
सुनील कुमार महला
आज भारत विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ ही विकास और तकनीक के क्षेत्र में लगातार प्रगति पथ पर अग्रसर है, यह काबिले-तारीफ है, लेकिन भारत के जनसांख्यिकीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 के एक बड़े खुलासे के मुताबिक देश में 13 प्रतिशत बच्चों का जन्म समयपूर्व हो रहा है, जबकि 17 प्रतिशत बच्चों का जन्म के समय वजन मानक से कम होता है। सर्वे के अनुसार वायु प्रदूषण भी जन्म से जुड़े प्रतिकूल प्रभावों का कारण बन रहा है, यह बहुत ही चिंताजनक बात है। आज की इस दुनिया में न केवल भारत के लिए अपितु संपूर्ण विश्व के लिए पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है। विकसित देशों ने तो पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से अपना हाथ खींच लिया है, लेकिन इसका खामियाजा कहीं न कहीं विकासशील देशों को भुगतना पड़ रहा है। आज विकासशील देश जीवाश्म ईंधन और बायोमास का उपयोग कर रहे हैं और यह कहीं न कहीं हमारे वातावरण, हमारे पर्यावरण, हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के साथ ही मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ रहे हैं। मानव स्वास्थ्य की यहां यदि हम बात करें तो हमारे यहां गर्भ में ही बच्चों की सेहत बिगड़ रही है। बच्चे कम वजन के तथा समय से पहले पैदा हो रहे हैं।
बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि आइआइटी यानी कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली, मुंबई स्थित अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान तथा ब्रिटेन और आयरलैंड के संस्थानों के शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 और दूर संवेदी डेटा का अध्ययन करके गर्भावस्था के दौरान वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से प्रसव परिणामों पर प्रभावों का विश्लेषण किया है। इसमें यह पाया गया है कि गर्भावस्था के दौरान पीएम 2.5 (सूक्ष्म कण प्रदूषण) के अधिक संपर्क में रहने से जन्म के समय कम वजन वाले बच्चे पैदा होने की आशंका 40 प्रतिशत तथा समय से पहले प्रसव की आशंका 70 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसमें जलवायु परिस्थितियों जैसे वर्षा और तापमान, का प्रतिकूल जन्म परिणामों से अधिक गहरा संबंध पाया गया। यहां पाठकों को बताता चलूं कि वातावरण में मौजूद 2.5 माइक्रोन से भी छोटे व्यास वाले सूक्ष्म कण पदार्थ को पीएम 2.5 कहा जाता है और इन्हें सबसे हानिकारक वायु प्रदूषक माना जाता है। वातावरण में इनकी मौजूदगी के लिए जीवाश्म ईंधन और बायोमास के दहन को प्रमुख कारणों में से एक माना जाता है। रिसर्चर्स के अनुसार ऊपरी गंगा क्षेत्र में पीएम 2.5 प्रदूषकों का स्तर अधिक है, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं।देश के दक्षिणी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में इसका स्तर(पीएम प्रदूषकों का) कम है। स्वास्थ्य पत्रिका ‘पीएलओएस ग्लोबल पब्लिक हेल्थ’ में प्रकाशित स्टडी(अध्ययन) के मुताबिक भारत के उत्तरी जिलों में रहने वाले बच्चे वातावरणीय वायु प्रदूषण के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं। स्टडी के अनुसार समय से पहले जन्म के अधिक मामले उत्तरी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश (39 प्रतिशत), उत्तराखंड (27 प्रतिशत), राजस्थान (18 प्रतिशत) और दिल्ली (17 प्रतिशत) में आए, जबकि मिजोरम, मणिपुर और त्रिपुरा(पूर्वोत्तर भारत) में समय पूर्व बच्चों के जन्म के सबसे कम मामले सामने आए हैं। वहीं दूसरी ओर पंजाब में जन्म के समय मानक से कम वजनी बच्चें पैदा होने की दर सबसे अधिक 22 प्रतिशत पाई गई। इसके बाद दिल्ली, दादरा और नगर हवेली, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का स्थान आता है। हालांकि, जैसा कि ऊपर जानकारी दे चुका हूं कि पूर्वोत्तर भारत के राज्यों का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। पाठकों को बताता चलूं कि यह स्टडी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और कंप्यूटर आधारित भौगोलिक आकलन से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग कर की गई है।इतना ही नहीं,
