बचपन को अख़बारों में जगह क्यों नहीं?

Why is there no space for childhood in newspapers?

रविवार की सुबह बेटे प्रज्ञान को गोद में लेकर अख़बार से कोई रोचक बाल-कहानी पढ़ाने की इच्छा अधूरी रह गई। किसी भी प्रमुख अख़बार में बच्चों के लिए एक भी रचना नहीं थी। समाज बच्चों को पढ़ने के लिए कहता है, पर उन्हें पढ़ने को क्या देता है? यह संपादकीय हमारे समाचार पत्रों की बच्चों के प्रति उपेक्षा पर गहरी चोट करता है और मांग करता है कि समाचार पत्रों में बच्चों के लिए नियमित स्थान आरक्षित हो — ताकि बचपन शब्दों से जुड़े, संवेदना से सींचा जाए और विचारों से पल्लवित हो।

प्रियंका सौरभ

रविवार की सुबह थी। मन हुआ कि बेटा प्रज्ञान गोद में आए और हम दोनों मिलकर अख़बार में से कोई रोचक कहानी पढ़ें — ताकि आधुनिक स्क्रीन युग में भी शब्दों की मिठास उसे मिल सके। परंतु खेदजनक आश्चर्य हुआ कि प्रतिष्ठित अख़बारों में बच्चों के लिए एक भी कहानी, चित्रकथा, या बाल संवाद उपलब्ध नहीं था। इस पीड़ा से उपजा यह सवाल एक सामूहिक चिंतन की मांग करता है —“जब हम अपने अख़बारों में बच्चों के लिए छापते ही कुछ नहीं, तो हम उनसे पढ़ने की उम्मीद किस अधिकार से करते हैं?”

बाल मन: एक रिक्त पन्ना

हमारी शिक्षा व्यवस्था, अभिभावक वर्ग और समाज तीनों ही अक्सर एक स्वर में कहते हैं कि आज के बच्चे किताबें नहीं पढ़ते। वे मोबाइल, इंस्टाग्राम और गेमिंग की दुनिया में खो चुके हैं। पर कोई ये क्यों नहीं पूछता कि उन्हें क्या पढ़ने के लिए दे रहे हैं हम? अख़बार, जो एक समय में हर घर की सुबह का हिस्सा हुआ करता था — अब बच्चों के लिए पूरी तरह से एक “वयस्कों का युद्धक्षेत्र” बन चुका है, राजनीति के झगड़े, नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, बलात्कार, हत्याएं, भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फिल्में और योगा टिप्स। कहाँ हैं राजा की बात, हाथी की सवारी, विज्ञान की कल्पना, चाँद की कविता, और जीवन मूल्य सिखाती छोटी कहानियाँ?

जब बच्चे दिखते ही नहीं

आज के समाचार पत्रों में बच्चे सिर्फ दो तरह से “दिखते” हैं —
जब कोई बच्चा यौन हिंसा या हत्या का शिकार होता है। या जब कोई बच्चा बोर्ड परीक्षा में 99.9% अंक लाकर मीडिया का ताज बन जाता है। क्या इतने सीमित संदर्भों में बच्चे होने का अनुभव समझा जा सकता है? अख़बारों ने बच्चों को समाज से अलग करके एक ऐसी चुप्पी में डाल दिया है, जहां उनका न तो रचनात्मक स्वर सुनाई देता है, न जिज्ञासु आंखें दिखाई देती हैं।

संपादकीय दूरदर्शिता की अनुपस्थिति

किसी भी अखबार का मुख्य उद्देश्य होता है –”समाज को जागरूक बनाना और उसकी सोच को दिशा देना।” तो फिर एक पूरे समाज की नींव यानी बच्चों के लिए कोई पन्ना क्यों नहीं? क्या आज का संपादक इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह भी याद नहीं कि उसकी जिम्मेदारी अगली पीढ़ी तक संस्कार और विचार की मशाल पहुँचाने की भी है? एक समय में “बाल-जगत”, “बाल प्रभा”, “बाल गोष्ठी”, “बाल मेल” जैसे खंडों से अख़बार बच्चों को भी संवाद में शामिल करते थे। आज वे या तो बंद हो गए या ऑनलाइन लिंक की बेगानी भीड़ में खो गए।

