यदि कुपोषण की बढ़ती संख्या कम नहीं हुई, तो भविष्य डरावना होगा

If the rising numbers of malnutrition do not reduce, the future will be scary

अशोक भाटिया

अगर आप किसी समस्या के प्रति आंखें मूंद लेते हैं तो समस्या को उभरने में ज्यादा समय नहीं लगता। आप तब तक नहीं जागते जब तक आपको समस्या का एहसास न हो, समस्या आपके घर की दहलीज तक न आ जाए, जब तक कि समस्या आपको व्यक्तिगत नुकसान न पहुंचाए। समस्या को हल करने का प्रयास किया जाता है। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी भारत को +5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दावा करते रहते हैं, दूसरी तरफ भारत भूखे लोगों, कुपोषित बच्चों और एनीमिया से पीड़ित महिलाओं का देश बनता जा रहा है। हाल में ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और यूनिसेफ सहित चार अन्य संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा जारी इस साल की ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ (एसओएफटी) रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 194।6 मिलियन (19।5 करोड़) कुपोषित लोग हैं – जो दुनिया के किसी भी देश में सबसे ज्यादा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आधे से ज्यादा भारतीय 55।6% भारतीय याने कि 79 करोड़ लोग अभी भी ‘पौष्टिक आहार’ का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। यह अनुपात दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा और चैकाने वाला है जो भारत के लिए एक चेतवानी है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भी भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से भी सबसे निचले पायदान पर है, जिनकी अर्थव्यवस्था भारत से काफी छोटी है और जिन्हें भारत से गरीब माना जाता है। देश में 5 साल से कम उम्र के ऐसे बच्चों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है, जिनका वजन उनकी लंबाई की तुलना में कम है। गौरतलब है कि भारत में इस समय पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 37 है, जिसमें 69 फीसदी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं, जो भयावह है। इस देश में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर जरूरी भोजन मिल पाता है। हमारे देश में करीब 21 फीसदी बच्चे अपनी उम्र और लंबाई के हिसाब से कम वजन के हैं। भूख और कुपोषण का एक सामाजिक पहलू भी है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों के अनुसार, आदिवासियों और दलितों में कुपोषण की दर भारत में सबसे अधिक है, 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के 44 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।

भारत में कुपोषण पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को चेतवानी के बतौर कार्रवाई देखा जाना चाहिए। सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह विकास के सतही मापदंडों से अपना ध्यान हटाकर भूख की बुनियादी समस्या से निपटने पर केंद्रित करे। देश की आधी से ज्यादा आबादी ‘पौष्टिक आहार’ का खर्च उठाने में असमर्थ है। बच्चों में कम वजन और कम वजन वाले शिशुओं के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, और महिलाओं में एनीमिया के मामले में दक्षिण एशिया में पहले स्थान पर है।समस्या की गंभीरता के बारे में ताहो टूट गया है। यह हमारे देश में हर किसी की मानसिकता है। राज्य में कुपोषण के आंकड़े जारी होते ही कई लोगों की नींद उड़ गई है। ऐसा भी हुआ है। जब कुपोषण की समस्या का जिक्र होता है तो हर कोई मेलघाट या आदिवासी बस्तियों को देखता था। गूगल पर भी जब कुपोषण को कुपोषण कहा जाता है तो मेलघाट क्षेत्र की तस्वीरें दिखाई देती हैं। आज इस समस्या को हल करना संभव नहीं हो सकता है।राजनीतिक विचार-विमर्श के अलावा, राजनीतिक विवाद और राजनीतिक घटनाक्रम के अलावा हमारा ध्यान अपने देश, प्रदेश और स्थानीय निकायों की समस्याओं की ओर नहीं जाता। अगर कुपोषण की समस्या मेलघाट तक ही सीमित रहती, आदिवासी बस्तियों तक ही सीमित रहती, तो कुपोषण की इतनी चर्चा कोई नहीं करता। लेकिन आज कुपोषण की समस्या मेलघाट के दरवाजे को पार कर महाराष्ट्र के हर कोने में प्रवेश कर चुकी है। इस बीमारी ने न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दिखाना शुरू कर दिया है।

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई भी कुपोषण की चपेट में है। दस्तावेजों से पता चला है कि मुंबई में कुपोषण के मामलों की संख्या सबसे अधिक है, जिसके बाद कई लोगों की नींद उड़ गई है। बेशक, कुपोषण का प्रकोप स्वास्थ्य प्रणाली की विफलता है। आज प्रशासनिक एजेंसियों द्वारा कुपोषण की गंभीरता को न समझने के कारण कुपोषण की समस्या खड़ी हुई है। खुद राज्य सरकार ने विधानसभा सत्र में ही कुपोषण की बढ़ती दर को स्वीकार किया है।महिला एवं बाल विकास मंत्री अदिति तटकरे ने विधानसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि राज्य में 1,82,443 कुपोषित बच्चे पाए गए हैं, जिनमें से 30,800 बच्चे गंभीर तीव्र कुपोषण की श्रेणी में हैं और 1,51,643 बच्चे मध्यम कुपोषित श्रेणी में हैं। धुले जिले में, 6,377 मध्यम कुपोषित हैं और 1,741 गंभीर रूप से कुपोषित हैं।

