गुरु जीवनरूपी अंधेरों को मिटाकर उजाला करते हैं

Guru removes the darkness of life and brings light

ललित गर्ग

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वाेच्च है-ईश्वर से भी ऊंचा। गुरु न केवल ज्ञानदाता हैं, वे जीवन के वास्तुकार, जीवन-निर्माता एवं संस्कारदाता हैं। वे शिष्य को केवल अक्षरों का ज्ञान नहीं देते, बल्कि आत्मा के स्वरूप से उसका परिचय कराते हुए उसका जीवन-निर्माण करते हैं। वे न केवल अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं, बल्कि जीवन की दुविधाओं, असमंजसों और भ्रमों को दूर कर उसे सार्थक दिशा देते हैं। ऐसे ही गुरु-तत्व के पूजन का पर्व है-गुरु पूर्णिमा, जो हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को श्रद्धा और समर्पण से मनाया जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिये इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते है। वेदव्यास ने चारों वेदों का संकलन किया, पुराणों की रचना की और महाभारत जैसा अद्वितीय महाकाव्य रचा। वे न केवल ज्ञान के स्रोत थे, बल्कि आत्मबोध के महामार्गदर्शक भी थे। गुरु पूर्णिमा सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पव र्है, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से न केवल व्यक्ति को बल्कि समाज, देश और दुनिया को भवसागर से पार उतारने की राह प्रदान की है। भारतीय लोकचेतना में सत्य की ओर गति कराने एवं जीवन को जीवंतता देने वाले गुरु को ईश्वर माना गया है। इसीलिये पर्वों, त्यौहारों और उत्सवों की श्रृंखला में गुरु पूर्णिमा का सर्वोपरि महत्व माना गया है। यह अध्यात्म-जगत विशेषतः सनातन धर्म का महत्वपूर्ण उत्सव है, इसे अध्यात्म जगत की बड़ी घटना के रूप में जाना जाता है।

गुरु एक नाम नहीं, एक स्थिति है। वे केवल शरीरधारी व्यक्ति नहीं, एक दिव्य ऊर्जा हैं, जो हमारे भीतर शक्ति, ज्ञान एवं संस्कार को जागृत करती है। कबीरदास ने कहा-“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय?” यह केवल काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक चेतना की वह आधारशिला है, जिस पर जीवन की संपूर्ण संरचना टिकी है। गुरु वही है जो ‘मैं’ को गलाकर ‘तू’ में मिला दे, जो अहंकार को मिटाकर आत्मा को उभार दे। यह केवल पूजा का दिन नहीं, आत्म-प्रेरणा का दिवस है; गुरु के प्रति कृतज्ञता, मार्गदर्शन और जीवन को नया मोड़ देने वाले उस आधारस्तंभ को नमन करने का दिन है। गुरु पूर्णिमा का पर्व विशेष रूप से सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं भारतीय ज्ञान परंपरा में अत्यंत पूज्यनीय है। भारत की मनीषा में गुरु केवल धार्मिक या शैक्षणिक संस्था के सदस्य नहीं हैं, बल्कि वे एक आध्यात्मिक बीज हैं, जो शिष्य के अंतर्मन में चेतना का वृक्ष बनकर प्रस्फुटित होते हैं।

गुरु-शिष्य का संबंध केवल औपचारिक नहीं, आत्मिक होता है। शिष्य का अर्थ ही है-‘जो शीघ्र ग्रहण करे, जो समर्पित हो।’ और गुरु का अर्थ है-‘गु’ यानी अंधकार और ‘रु’ यानी प्रकाश-जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। प्राचीन गुरुकुल परंपरा में यह संबंध अत्यंत पवित्र और जीवनपर्यंत टिकने वाला होता था। शिष्य केवल विद्या ही नहीं, गुरु के जीवन से भी सीखता था। चरित्र, संयम, श्रद्धा, विनम्रता और सेवा जैसे गुण गुरु के व्यक्तित्व से शिष्य के भीतर स्वतः उतरते थे। महावीर ने गौतम गणधर को, बुद्ध ने आनंद को, नानक ने अंगद को, श्रीकृष्ण ने संदीपनि को और फिर स्वयं अर्जुन को शिष्यत्व प्रदान किया। श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र से जीवन की मर्यादा सीखी, वहीं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्धभूमि में कर्मयोग का उपदेश देकर जगतगुरु का दर्जा पाया। ये उदाहरण दिखाते हैं कि सच्चा गुरु केवल ज्ञान नहीं देता-वह जीवन का दृष्टिकोण बदल देता है।

