एआई द्वारा ‘सीखी गई’ सामग्री को उचित प्रयोग माना, पर रचनाकार असंतुष्ट हैं। भारत में समाचार एजेंसी एएनआई ने ओपनएआई के खिलाफ कॉपीराइट उल्लंघन की शिकायत की है। देश में मौजूदा कानून इस तकनीकी चुनौती के लिए नाकाफी हैं। भारत को चाहिए कि वह अपने बौद्धिक संपदा कानूनों को अद्यतन करे ताकि तकनीकी विकास के साथ रचनात्मक अधिकारों की भी रक्षा हो सके।

प्रियंका सौरभ

इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी तकनीकी छलांगों में से एक है जनरेटिव कृत्रिम बुद्धिमत्ता — यानी ऐसा कंप्यूटर मस्तिष्क जो कहानी से लेकर समाचार रिपोर्ट, चित्र से लेकर कविता, और अदालत के निर्णय से लेकर संवाद तक खुद रच सकता है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इस मशीनी रचनात्मकता की नींव क्या किसी और की मेहनत पर टिकी है? क्या यह नई तकनीक रचनाकारों, लेखकों, पत्रकारों, चित्रकारों और संगीतकारों की बनाई सामग्रियों को चुपचाप अपने ज्ञान का हिस्सा बना रही है — बिना उनकी अनुमति, बिना कोई श्रेय दिए?

हाल ही में अमेरिका की दो अदालतों में ऐसे ही मामलों पर निर्णय हुआ। इन फैसलों ने फिलहाल तकनीकी कंपनियों को राहत दी है, पर यह विषय अभी भी पूरी तरह सुलझा नहीं है। इन फैसलों ने पूरी दुनिया में बहस छेड़ दी है — और भारत भी इससे अछूता नहीं है।

जनरेटिव कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले मॉडल — जैसे कि ओपनएआई का चैटजीपीटी या मेटा का लामा — करोड़ों पुस्तकों, वेबसाइटों, गीतों, समाचारों और चित्रों का अध्ययन करके प्रशिक्षित किए जाते हैं। इनका प्रशिक्षण इस तरह होता है जैसे कोई छात्र पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त करता है, लेकिन यह छात्र उस पुस्तक को पढ़ने से पहले लेखक से न अनुमति लेता है, न ही लेखक को श्रेय या पारिश्रमिक देता है। यही से विवाद आरंभ होता है।

2024 में अमेरिका में पहला मामला आया जिसमें कुछ उपन्यासकारों ने कंपनी ‘एंथ्रॉपिक’ पर आरोप लगाया कि उसने उनकी पुस्तकों का उपयोग अपने कृत्रिम बुद्धिमत्ता मॉडल को प्रशिक्षित करने के लिए किया। लेखकों का कहना था कि यह उनकी बौद्धिक संपदा का उल्लंघन है। परंतु अदालत ने निर्णय दिया कि यह मॉडल जो नई सामग्री उत्पन्न कर रहा है, वह मूल रचना से अलग, नया और परिवर्तित है। इसलिए यह ‘उचित प्रयोग’ की श्रेणी में आता है और कंपनी को अपराधी नहीं माना जा सकता।

दूसरे मामले में कंपनी मेटा पर साहित्य और पत्रकारिता सामग्री को बिना अनुमति इस्तेमाल करने का आरोप था। अदालत ने माना कि कंपनी ने सचमुच संरक्षित रचनाएं पढ़ी थीं, लेकिन उसका उद्देश्य कुछ नया सीखना और बनाना था, इसलिए इसे भी ‘परिवर्तनकारी उपयोग’ मानते हुए मेटा को दोषमुक्त कर दिया गया।

इन दोनों फैसलों से एक संदेश यह गया कि न्यायालय फिलहाल तकनीकी नवाचार को प्राथमिकता दे रहे हैं, लेकिन लेखक समुदाय और बौद्धिक श्रमिकों के मन में यह सवाल घर करता जा रहा है कि यदि यह ‘उचित प्रयोग’ है, तो उनकी मेहनत, मौलिकता और अधिकारों का क्या?

अब दृष्टि भारत की ओर मोड़ते हैं। समाचार एजेंसी एएनआई ने वर्ष 2024 में ओपनएआई पर आरोप लगाया कि उसके संवाद आधारित मॉडल (जैसे चैटजीपीटी) उनकी समाचारों की भाषा, शैली और विषय-वस्तु की हूबहू नकल कर रहा है। इसके अलावा प्रकाशक संघों ने भी आरोप लगाए कि भारत में कॉपीराइट पंजीकरण की अनदेखी कर इन एआई कंपनियों ने भारतीय सामग्री का व्यावसायिक दोहन किया।

ओपनएआई का पक्ष यह था कि वह भारत में न तो अपने सर्वर चलाता है, न ही उसका कोई स्थायी कार्यालय है। उसका तर्क था कि उसकी तकनीक कुछ नया, परिवर्तित और जनहित में उपयोगी सामग्री तैयार करती है — और यह बौद्धिक चोरी नहीं कहलाती।

यह मामला अब दिल्ली उच्च न्यायालय में विचाराधीन है, और इसकी सुनवाई जुलाई के पहले सप्ताह में निर्धारित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में अब यह बहस न्यायिक गलियारों में पहुंच चुकी है।

प्रश्न यह है कि क्या भारत का मौजूदा बौद्धिक संपदा कानून इस नई तकनीकी चुनौती के लिए तैयार है? 1957 में बनाए गए कॉपीराइट अधिनियम में ‘उचित प्रयोग’ की धारणा है, पर उसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे मामलों की स्पष्ट व्याख्या नहीं है। ना ही भारत में ऐसा तंत्र है जो यह जांच सके कि कोई एआई मॉडल प्रशिक्षण के लिए किन सामग्रियों का उपयोग कर रहा है और वे सामग्री कॉपीराइट के अंतर्गत आती हैं या नहीं।

आज लेखक, कवि, चित्रकार, संगीतकार, फोटोग्राफर और पत्रकार यह महसूस कर रहे हैं कि उनका सृजन कार्य मशीनों के पेट में डाला जा रहा है, और बदले में उन्हें न कोई श्रेय मिल रहा है, न ही पारिश्रमिक। यह न केवल कानूनी बल्कि नैतिक चिंता का विषय है।

इस विषय पर बहस यह नहीं है कि तकनीक को रोका जाए। नवाचार और प्रौद्योगिकी की प्रगति आवश्यक है, लेकिन वह प्रगति ऐसी न हो जो मानवीय रचनात्मकता को निगल जाए। अगर कोई लेखक दस वर्षों की मेहनत से एक उपन्यास रचता है, और कोई मशीन दो सेकंड में उसकी शैली की नकल करके नया ‘उत्पाद’ बनाती है, तो यह न तो न्यायसंगत है, न ही सम्मानजनक।

न्यायालयों की जिम्मेदारी अब केवल यह नहीं रह गई कि वे कंपनियों और व्यक्तियों के बीच विवाद सुलझाएं, बल्कि उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य का तकनीकी विकास समान रूप से सभी के हित में हो। केवल पूंजी और तकनीक के सहारे अगर किसी का बौद्धिक श्रम मुफ्त में हड़पा जा रहा है, तो वह लोकतांत्रिक और नैतिक मूल्यों का उल्लंघन है।

भारत को चाहिए कि वह अपने कॉपीराइट कानूनों की पुनर्रचना करे — विशेषकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग के अनुरूप। ऐसी व्यवस्था बने जिसमें रचनाकारों की रचनाओं को यदि तकनीक द्वारा उपयोग किया जा रहा है तो उन्हें उसका पारिश्रमिक मिले, उनके नाम का उल्लेख हो, और उनकी अनुमति अनिवार्य हो।

यह केवल न्याय की बात नहीं है, यह साहित्य, संस्कृति और रचनात्मकता की रक्षा की बात है। यदि हम अपने समय के रचनाकारों की अनदेखी करेंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ तकनीक तो पाएंगी — पर संवेदना नहीं, आत्मा नहीं।

मशीनों को दी उड़ान, पर कलम से छीना आसमान,
बिना श्रेय के ज्ञान अगर, तो कैसा विज्ञान?