गर्भ में वायु प्रदूषण के संपर्क और जन्म परिणामों के बीच संबंध को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न सांख्यिकीय विश्लेषण और स्थानिक मॉडलों का उपयोग भी इसमें किया गया है। वास्तव में यह बहुत ही चिंताजनक है कि
पीएम 2.5 के स्तर में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से कम वजन वाले बच्चों के जन्म पैदा होने की आशंका पांच प्रतिशत और समय से पहले जन्म की आशंका 12 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जहां वायु प्रदूषण की अधिकता है, वहां बच्चों की समयपूर्व जन्म की दर बढ़ रही है, तथा जहां पर प्रदूषण कम है, वहां स्थिति बेहतर है। रिसर्च से पता चलता है कि वायु प्रदूषण जन्म से पूर्व और जन्म के उपरांत जटिलताओं का कारण बन रहा है। शायद यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से महिलाओं में स्वाभाविक प्रसव बहुत कम होता है तथा महिलाओं में प्रसव के दौरान आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए सिजेरियन ऑप्रेशन कर दिए जाते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का असर न केवल भारत पर अपितु संपूर्ण विश्व पर पड़ रहा है। अत्याधिक गर्मी, असीमित वर्षा(अतिवृष्टि) भी बच्चों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। आज हमारे देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में वायु प्रदूषण कहीं अधिक है। इसलिए नवजातों की सेहत पर बड़ा खतरा मंडरा है। स्पष्ट है कि यह समस्या केवल चिकित्सा से ही हल नहीं होगी। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को खत्म करके ही हम बच्चों के सामान्य जन्म की उम्मीद कर सकते हैं।इस क्रम में शोधकर्ताओं ने देश में विशेष रूप से उत्तरी राज्यों में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को तेज करने की मांग की है। गौरतलब है कि 2019 में शुरू किया गया यह कार्यक्रम भारत में वायु गुणवत्ता को सुधारने के लिए पीएम प्रदूषकों के स्तरों को नियंत्रित करने पर केंद्रित है। अंत में, यही कहूंगा कि आज ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही जलवायु परिवर्तन पर हमें समय रहते ध्यान देना होगा और विभिन्न मानवीय गतिविधियों (अंधाधुंध विकास-यथा औधोगिकीकरण, शहरीकरण) को संतुलित तरीके से आगे बढ़ाना होगा। पर्यावरण है तभी जीवों का अस्तित्व है, पर्यावरण नहीं तो कुछ भी नहीं है। आज देश में जलवायु अनूकूलन रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित किए जाने की आवश्यकता महत्ती है। हमें धरती पर जल प्रबंधन व इसके संरक्षण पर ध्यान देना होगा। जीवाश्म ईंधन के विकल्प ढ़ूढ़कर आगे बढ़ना होगा।वायु गुणवत्ता नियंत्रण को भी स्वास्थ्य नीति का अहम् हिस्सा बनाना होगा।वायु प्रदूषण कम करने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जिनमें व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास और सामूहिक पहल शामिल हैं। मुख्य रूप से, स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग बढ़ाना, और अधिक पेड़ लगाना(वृक्षारोपण करना), पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर रोक जैसे उपाय वायु प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं। हमें औधोगिक उत्सर्जन को कम करना होगा। साथ ही साथ, शहरी नियोजन में सुधार, प्रदूषण नीतियों को पूरी ईमानदारी से लागू करना, तथा प्रदूषण के ख़तरों के बारे में जागरूकता बढ़ाकर ही प्री-मैच्योर डिलीवरी और कम वजन के नवजात की समस्या से निपटा जा सकता है।