मोहर्रम के दौरान ईरानी नेता खामनेई के कसीदे क्यों

Why are Iranian leader Khamenei praised during Muharram?

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ सहित कई जिलों और जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में हाल ही में दो घटनाएं एक जैसी घटीं, जिन्होंने देशभर में एक नई बहस छेड़ दी है। दरअसल, भारत में मोहर्रम के दौरान शिया समुदाय द्वारा इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए जुलूस, ताज़िया और मातम का आयोजन किया जाता है। इस पवित्र महीने में मुसलमानों की धार्मिक भावनाएँ प्रबल होती हैं, और विशेष रूप से शिया समुदाय अपने धार्मिक गुरुओं को सम्मान देता है। ऐसे मौके पर अक्सर राजनीति को धर्म से दूर रखा जाता है,लेकिन हाल ही में, उत्तर प्रदेश के उन्नाव, लखनऊ सहित देश के कई राज्यों में मोहर्रम के दौरान ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई के बैनर-पोस्टर लगाए गए,जिसको लेकर विवाद खड़ा हो गया है। सवाल पूछा जा रहा है कि जब इजरायल और ईरान के बीच संबंध बेहद तनावपूर्ण हैं और भारत दोनों देश के नेताओं को समझा-बूझा रहा है तब समाज का एक वर्ग किसी एक देश की सरकार के पक्ष में क्यों खड़ा दिखाई देता है। वह भी ऐसे मौके पर जब शिया मुलसमान इमाम हुसैन की शहादत को याद करके मातम बना रहे है।।यह तर्क दिया जा सकता है कि खामेनेई एक धार्मिक शख्सियत हैं,लेकिन इसके साथ-साथ सच्चाई यह भी है के वह इस समय सियासी रूप में नजर आ रहे हैं।

बहराल, उत्तर प्रदेश में तमाम जिलों के स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने इन पोस्टरों को हटाने का आदेश दिया, क्योंकि सार्वजनिक स्थानों पर विदेशी नेताओं की तस्वीरें लगाना नियमों के खिलाफ माना जाता है। कई लोगों का मानना है कि यह भारत की संप्रभुता और सामाजिक सौहार्द के लिए खतरा हो सकता है, खासकर जब ईरान-इज़रायल संघर्ष की पृष्ठभूमि में इसे राजनीतिक समर्थन के रूप में देखा जाता है। उन्नाव में पुलिस ने शांति बनाए रखने के लिए पोस्टर हटवाए, जिस पर शिया संगठनों ने नाराज़गी जताई। मौलाना यासूब अब्बास जैसे धर्मगुरुओं ने इसे धार्मिक भावनाओं पर हमला बताया, जबकि प्रशासन का कहना था कि यह कदम सामुदायिक तनाव को रोकने के लिए ज़रूरी था।

