बिहार में वोटर लिस्ट जांच पर सबके अपने दावे और विचार

Everyone has their own claims and views on voter list verification in Bihar

संजय सक्सेना

बिहार में कुछ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के लिये उठाये गये कदम ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया है। विपक्षी दल इस प्रक्रिया को लोकतंत्र पर हमला और गरीब, दलित, पिछड़े, और अल्पसंख्यक समुदायों के मताधिकार को छीनने की साजिश करार दे रहे हैं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग इसे नियमित और संवैधानिक प्रक्रिया बताकर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। यह विवाद अब दिल्ली के निर्वाचन सदन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, और बिहार की सियासत में एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। दस जुलाई को सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर सकता है।

विपक्षी दलों, विशेष रूप से इंडिया गठबंधन के घटक दलों जैसे कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), समाजवादी पार्टी, और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस पुनरीक्षण प्रक्रिया को वोटबंदी करार दिया है। 2 जुलाई 2025 को 11 विपक्षी दलों का 18 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में निर्वाचन सदन पहुंचा और चुनाव आयोग से मुलाकात की। इस प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी, राजद के मनोज झा, और सीपीआई (एमएल) के दीपांकर भट्टाचार्य जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। इसी क्रम में ओवैसी ने भी अलग से चुनाव आयोग पहुंच कर अपना पक्ष रखा। विपक्ष का कहना है कि यह प्रक्रिया जल्दबाजी में शुरू की गई है और यह गरीब, ग्रामीण, और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को मतदाता सूची से हटाने की साजिश है।

कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि बिहार में लगभग 7.75 करोड़ मतदाता हैं। इतनी बड़ी संख्या की जांच कुछ महीनों में करना असंभव है। यह प्रक्रिया उन लोगों को निशाना बनाएगी जिनके पास जन्म प्रमाणपत्र या माता-पिता की नागरिकता जैसे दस्तावेज नहीं हैं। राजद नेता तेजस्वी यादव ने इसे और तीखे शब्दों में लोकतंत्र पर हमला बताया। उन्होंने सवाल उठाया, 2003 में पूरे देश में पुनरीक्षण हुआ था, लेकिन अब सिर्फ बिहार में क्यों? यह प्रक्रिया मानसून के दौरान, जब बाढ़ आम है, शुरू की गई है। क्या यह गरीब और वंचित वोटरों को बाहर करने की साजिश नहीं है?

विपक्षी नेताओं का तर्क है कि सत्यापन के लिए मांगे गए 11 दस्तावेज, जैसे पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र, और माता-पिता की नागरिकता प्रमाण, अधिकांश गरीब और ग्रामीण लोगों के पास उपलब्ध नहीं हैं। तेजस्वी ने दावा किया कि बिहार के 8 करोड़ से अधिक मतदाताओं में से 60 फीसदी को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी, जो विशेष रूप से दलित, पिछड़े, और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए चुनौतीपूर्ण है। एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने इसे अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक बताते हुए कहा कि यह प्रक्रिया पहले ही हो चुकी है और इसे दोहराने का कोई औचित्य नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक्स पर पोस्ट करते हुए इसे बीजेपी-आरएसएस की साजिश बताया, जिसका मकसद दलितों और वंचितों के वोटिंग अधिकार छीनना है। योगेंद्र यादव ने अनुमान लगाया कि इस प्रक्रिया से 4.76 करोड़ मतदाताओं का नाम हट सकता है, जिसे उन्होंने वोट उड़ाने का खेल करार दिया।

उधर बीजेपी और एनडीए ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिए जरूरी है। बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद ने तंज कसते हुए कहा, जिनके राज में बूथ कैप्चरिंग और हिंसा आम थी, उन्हें अब निष्पक्षता से परेशानी हो रही है। हालांकि, एनडीए के कुछ सहयोगी, जैसे जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), ने दबी जुबान में इस प्रक्रिया की समय सीमा पर चिंता जताई है। बहरहाल, कुल मिलाकर लगता है कि बिहार में मतदाता सूची का पुनरीक्षण एक नियमित प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन इसकी समय सीमा और दस्तावेजों की मांग ने इसे विवादास्पद बना दिया है। विपक्ष इसे गरीब और वंचित समुदायों के खिलाफ एक साजिश के रूप में देख रहा है, जबकि चुनाव आयोग इसे लोकतंत्र को मजबूत करने का कदम बता रहा है। यह विवाद बिहार की सियासत को और गर्माएगा, और इसका असर 2025 के विधानसभा चुनावों पर पड़ना तय है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस मामले में निर्णायक हो सकता है, लेकिन तब तक यह मुद्दा बिहार की जनता और नेताओं के बीच बहस का केंद्र बना रहेगा। विपक्ष की आपत्तियों ने अब कानूनी रूप ले लिया है। सपा सांसद कपिल सिब्बल, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा, राजद के मनोज झा, और कई गैर-सरकारी संगठनों ने इस प्रक्रिया को रद्द करने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने कोर्ट से तत्काल सुनवाई की मांग की, यह तर्क देते हुए कि इतने कम समय में यह प्रक्रिया संभव नहीं है और यह संविधान का उल्लंघन करती है। इस मामले की सुनवाई 10 जुलाई 2025 को होनी है।

चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया पूरी तरह संवैधानिक और नियमित है, जो पिछले 75 वर्षों से समय-समय पर की जाती रही है। आयोग का कहना है कि इसका उद्देश्य अवैध प्रवासियों, जैसे नेपाल, बांग्लादेश, और म्यांमार से आए लोगों, को मतदाता सूची से हटाना और केवल भारतीय नागरिकों को वोटिंग का अधिकार सुनिश्चित करना है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने 4 जुलाई को स्पष्ट किया कि यह प्रक्रिया तय समय पर और पूरी पारदर्शिता के साथ पूरी की जाएगी। इसमें चुनाव कर्मियों और राजनीतिक दलों की सक्रिय भागीदारी है। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि 2003 की मतदाता सूची को आधार मानकर 4.96 करोड़ मतदाताओं को दस्तावेज जमा करने की आवश्यकता नहीं होगी। साथ ही, एक गलतफहमी को दूर करते हुए आयोग ने कहा कि एक अखबार के विज्ञापन में केवल फॉर्म भरने की बात भ्रामक थी। मसौदा सूची में उन मतदाताओं के नाम शामिल होंगे जिनके गणना फॉर्म प्राप्त हो चुके हैं। आयोग ने यह भी बताया कि यह प्रक्रिया बिहार के अलावा असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु, और पश्चिम बंगाल में भी लागू होगी। इसका मकसद मतदाता सूची को अपडेट करना, मृतकों के नाम हटाना, और 18 वर्ष से अधिक उम्र के नए मतदाताओं को जोड़ना है।