
गीता दवे
जैसे-जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 17 सितंबर 2025 को अपना 75वां जन्मदिन मनाने जा रहे हैं, संघ परिवार के भीतर एक राजनीतिक तूफान आकार ले रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक प्रचारक से 21वीं सदी के सबसे प्रभावशाली और करिश्माई भारतीय नेता बनने तक का मोदी का सफर देश की लोकतांत्रिक और वैचारिक संरचना को ही बदल चुका है। लेकिन अब वही संगठन, जिसने उनके राजनीतिक बीज बोए थे, उसी विराट व्यक्तित्व से टकराव की स्थिति में दिख रहा है, जिसे उसने ही गढ़ा था।
यह क्षण भारत की राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। वह नेता जिसने बार-बार पारंपरिक राजनीतिक अपेक्षाओं को तोड़ा, चुनावी रिकार्ड बनाए, पार्टी के भीतर और विपक्ष में मौजूद नेताओं को हाशिये पर डाला — अब पहली बार किसी चुनावी चुनौती या विरोधी दल से नहीं, बल्कि अपने ही वैचारिक परिवार से दबाव में है।
एक अजेय शक्ति का उदय
2014 से 2024 तक, नरेंद्र मोदी की भारतीय राजनीति पर पकड़ लगभग पूर्ण थी। राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, विकास और आक्रामक विदेश नीति के मुद्दों पर सवार होकर, मोदी ने आम चुनावों को एक तरह से राष्ट्रपति-शैली की लड़ाइयों में बदल दिया, जिसमें केंद्र बिंदु सिर्फ उनकी शख्सियत थी। उनका नेतृत्व केंद्रीकृत, प्रभावशाली और प्रतीकात्मक रहा, जिसने भाजपा की पारंपरिक ढांचे को बदलकर इसे हाई-कमांड आधारित संगठन में तब्दील कर दिया।
मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने पार्टी के भीतर सभी समानांतर शक्तियों को खत्म कर दिया। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली जैसे दिग्गज या तो रिटायर हो गए, या हाशिए पर चले गए या फिर काल कवलित हो गए। नई पीढ़ी या तो बहुत कनिष्ठ थी, या बहुत वफादार, या फिर बदलाव की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। विपक्ष में भी कोई मोदी की लोकप्रियता को टक्कर नहीं दे पाया। कांग्रेस वंशवाद में जकड़ी रही और क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय विकल्प नहीं बन पाए।
मोदी और आरएसएस: एक चुपचाप बढ़ती दूरी
मोदी और आरएसएस के बीच संबंध हमेशा जटिल रहे हैं। यद्यपि मोदी की विचारधारा आरएसएस के मूल में रची-बसी है, लेकिन उनके शासन के तरीके ने उन्हें नागपुर के वैचारिक नेतृत्व से धीरे-धीरे दूर कर दिया। संघ हमेशा सामूहिक नेतृत्व और “व्यक्तित्व नहीं, संस्था” के सिद्धांत को मानता रहा है। इसके विपरीत मोदी का नेतृत्व शैली — व्यक्तिवादी, छवि-आधारित और पूर्ण निष्ठा पर आधारित — संघ की मूल विचारधारा से टकराती रही।
2014 में मोदी ने कथित तौर पर संघ नेतृत्व से कहा था, “मुझे 10 साल दो, मैं पूरे देश में हिंदुत्व फैला दूंगा।” हद तक, उन्होंने यह कर दिखाया — राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, सीएए, और शासन व संस्कृति में हिंदू पहचान की मुखर अभिव्यक्ति — ये सभी संघ की दशकों पुरानी आकांक्षाएं थीं। लेकिन इसकी कीमत संघ की पारंपरिक वैचारिक और संगठनात्मक भूमिका के ह्रास के रूप में चुकानी पड़ी।
मोदी का आंतरिक दायरा अब नौकरशाहों, तकनीकी विशेषज्ञों और भरोसेमंद राजनेताओं से भरा है। संघ के कार्यकर्ता अब नीति निर्धारण से लगभग बाहर हैं और केवल चुनावी मैदान में जुटाने की भूमिका में सीमित हो गए हैं।