कुपोषण की समस्या भारत जैसे विकासशील देश के लिए कोई समस्या नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार और उसकी राज्य सरकारों द्वारा इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत हैं । देश पिछले कई वर्षों से बाल कुपोषण की गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। देश के भविष्य के लिए मजबूत और स्वस्थ होना महत्वपूर्ण है। इसके लिए बच्चों को कम उम्र में अच्छा स्वस्थ और पौष्टिक भोजन प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। लेकिन गरीबी के कारण लाखों बच्चों और माताओं को पौष्टिक भोजन नहीं मिल पा रहा है। कुपोषित पैदा होने वाले बच्चों का अनुपात अधिक है। इस संबंध में सरकार द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत दिए गए हालिया आंकड़े चौंकाने वाले हैं और इससे साफ है कि देश में सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे महाराष्ट्र में हैं।केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार, देश में 33 लाख से अधिक कुपोषित बच्चे हैं, जिनमें से आधे से अधिक अत्यधिक कुपोषित हैं। महाराष्ट्र, बिहार और गुजरात में कुपोषित बच्चों की संख्या सबसे अधिक है।

कोरोना की वैश्विक महामारी के संकट के बाद कुपोषण की समस्या और गंभीर हो गई है। कोरोनावायरस महामारी से सभी सामाजिक-आर्थिक संकेतक नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं। इस दौरान स्कूलों में मिलने वाले मिड-डे मील को बंद करने से कई गरीब परिवारों के बच्चों में कुपोषण बढ़ा है। कुपोषण किसी भी बीमारी के अनुबंध के उच्च जोखिम से जुड़ा हुआ है। इसलिए बच्चों में कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए गर्भावस्था से उपाय करना आवश्यक है। स्तनपान कराने वाली माताओं को भी पौष्टिक भोजन प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।

इसके लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि छह महीने के बच्चे को ठीक से स्तनपान हो और 5 साल की उम्र तक संतुलित पौष्टिक आहार हो। हमारे देश में गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मां के पोषण के लिए कोई ठोस नीति नहीं है। लेकिन अभी भी इसे बढ़ावा देने पर सार्वजनिक प्रवचन की कमी है, उदाहरण के लिए पहले छह महीनों में विशेष स्तनपान और प्रभावी नर्सिंग की सुविधा प्रदान करना, और फिर स्तनपान के विकल्प के रूप में बच्चे को उपयुक्त हल्का ठोस आहार प्रदान करना।वास्तव में, शिशु देखभाल करने वालों को अक्सर यह नहीं पता होता है कि छह महीने से अधिक उम्र के बच्चे को कितना, कौन सा और कितना खिलाना है। इतना ही नहीं, लेकिन ठोस आहार शुरू करने के बाद भी स्तनपान जारी रखना चाहिए। छोटे बच्चों में मोटापा स्तनपान के बारे में सटीक जानकारी की कमी का परिणाम है। पोषक तत्वों की कमी और गैर-संचारी रोगों की संभावना बढ़ जाती है। पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण माता-पिता अपने बच्चों के नुकसान से अनजान हैं।

राजनीतिक घटनाओं को दिए जाने वाले महत्व को अब रोकना होगा और बच्चों के पोषण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा। देश की भावी पीढ़ी के बच्चे जो देश की भावी पीढ़ी हैं, कम उम्र में ही कुपोषित हो जाएं तो देश का भविष्य क्या होगा? हम सभी के लिए अब इस पर मंथन करना महत्वपूर्ण है। कुपोषित बच्चों की समस्या गरीबों के घरों में ही नहीं बल्कि अमीरों के घरों में भी देखी जा रही है। गर्भाधान से पहले महिलाओं को आहार पर मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए। यदि कुपोषण की बढ़ती संख्या कम नहीं हुई, तो भविष्य डरावना होगा। अतः मोदी सरकार के लिए प्रगति के सतही मापदंड से हटकर भूख के बुनियादी मुद्दे पर ध्यान देना अति आवश्यक है। भूख मिटाने के लिए हमें खेती के स्तर से शुरुआत करनी होगी। किसानों को उचित मूल्य और आर्थिक व्यवहार्यता से वंचित करना भूख और कुपोषण को बनाए रखेगा। कृषि में निवेश करके, किसानों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करके और मजबूत कल्याण कार्यक्रमों को लागू करके, भारत एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जहां प्रत्येक नागरिक को पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो। इसके अलावा, केवल ऐसे कार्यक्रमों पर निर्भर रहना गरीबी उन्मूलन के जटिल मुद्दे को बहुत सरल बना देता है। सच्ची प्रगति के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो न केवल खाद्य सुरक्षा, बल्कि रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा को भी संबोधित करता है। अंततः, इसके लिए नव-उदारवादी पूंजीवाद की बाधाओं से आगे बढ़कर अधिक न्यायसंगत और समावेशी आर्थिक माॅडल की ओर कदम उठाना होगा। भूख के खिलाफ लड़ाई सिर्फ एक ज़रूरत नहीं है। यह हमारा नैतिक दायित्व भी है।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार