तकनीक की छांव में लाचार मानवता!

Helpless humanity under the shadow of technology!

सोनम लववंशी

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली में एक नई क्रांति का आह्वान किया है। तकनीक, डेटा और मशीन लर्निंग के मेल से ऐसा प्रतीत होता है मानो अब डॉक्टर नहीं, एल्गोरिद्म मरीज की ज़िंदगी तय करेंगे। लेकिन बीते कुछ वर्षों में जिस तरह की घटनाएं और रिपोर्ट्स सामने आई हैं, उन्होंने इस चमचमाती उम्मीद को संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। सवाल यह उठता है कि क्या एआई इलाज का सशक्त माध्यम बनेगा, या फिर यह इंसान की नियति तय करने वाला निर्जीव और उत्तरदायी रहित यंत्र साबित होगा? विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि आने वाले वर्षों में दुनिया के 40 से अधिक देशों में चिकित्सकों की भारी कमी हो सकती है। भारत जैसे देश में, जहां पहले से ही हर 1,000 मरीजों पर केवल एक डॉक्टर है, वहां एआई को स्वास्थ्य सेवाओं में एक आशाजनक सहायक माना जा रहा है। देश के कई अस्पतालों और स्टार्टअप्स ने मेडिकल इमेजिंग, रिपोर्ट विश्लेषण और रोग पूर्वानुमान जैसे क्षेत्रों में एआई तकनीक पर तेजी से निवेश किया है। लेकिन जिस तेजी से एआई को अपनाया जा रहा है, उतनी ही तेजी से उस पर प्रश्नचिह्न भी लग रहे हैं।

एआई आधारित चिकित्सा सलाह की विश्वसनीयता अब केवल तकनीकी विमर्श नहीं, बल्कि गहरे नैतिक और मानवीय सवालों का विषय बन चुकी है। 2023 में बेल्जियम में एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली, जब एक एआई चैटबॉट ‘एलाइजा’ ने जलवायु संकट रोकने के नाम पर आत्मबलिदान को उचित ठहरा दिया। यह व्यक्ति उस चैटबॉट से भावनात्मक रूप से जुड़ गया था, और बातचीत के अंतिम क्षणों में एआई ने उसकी आत्महत्या का समर्थन किया। इसी तरह अमेरिका में ‘जामा ऑन्कोलॉजी’ में प्रकाशित एक अध्ययन ने खुलासा किया कि एक कैंसर-संबंधी एआई चैटबॉट ने 34 प्रतिशत मामलों में ग़लत, भ्रामक या चिकित्सा दृष्टि से अनुपयुक्त सलाह दी। एआई की प्रतिक्रियाएं प्रश्न पूछने के तरीके पर निर्भर थीं, जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मरीज एक ही बीमारी के लिए अलग-अलग सलाह पा सकते हैं, एक तकनीकी गलती जो गंभीर परिणाम ला सकती है। इस सबके बीच डीपफेक तकनीक ने स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक संकटपूर्ण बना दिया है। गुजरात और महाराष्ट्र में वायरल हुए एक फर्जी वीडियो में एक वरिष्ठ ऑन्कोलॉजिस्ट को एक आयुर्वेदिक दवा का प्रचार करते दिखाया गया, जिससे प्रभावित होकर सैकड़ों मरीजों ने कीमोथेरेपी बीच में ही छोड़ दी। एम्स दिल्ली के एक डॉक्टर के नकली वीडियो ने कोविड के इलाज के लिए घरेलू नुस्खों को बढ़ावा दिया, जिससे व्यापक भ्रम फैला। ये घटनाएं इस बात की चेतावनी हैं कि यदि तकनीक की नैतिक सीमाएं तय न की जाएं, तो उसका दुरुपयोग एक मानवीय त्रासदी का कारण बन सकता है।

चिकित्सा केवल परीक्षण और निदान का विज्ञान नहीं है, बल्कि यह अनुभव, सहानुभूति और संवेदना से जुड़ी एक गहन मानवीय प्रक्रिया है। जब एक एल्गोरिद्म मरीज की रिपोर्ट के आधार पर यह तय करता है कि कौन-सा इलाज उचित है, तो वह उस मानवीय दृष्टिकोण को पूरी तरह दरकिनार कर देता है जो चिकित्सा सेवा की आत्मा है। एक मशीन न तो किसी के चेहरे की चिंता पढ़ सकती है, न ही दर्द की मौन पुकार समझ सकती है। फिर कैसे माना जाए कि वही मशीन डॉक्टर का विकल्प बन सकती है? मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म जिस डेटा से प्रशिक्षित होते हैं, वही उनके निर्णयों की दिशा तय करता है। भारत जैसे विविध सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में यदि एआई का प्रशिक्षण डेटा पश्चिमी मानकों पर आधारित होगा, तो उसके निर्णय अनेक बार त्रुटिपूर्ण होंगे। यह पहले ही देखा गया है कि एआई ग्रामीण क्षेत्रों में या गर्भवती महिलाओं की देखभाल जैसे मामलों में सही परिणाम नहीं दे पा रहा है। इससे भी बड़ी चिंता है डेटा की निजता और सुरक्षा। अगर मरीज की मेडिकल जानकारी क्लाउड पर स्टोर होकर किसी विदेशी कंपनी के मॉडल को प्रशिक्षित करने में उपयोग हो रही है, तो यह केवल निजी जानकारी की चोरी नहीं है, एक व्यक्ति की पहचान का अवैध व्यापार भी है।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी व्यय अब भी न्यूनतम है। 2014-15 में सकल घरेलू उत्पाद में सरकारी स्वास्थ्य व्यय मात्र 1.13 प्रतिशत था, जो 2021-22 तक बढ़कर भी केवल 1.84 प्रतिशत हुआ। यह वैश्विक औसत से काफी पीछे है। ऐसे में यदि सरकारें एआई को ‘कम लागत वाले समाधान’ के रूप में देखकर डॉक्टरों की जगह उसे बैठाने लगें, तो यह न केवल चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता को प्रभावित करेगा, बल्कि बेरोजगारी और सामाजिक असमानता को भी बढ़ावा देगा। निजी अस्पताल और बीमा कंपनियां अगर मुनाफे के लिए एआई को अंतिम निर्णयकर्ता बना दें, तो चिकित्सा सुविधा एक मौलिक अधिकार नहीं, यह एक पूंजी-प्रेरित निर्णय बन जाएगी। ऐसे में यह आवश्यक है कि एआई चिकित्सा में ‘सहायक’ बने, ‘निर्णायक’ नहीं। विश्व की प्रमुख मेडिकल संस्थाओं ने पहले ही इस पर स्पष्ट चेतावनी दी है। भारत में यह रेखा दिन-ब-दिन धुंधली होती जा रही है। इसलिए अब समय आ गया है कि नीति-निर्माता, चिकित्सक, तकनीक विशेषज्ञ और शोधकर्ता मिलकर इस प्रश्न पर गंभीर विमर्श करें कि क्या एआई इंसान की मदद करेगा, या उसे प्रतिस्थापित करेगा? तकनीक का विकास आवश्यक है, लेकिन यदि वह मानवता और नैतिकता को पीछे छोड़ दे, तो यह विकास नहीं, विनाश का रास्ता बन जाएगा। भारत को इस दोराहे पर खड़े होकर तात्कालिक लाभ की नहीं, दीर्घकालिक विवेक की राह चुननी होगी। जहां तकनीक, इंसान की सहयोगी हो, उसका विकल्प नहीं।