आज भौतिकतावादी युग में गुरु के प्रति आस्था में गिरावट आई है। शिक्षा संस्थान सूचना का प्रसार कर रहे हैं, लेकिन जीवन मूल्यों का संचार नहीं कर पा रहे। विद्यार्थियों को डिग्रियां तो मिल रही हैं, पर दिशा नहीं। ज्ञान है, पर विवेक नहीं; विज्ञान है, पर आत्मा नहीं; बुद्धि है, पर करुणा नहीं। इसका मूल कारण है-जीवन में सच्चे गुरु का अभाव। आज ट्यूटर हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं-पर गुरु नदारद हैं। ऐसे में गुरु पूर्णिमा हमें याद दिलाती है कि केवल पढ़ना-पढ़ाना पर्याप्त नहीं है, जीवन जीने की कला सिखाने वाला गुरु चाहिए। गुरु जीवन की धार को नया मोड़ देते हैं। जैसे नदी जब किसी घाट से गुजरती है, तो उसका स्वरूप बदलता है, वैसे ही गुरु का सान्निध्य शिष्य के भीतर नई चेतना, नई दृष्टि और नया जीवन का संचार करता है। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।

गुरु केवल उपदेश नहीं देता, वह जीता है। उसकी हर बात, हर चुप्पी, हर दृष्टि, हर मौन एक शिक्षा होती है। उसका जीवन एक ग्रंथ होता है, जिसकी हर बात शिष्य के जीवन में अमिट छाप छोड़ती है। शास्त्रों में कहा गया है-“गुरु बिना गति नहीं, गुरु बिना ज्ञान नहीं, गुरु बिना मोक्ष नहीं।” गुरु ही शिष्य के अंतर्मन में आत्मा की चिंगारी प्रज्वलित करता है। आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती है-सच्चे गुरु की पहचान। आज ऐसे कई कथित गुरु हैं जो अपने अनुयायियों की संख्या, चमत्कारों और धन-संपत्ति के आधार पर महान कहलाते हैं। वे गुरु नहीं, व्यापारी हैं-जो मोक्ष, आत्मज्ञान, कुण्डलिनी जागरण, रोग निवारण और चमत्कारों के नाम पर लोगों की भावनाओं का दोहन कर रहे हैं। इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसे अज्ञानी, धन-लोलुप और पाखंडी लोगों ने गुरु परंपरा की छवि को धूमिल किया है। सही कहा गया है-“पानी पीजै छान के, गुरु कीजै जान के।”

सच्चा गुरु न विज्ञापन करता है, न दिखावा। वह न चमत्कार दिखाता है, न भीड़ जुटाता है। वह मौन से शिक्षा देता है, दृष्टि से दिशा देता है और आशीर्वाद से शांति देता है। उसका सान्निध्य ही साधना है, उसकी चरण-वंदना ही ऊर्जा है। गुरु पूर्णिमा हमें स्मरण कराती है कि चातुर्मास काल में जब ईश्वर निद्रा में होते हैं तब गुरु ही हमें मार्ग दिखाते हैं। वे हमारे दुःखों का हरण करते हैं, मोह का निवारण करते हैं और जीवन को नई दृष्टि देते हैं। गुरु का सच्चा सम्मान केवल उनकी मूर्ति पर फूल चढ़ाना नहीं है, बल्कि उनके बताए मार्ग पर चलना है। उनके उपदेशों को आत्मसात करना, अपने जीवन में विनम्रता, सेवा, संयम और समर्पण जैसे गुणों को विकसित करना ही सच्ची गुरु-पूजा है। तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में लिखा है-“जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाई।” जिनके पास कोई गुरु न हो, वे हनुमानजी को गुरु बना सकते हैं-क्योंकि गुरुत्व एक चेतना है, एक भावना है, एक समर्पण है। पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है परन्तु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में राह दिखाने वाले दीपक होते हैं ईश्वरतुल्य गुरु, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा?

गुरु वह दीप है, जो हमारे अंतर्मन के अंधकार को मिटाता है। वह वह द्वीप है, जो संसाररूपी समुद्र में दिशा देता है। वह वह वृक्ष है, जो तपते जीवन में छांव देता है। और वह ऐसी अग्नि है, जो चेतना को प्रज्वलित करती है। हमें इस गुरु पूर्णिमा पर यह संकल्प लेना चाहिए कि हम सच्चे गुरु की तलाश करें-जो भीतर की यात्रा कराए, जो अहंकार को तजने में सहायता करे, जो आत्मा की पहचान कराए। गुरु जीवन का वह मोड़ है, जहां से जीवन बदलता है। वह नया घाट है, जहां से आत्मा का जल बहता है। अंततः, गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, आत्म-बोध और समर्पण का पर्व है। यही इसकी सार्थकता है कि हम गुरु को केवल पूजें नहीं, अपने भीतर जगाएं। जब तक जीवन में सच्चा गुरु नहीं आता, तब तक आत्मा मौन रहती है। जैसे ही गुरु आता है, आत्मा गूंज उठती है। गुरु जीवन को नया घाट देते हैं, नयी झंकार देते हैं।