मोहन भागवत का ’75 की उम्र’ वाला संकेत
ऐसे समय में, संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान कि 75 की उम्र के बाद नेताओं को “जगह देनी चाहिए”, राजनीतिक हलकों में भूचाल ले आया है। यह बयान मोदी के 75वां साल पूरा करने से कुछ ही हफ्तों पहले आया है और इसे केवल नैतिक उपदेश मानकर टाला नहीं जा सकता। इसे एक परोक्ष इशारा — या चेतावनी — के रूप में देखा जा रहा है।
यह बयान ऐसे समय आया जब संघ और भाजपा के भीतर यह चर्चा तेज है कि मोदी सत्ता को संस्थाओं, पार्टी और यहां तक कि संघ के भीतर अपने विश्वासपात्रों को स्थापित कर स्थायी बनाने में लगे हैं। कुछ नौकरशाहों को प्रमोट करने, फैसले केंद्रीकृत करने और एक खास मंत्रिमंडल गुट को सशक्त करने की हालिया घटनाएं नागपुर में असहजता पैदा कर रही हैं।
यूट्यूबर्स और डिजिटल मीडिया विश्लेषक भी इसमें कूद पड़े हैं। कई लोग दावा कर रहे हैं कि मोदी को संघ की परंपरा के आगे झुकना पड़ सकता है या इस्तीफा देना पड़ सकता है। भले ही यह भविष्यवाणी कितनी सच हो, लेकिन राजनीतिक विमर्श का रुख बदल चुका है।
क्या मोदी झुकेंगे संघ के दबाव में?
यह करोड़ों डॉलर का सवाल है। जिस व्यक्ति ने ज़मीन से उठकर सर्वोच्च पद तक खुद को पहुँचाया, उसके लिए सत्ता छोड़ना सहज नहीं हो सकता। अन्य नेताओं के विपरीत, मोदी का नेतृत्व सामूहिकता पर नहीं बल्कि नियंत्रण और संकल्प पर आधारित रहा है।
उन्होंने कभी उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया, न ही भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र को प्रोत्साहन दिया। उनकी सत्ता पर पकड़ अभी भी बहुत मजबूत है और भाजपा की लोकप्रियता अब भी उनके चेहरे से जुड़ी हुई है। जिन राज्यों में मोदी की उपस्थिति कम रही, वहाँ पार्टी को नुकसान झेलना पड़ा।
लेकिन मोदी भी रणनीतिक मास्टर हैं। यदि संघ सच में दबाव बनाए, तो मोदी खुद को फिर से “रीपोज़िशन” कर सकते हैं — शायद अमित शाह जैसे किसी करीबी को आगे लाकर, या “टीम मोदी 3.0” तैयार करके, जिसमें वे पृष्ठभूमि से नियंत्रण बनाए रखें। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि वे “मार्गदर्शक” की भूमिका में आ सकते हैं — लेकिन कार्यकारी शक्तियों के साथ, जिससे संघ की उम्र सीमा की अवधारणा ही बदल जाए।
भाजपा की दुविधा: मोदी बिना जनादेश?
अगर नरेंद्र मोदी को इस्तीफा देने या पीछे हटने के लिए मजबूर किया जाता है — या वे स्वेच्छा से हटते हैं — तो भाजपा अनिश्चित भविष्य में प्रवेश करेगी। आज पार्टी में कोई भी नेता ऐसा नहीं है जो पूरे देश में वैसा वोट ला सके जैसा मोदी ला सकते हैं। योगी आदित्यनाथ, अमित शाह या फिर धर्मेंद्र प्रधान और पीयूष गोयल जैसे नाम तकनीकी या क्षेत्रीय प्रभाव रखते हैं, लेकिन मोदी जैसी जन-स्वीकृति नहीं।
2029 का लोकसभा चुनाव भी दूर नहीं है। यदि मोदी अभी हटते हैं, और विपक्ष — एक मजबूत कांग्रेस या INDIA 2.0 गठबंधन के रूप में — खुद को व्यवस्थित कर लेता है, तो भाजपा मुश्किल में पड़ सकती है।
इसके अलावा, मोदी का ब्रांड भाजपा की चुनावी रणनीति में इतना गहरे पैठ गया है कि अचानक बदलाव पार्टी के वोटबैंक को हिला सकता है — खासकर युवाओं और शहरी हिंदुत्व समर्थकों के बीच, जो मोदी को राष्ट्रीय गौरव और हिंदू पुनर्जागरण का प्रतीक मानते हैं।
संघ की बड़ी चुनौती: सुधार या नियंत्रण?
