
प्रदीप शर्मा
पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में, कुछ दिन पहले, एक मंच सजा था, जिससे वक्फ संशोधन कानून को कूड़ेदान में फेंकने और ‘शरिया लाओ’ की हुंकारें भरी गई थीं। एक विशाल जनसभा को भी संबोधित किया गया था। वह वैचारिक कम और राजनीतिक अधिक आयोजन था। अब उसी मैदान में भगवान परशुराम के जन्म-महोत्सव की आड़ में एक और मंच सजा है-‘सनातन महाकुंभ।’ इस पूरे कार्यक्रम के आयोजक पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे थे। यदि इस मंच से सनातन धर्म पर कुछ उपदेश दिए जाते, विचार रखे जाते और सनातनियों के लिए संदेश दिए जाते, तो आयोजन को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक माना जा सकता था। जगद्गुरु रामभद्राचार्य मुख्य अध्यक्ष थे और बाबा बागेश्वर धीरेंद्र शास्त्री मुख्य आकर्षण थे। हालांकि बाबा ने स्पष्ट कहा कि वह राजनीति के लिए नहीं, रामनीति के लिए आए हैं। जब भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ बनेगा, तो बिहार उसका पहला हिंदू-राज्य होगा। बाबा ने आह्वान किया कि बिहार के पागलो! यह गांठ बांध लो कि हमें ‘गजवा-ए-हिंद’ के स्थान पर ‘भगवा-ए-हिंद’ देश बनाना है। हम सब हिंदू एक हैं। हिंदुओं को जातियों में मत बांटो।’’
बाबा ने फिर यह साफ किया कि जिस-जिस पार्टी में हिंदू हैं, हम उन सभी पार्टियों के साथ हैं। बिहार में विधानसभा चुनाव के बाद बाबा पदयात्रा करेंगे। क्या बाबा बागेश्वर के कथनों और आह्वानों से स्पष्ट नहीं होता कि वह किस पार्टी के प्रचार के लिए आए थे? क्या धर्मगुरु का काम धर्म के नाम पर वोट मांगना ही रह गया है? जगद्गुरु रामभद्राचार्य बाबा बागेश्वर से बहुत आगे निकल गए। उन्होंने लालू यादव का नाम लिए बिना ही ‘चारा घोटाले’ का उल्लेख किया। उन्हें भारत सरकार ने इसी वर्ष ‘पद्मविभूषण’ से अलंकृत किया है। उन्हें ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार भी मिला है। कथावाचकों को भी ‘पद्म’ सम्मान मिलने लगा है, किसी ने यह टिप्पणी की होगी, तो जगद्गुरु ने पलटजवाब दिया-‘कमोबेश हम पशुओं का चारा नहीं खाते।’ रामभद्राचार्य ने भविष्यवाणी-सी की है कि इस बार राष्ट्र-विरोधियों, हिंदू-विरोधियों और राम-विरोधियों को सत्ता नहीं दी जाएगी। सत्ता उन्हें ही मिलेगी, जो हिंदुओं के लिए संघर्ष करेंगे, क्रांति करेंगे। रामभद्राचार्य ने लगभग हुंकार के अंदाज में यह भी कहा-‘जो सनातन को बांटना चाहेगा, वह स्वयं बंट जाएगा।
जो काटना चाहेगा, वह स्वयं कट जाएगा। जो सनातन को मिटाना चाहेगा, वह स्वयं मिट जाएगा। हम राष्ट्र-विरोधियों का दमन करेंगे।’’ क्या ये शब्द किसी साधु-संत के प्रतीत होते हैं? क्या ये शब्द उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान सरीखे समानार्थी नहीं हैं? जगद्गुरु विचारोत्तेजक लगे, आक्रोशित लगे। यह मुद्रा जगद्गुरु की नहीं हो सकती। भगवान परशुराम पर कुछ शब्द भी समर्पित नहीं किए गए। रामभद्राचार्य और धीरेंद्र शास्त्री के वक्तव्य राजनीतिक बिंदुओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहे। क्या धर्माचार्यों की भूमिका भी बिल्कुल राजनीतिक हो गई है? दोनों साधु-संत भाजपा के प्रमुख प्रचारक की भूमिका में प्रतीत हुए। लिहाजा स्पष्ट लगता है कि चुनाव हिंदू-मुसलमान ध्रुवीकरण के आधार पर लड़े जाएंगे।
आयोजन में अनेक साधु-संत उपस्थित थे। राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खां और बिहार के उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा भी मंच पर मौजूद थे। किसी भी वक्ता ने बिहार की गरीबी, अनपढ़ता, पिछड़ेपन, पलायन आदि बुनियादी समस्याओं पर एक भी शब्द नहीं बोला। आयोजन को ‘महाकुंभ’ नाम देकर इस शब्द का अपमान किया गया। बिहार में जो ‘जंगलराज’ 20 साल पहले था, कमोबेश वह आज भी मौजूद है। इसी साल अभी तक 116 कत्ल किए जा चुके हैं। बलात्कार, डकैती, फिरौती आदि अपराधों को तो भूल ही जाएं। तब मुख्यमंत्री लालू यादव या राबड़ी देवी होते थे, बीते 20 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। सरेआम हत्याएं आज क्यों हो रही हैं? साधु-संतों के सरोकार सामाजिक भी होते हैं। यदि उन्होंने ऐसे मुद्दे भी छुए होते, तो विचार व्यापक लगते। जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने ‘जातीय गणना’ का भी विरोध किया।