गौरतलब हो, धर्म के नाम कुछ शिया मुसलमान जो कर रहे हैं उसके चलते भारत-इजरायल के पुराने संबंधों भी प्रभावित हो सकते हैं। कुछ लोग इसे वैचारिक प्रदर्शन मानते हैं, जो इमाम हुसैन के अन्याय के खिलाफ संघर्ष को दर्शाता है। फिर भी, भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक देश में ऐसी गतिविधियां सावधानी बरतने की मांग करती हैं, ताकि सामाजिक एकता बनी रहे। लखनऊ में ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई का पोस्टर लगाए जाने और श्रीनगर में मुहर्रम के दौरान आतंकी संगठन हिज़्बुल्लाह के झंडे लहराए जाने की घटनाएं न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दायरे में भी चर्चा का विषय बन गई हैं। इन घटनाओं ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या धार्मिक आस्था की आड़ में भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में विदेशी एजेंडा पनप रहा है? लखनऊ के अवध पॉइंट स्थित शिया धर्मगुरु मौलाना यासूब अब्बास के आवास,शिया डिग्री कालेज, विक्टोरिया स्ट्रीट आदि कुछ स्थानों पर जब अयातुल्ला खामेनेई के बड़े-बड़े पोस्टर लगाये गये, तब कई लोगों ने इसे सामान्य धार्मिक परंपरा माना। मौलाना यासूब ने सफाई दी कि हर साल की तरह इस बार भी हैदरी टास्क फोर्स की ओर से ये पोस्टर लगाए गए हैं। बहरहाल, शिया धर्मगुरूओं को यही लगता है कि खामेनेई शिया समुदाय के लिए एक धार्मिक गुरु हैं, इसलिए इसमें कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है। लेकिन इस बार मामला इसलिए खास बन गया क्योंकि यह पोस्टर ऐसे समय लगाया गया, जब ईरान और इज़रायल के बीच 12 दिन तक भयंकर संघर्ष चला। ऐसे में जब भारत में किसी ऐसे देश के सर्वाेच्च नेता की सार्वजनिक तस्वीरें सामने आती हैं, जो खुद को इज़रायल का शत्रु घोषित करता है, तो विवाद होना लाज़िमी था। इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। कई लोगों ने पूछा कि जब भारत की सरकार किसी भी वैश्विक संघर्ष में निष्पक्ष भूमिका अपनाने की नीति पर चल रही है, तब भारत की सड़कों पर विदेशी नेताओं के प्रचार की आवश्यकता क्या है?क्या यह धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है या भारत में विदेशी राजनैतिक विचारधाराओं के लिए ज़मीन तैयार करने की एक कोशिश? यह सवाल और गंभीर हो जाता है कि क्या भारत की धार्मिक स्वतंत्रता का दायरा इतना बड़ा है कि उसके भीतर दूसरे देशों की राजनीति को भी छिपने की जगह मिल जाए? क्या धर्म के नाम पर कोई भी समूह किसी विदेशी नेता के लिए समर्थन जुटा सकता है, भले ही उसका भारत से कोई लेना-देना न हो?

इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश की खुफिया एजेंसियां सतर्क हो गईं। प्रशासन ने उन इलाकों में निगरानी बढ़ा दी जहां शिया आबादी अधिक है। अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा लेकिन सुरक्षा व्यवस्था को लेकर अंदरखाने गंभीरता देखी गई। इससे पहले भी जब इज़रायल ने ईरान पर हमला किया था, तब मौलाना यासूब अब्बास के नेतृत्व में लखनऊ में प्रदर्शन हुए थे। उस समय इज़रायल और अमेरिका के नेताओं के पोस्टर जलाए गए थे और भारत सरकार से ईरान के समर्थन की मांग की गई थी।इस पूरे मामले को तब और तूल मिला जब श्रीनगर की सड़कों पर मुहर्रम के दौरान हिज़्बुल्लाह और फिलिस्तीन के झंडे दिखाई दिए। इन झंडों को लेकर न केवल मीडिया में बल्कि प्रशासनिक हलकों में भी चिंता बढ़ गई। यह पहला मौका नहीं है जब श्रीनगर के शिया मुसलमानों ने इस प्रकार की राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ की हों, लेकिन इस बार यह खुलेआम और संगठित रूप से हुआ। हिज़्बुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्लाह और अयातुल्ला खामेनेई के पोस्टर लेकर जुलूस में नारे लगाए गए।हिज़्बुल्लाह एक लेबनानी शिया आतंकी संगठन है, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और खाड़ी के कई देशों ने आतंकी संगठन घोषित कर रखा है। 1983 में बेरूत में अमेरिकी मरीन बैरक पर हमला, 1985 में एक विमान का अपहरण और 1994 में अर्जेंटीना में यहूदी केंद्र पर हमला कृ ये सभी हमले इसी संगठन के नाम हैं। हिज़्बुल्लाह ईरान समर्थित संगठन है और इसका मकसद इज़रायल को मिटाना बताया गया है। भारत से इसका कोई सीधा नाता नहीं है, फिर भी श्रीनगर के कुछ शिया समूह इसे अपना प्रतिनिधि मानते हैं।इस समर्थन का आधार धार्मिक है। शिया मुसलमानों की मान्यता है कि मुहर्रम में इमाम हुसैन ने यज़ीद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और अब इज़रायल को आधुनिक यज़ीद बताया जा रहा है। हिज़्बुल्लाह को ‘हुसैनी फौज’ की तरह पेश किया जा रहा है, जो इज़रायल से लड़ रहा है। इस विचारधारा के मुताबिक हसन नसरल्लाह जैसे नेता आज के दौर में इमाम हुसैन की तरह हैं, जो श्जालिम ताकतोंश् से लड़ रहे हैं। यही कारण है कि इनका समर्थन सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर भी हो रहा है।लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार की भावनाएं भारत की राष्ट्रीय अखंडता के लिए खतरा बन सकती हैं? धार्मिक आयोजन अगर वैश्विक राजनीतिक संघर्षों का मंच बनने लगें तो भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को गंभीर चोट पहुँच सकती है। इससे पहले भी श्रीनगर में हमास और फिलिस्तीन के समर्थन में नारे लग चुके हैं। ऐसे माहौल में जब भारत के युवा वैश्विक इंटरनेट पर धार्मिक कट्टरता की ओर आकर्षित हो रहे हैं, तब इन जुलूसों के माध्यम से उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से कट्टरता के लिए प्रेरित किया जा सकता है।सरकार और खुफिया एजेंसियों को अब यह सोचना होगा कि धार्मिक स्वतंत्रता और राष्ट्र हित के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। धार्मिक आयोजन और जुलूसों पर नजर रखना अब केवल सांप्रदायिक तनाव से बचने के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी जरूरी हो गया है। अगर कोई धार्मिक समूह विदेशी आतंकी संगठन के झंडे लहराता है, तो यह केवल धार्मिक भावना नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता के लिए सीधा खतरा है।सरकार को चाहिए कि वह स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करे कि धार्मिक आयोजनों में विदेशी नेताओं, संगठनों या झंडों का प्रदर्शन प्रतिबंधित हो। धार्मिक नेताओं को भी यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे धार्मिक आयोजनों को राजनीतिक रंग न दें। धर्म और राजनीति का मिश्रण एक ऐसा विस्फोटक मेल है जो समाज की जड़ों को हिला सकता है।यह भी आवश्यक है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर से ही इस प्रकार की गतिविधियों का विरोध हो। भारत में अधिकांश मुसलमान देशभक्त हैं और भारत के संविधान में विश्वास रखते हैं। लेकिन जब कुछ कट्टरपंथी तत्व समुदाय की आड़ में विदेशी संगठनों का समर्थन करते हैं, तो इससे पूरे समुदाय की छवि धूमिल होती है।मीडिया, सामाजिक संगठनों और शिक्षाविदों को भी आगे आकर यह बहस छेड़नी चाहिए कि धार्मिक आयोजनों को वैश्विक राजनीतिक संघर्षों से दूर कैसे रखा जाए। मुहर्रम या किसी भी धार्मिक आयोजन का उद्देश्य भक्ति, शोक, और आत्मचिंतन होना चाहिए, न कि अंतरराष्ट्रीय सियासत का समर्थन।लखनऊ और श्रीनगर की घटनाएं केवल स्थानीय घटनाएं नहीं हैं, बल्कि यह भारत की सामाजिक संरचना, धार्मिक स्वतंत्रता और सुरक्षा नीति के लिए एक चेतावनी हैं। अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया, तो यह प्रवृत्ति भविष्य में और गहरी जड़ें जमा सकती है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत की धरती पर विदेशी झंडे नहीं, बल्कि केवल भारतीयता की पहचान फहराए।