
डॉ सत्यवान सौरभ
1 “सावन की पहली बूँद”
बादल की पहली दस्तक, मन के आँगन आई,
भीग गया हर कोना, हर साँस मुस्काई।
पीपल की टहनी बोली, झूले की है बारी,
छत की बूँदों ने फिर, गाई प्रेम पिचकारी।
मिट्टी ने भी मुँह खोला, सौंधी-सौंधी भाषा,
मन में उठे भावों की, भीनी-भीनी आशा।
चुनरी उड़ती दिशा-दिशा, लहराए सावन,
पलकों पर ठहरी जैसे, बरखा में जीवन।
बिरहा के गीतों में, घुलता राग अधूरा,
झोपड़ी की दीवारें भी, रोतीं तनहा-सा सूरत।
बच्चों की हँसी बिखरे, कीचड़ के संग संग,
भीग रहा हर रिश्ता, जैसे कोई उमंग।
सावन की पहली बूँदें, दिल तक उतरें आज,
हर किसी की आँखों में, बसी कोई आवाज़।
वो जो गया है दूर कहीं, उसे लिखूं संदेस,
“बरखा आई फिर वही, लेकर तेरा भेस।”
2. “झूले वाले दिन आए”
झूले वाले दिन आए, पायल की छनकार,
घूँघट में लजाए सावन, रंग भरे हज़ार।
काजल भीगे नैना, मेंहदी रचती हाथ,
सखियाँ गाएं गीत वो, जिसकी हो तलाश।
पलाश और आम की, डालें हुईं जवाँ,
झूले संग लहराए, मन की हर दुआ।
बरखा की चूनर ओढ़े, धरती की ये माँ,
हरियाली की चिट्ठियाँ, लेकर आई हवा।
पथिक रुके हैं थमकर, सुनने बादल गीत,
पगली नदी भी झूमें, बाँधें जल की रीत।
बंसी फिर से बोले, कान्हा पुकारे राधा,
मन मंदिर में बजे हैं, प्रेम भरे प्रभादा।
झूले वाले दिन आए, हर मन रंग जाए,
चुनरी सी उड़ती ख़ुशियाँ, कोई रोक न पाए।
मौसम का ये तावीज़, बाँधे रिश्तों को पास,
सावन जैसे हर जन को, दे प्रेम का प्रकाश।
3. “अब के सावन में”
अब के सावन में
बूँदें सिर्फ़ पानी नहीं रहीं,
वो सवाल बनकर गिरती हैं
छतों, छायाओं और चेतना पर।
अब के सावन में
न कोई प्रेम पत्र भीगा,
न कोई हथेली मेंहदी से लिपटी,
बस मोबाइल स्क्रीन पर टपकी बारिश की रील।
अब के सावन में
कविताएं भीगने से डरती हैं,
काग़ज़ गल जाए तो?
या भाव उड़ जाए तो?
पर फिर भी,
जब एक बूँद चुपचाप
मेरी खिड़की पर टिकती है,
मैं जानती हूँ—
भीतर का सावन अब भी जीवित है।
4. “सावन की सिसकी”
भीग गया मन फिर चला, तेरी यादों की ओर,
सावन ने फिर छेड़ दिया, वो भीगा सा शोर।
टपक रही हर साँझ में, कुछ अधूरी बात,
छत पर बैठी पाती पढ़े, भीगी-भीगी रात।
झूला झूले याद में, पीपल की वह छाँव,
तेरे संग सावन जिया, अब लगता बेजान।
बूँद-बूँद में नाम तेरा, भीगा पत्र पुराना,
तेरे बिना हर मौसम में, खालीपन का गाना।
चाय की प्याली अकेली, खिड़की की तन्हाई,
भीतर गूंजे सावन, बाहर बारिश आई।
भेज रहा हूँ हवा से, फिर इक संदेश,
“तेरा इंतज़ार अब भी है, सावन का ये वेश।”
5. “सावन बोल पड़ा”
सावन बोल पड़ा —
“मैं वो साज़ हूँ, जो मन को छूता है।
मैं वो गीत हूँ, जो बिन बोले गूंजता है।
मैं भीगते बालकों की हँसी हूँ,
और चुपचाप रोते खेतों की तृप्ति भी।”
सावन फिर बोला —
“मुझमें पनपता है प्रेम,
और मिटती है दूरी।
मैं झोपड़ी का गीत हूँ,
और महलों की चुप्पी भी।”
सावन बोला —
“मेरे संग बहती हैं स्मृतियाँ,
और उगती हैं उम्मीदें।
मैं आज भी वही हूँ —
बस तुमने देखना छोड़ दिया है मुझे।”