विज्ञापन और बाजारवाद का हमला

बच्चे आज अख़बार के लिए ‘ग्राहक’ नहीं हैं। वे शैंपू या रेफ्रिजरेटर नहीं खरीदते। इसी कारण “बाजार” की भाषा में उनकी कोई ‘विज्ञापन वैल्यू’ नहीं है। और जहाँ विज्ञापन की भाषा नीति तय करने लगे, वहाँ बचपन बेमानी हो जाता है।
प्रत्येक अख़बार का लगभग 40% भाग विज्ञापनों से भरा रहता है — रियल एस्टेट, कपड़े, कोचिंग सेंटर, हॉस्पिटल, ब्रांडेड घड़ियाँ… कहीं भी यह नहीं दिखता कि कोई अख़बार यह पूछ रहा हो। “बच्चों को हम क्या पढ़ा रहे हैं?”

जब बाल साहित्य का विलोपन होता है

बाल साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है —यह बच्चों को सोचने, सवाल करने, कल्पना करने और समाज से जुड़ने की प्राथमिक पाठशाला है। एक कहानी जिसमें एक पेड़ अपने फल देता है, एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक बच्चा अपने दोस्त के साथ पक्षियों को पानी पिलाता है —ये सब बच्चों को मानवता का बीज देते हैं। जब ये कहानियाँ हट जाती हैं, तो वहां केवल ड्रामा, सनसनी, और डाटा बचता है। और यही संवेदनहीनता आने वाली पीढ़ी में पनपती है।

क्या पढ़ाई और ज्ञान सिर्फ स्कूल का काम है?

हमारे समाज ने बच्चों के ज्ञान का ठेका सिर्फ स्कूलों को दे रखा है। अख़बार, जो कभी ‘घर की पाठशाला’ हुआ करता था, अब स्वयं को ‘वयस्कों की गॉसिप’ तक सीमित कर चुका है। क्या बच्चे समाचारों के योग्य नहीं? क्या विज्ञान, पर्यावरण, नैतिकता, और समाज की बातें उन्हें नहीं बताई जानी चाहिए?
यदि हम चाहते हैं कि बच्चे “समझदार नागरिक” बनें तो
हमें उन्हें शुरुआत से ही संवाद और सवालों से जोड़ना होगा — और अख़बार इसकी सशक्त जगह हो सकती है।

क्या किया जा सकता है?

साप्ताहिक ‘बाल संस्करण’ पुनः शुरू किए जाएं – हर रविवार या महीने में दो बार बच्चों के लिए विशेष खंड हो। बाल संवाद और चित्रकथाएँ हों – जिनमें नैतिक मूल्य, विज्ञान की जिज्ञासा और समाज का परिचय हो। बच्चों की रचनाएँ छापी जाएं – कविताएँ, चित्र, सवाल, विचार। बाल पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाए – विद्यालय स्तर पर बच्चों से लिखवाया जाए, जो छपे भी। प्रेरणादायक ‘बच्चों के नायक’ दिखाए जाएं – जो स्क्रीन के बाहर भी उपलब्ध हों।

बेटा प्रज्ञान उस दिन सुबह मुझसे बोला —
“माँ, क्या आपके अख़बार में बच्चों के लिए कुछ नहीं होता?”
मैं चुप रह गई। ये चुप्पी सिर्फ एक माँ की नहीं, एक पूरे समाज की चुप्पी है। और जब अख़बार समाज का दर्पण होते हैं, तो इस दर्पण में प्रज्ञान जैसे लाखों बच्चों की मासूम जिज्ञासा को जगह मिलनी ही चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि कल के भारत में पाठक, लेखक और संवेदनशील नागरिक जन्म लें —
तो आज के समाचार पत्रों में प्रज्ञान के लिए भी एक पन्ना आरक्षित करना होगा।