आरएसएस के सामने भी एक जटिल स्थिति है। एक ओर, वह अपने गैर-राजनीतिक, मार्गदर्शक की भूमिका को बचाए रखना चाहता है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि कोई भी व्यक्ति संगठन या विचारधारा से बड़ा न बने। दूसरी ओर, वह यह भी समझता है कि उसी नेता की कमजोर होती पकड़ उस मिशन को भी कमजोर कर सकती है जिसे उसने सौ वर्षों में बनाया।
भागवत का बयान शायद एक रणनीतिक दबाव का हिस्सा हो — मोदी को उनकी जड़ों की याद दिलाने के लिए। या फिर यह एक परिपक्व संक्रमण की भूमिका तैयार करने का संकेत हो, जिसमें संघ फिर से भाजपा के नेतृत्व निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाए।
मोदी के संभावित अगले कदम
- विरोध और पुनः प्रभुत्व: एक बड़े जन-संपर्क अभियान, कैबिनेट फेरबदल और 2029 की अनिवार्यता को उजागर कर संघ पर दबाव बनाना।
- विलंब और संवाद: पर्दे के पीछे संघ से बातचीत कर, वैचारिक निरंतरता का आश्वासन देकर समय खरीदना।
- ध्यान भटकाना और विमर्श बदलना: कोई नया राष्ट्रवादी नैरेटिव शुरू करना — जैसे वैश्विक शांति पहल, बड़ा आर्थिक सुधार, या संवैधानिक संशोधन।
- उत्तराधिकारी की घोषणा और परदे के पीछे नियंत्रण: किसी भरोसेमंद चेहरे को सामने लाकर खुद को मार्गदर्शक की भूमिका में स्थापित करना।
आगे का रास्ता: मोदी@75 और उसके बाद जैसे ही नरेंद्र मोदी 75 की उम्र पार करते हैं, संघ का संकेत स्पष्ट है — कोई भी व्यक्ति अपरिहार्य नहीं। लेकिन मोदी का जवाब तय करेगा कि क्या वे एक पीढ़ी में एक बार मिलने वाले नेता के रूप में याद किए जाएंगे, या राजनीतिक रिटायरमेंट और शक्ति हस्तांतरण के नियमों को फिर से लिख देंगे।
आगामी महीनों में “नागपुर की नीति” और “मोदी की नीति” के बीच संघर्ष शायद खुले रूप में न हो, लेकिन बयानों, भाषणों और संगठनात्मक फेरबदल से संकेत जरूर मिलेंगे। मोदी सम्मानपूर्वक विदाई लेंगे, टकराव करेंगे या फिर नई भूमिका गढ़ेंगे — भारतीय राजनीति एक ऐतिहासिक मोड़ पर है।
संभावना यही है कि नरेंद्र मोदी चुपचाप नहीं हटेंगे। वे खुद को फिर से गढ़ सकते हैं, विमर्श को मोड़ सकते हैं, या प्रभाव का नया मॉडल बना सकते हैं — लेकिन एक शक्तिहीन मोदी की कल्पना उस व्यक्ति से मेल नहीं खाती जिसने सत्ता को ही अपनी पहचान बना लिया।
मोदी@75 अंत नहीं है। यह मोदी 3.0 की शुरुआत हो सकती है — एक ऐसी अवस्था जो पद से बंधी नहीं, लेकिन शायद अब तक से भी अधिक प्रभावशाली हो।