
ललित गर्ग
29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए बम विस्फोट की न्यायिक परिणति ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि कैसे सत्ता, वोटबैंक और वैचारिक पूर्वाग्रहों ने भारतीय न्याय और निष्पक्षता की नींव को झकझोर दिया। मुंबई की एनआईए कोर्ट द्वारा सातों आरोपियों-प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित सहित को सबूतों के अभाव में बरी कर देना न केवल कानूनी दृष्टि से एक महत्वपूर्ण फैसला है, बल्कि यह उस “भगवा आतंकवाद” की मिथ्या कथा पर भी करारा प्रहार है जिसे वर्षों तक कांग्रेस ने राजनीतिक मंचों और मीडिया के जरिए प्रचारित किया गया। यह कांग्रेस की फर्जी कहानी का अंत एवं सत्य की जीत का एक अमूल्य आलेख है।
अदालत का यह वक्तव्य कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, कोई भी धर्म हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता’, भारतीय संस्कृति और न्यायशास्त्र की मूल आत्मा को पुनः जीवित करता है। यह वही भारत है जहां ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की गूंज होती रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश 2008 के बाद हिंदू धर्म, हिंदुत्व और भगवा पर ऐसा कलंक मढ़ा गया मानो वे आतंकवाद के स्रोत हों। मालेगांव विस्फोट मामले में एनआइए की विशेष अदालत उस नतीजे पर पहुंची, जिस पर बांबे हाई कोर्ट ट्रेन विस्फोट कांड की सुनवाई करते हुए पहुंचा था। ऐसा कई आतंकी घटनाओं के मामलों में हो चुका है। इससे यही पता चलता है कि कभी जांच एजेंसियां, कभी अदालतें और कभी दोनों अपना काम सही तरह और समय पर नहीं करतीं। जांच और फिर अदालती कार्यवाही में देरी तथा ढिलाई एक बड़ा रोग है। आतंक के मामलों की जांच में यह भी कोई दबी-छिपी बात नहीं कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ, मुस्लिम तुष्टिकरण एवं वोट बैंक बाधा बनते हैं। आतंकी घटनाओं को राजनीतिक रंग दिया जाता है। मालेगांव विस्फोट कांड में प्रज्ञा ठाकुर, सुधाकर द्विवेदी आदि की गिरफ्तारी के आधार पर हिंदू और भगवा आतंक का जुमला उछाला गया। इसका मकसद कथित भगवा आतंक को जिहादी आतंक जैसा बताना था। यह हिंदू ही नहीं, देश विरोधी साजिश थी। इसका लाभ पाकिस्तान को मिला, क्योंकि कांग्रेस के कई नेताओं ने समझौता एक्सप्रेस कांड पर भी एजेंसियों के सहारे भगवा आतंक की फर्जी कहानी गढ़ी।
भगवा आतंकवाद शब्द का पहली बार प्रयोग उस समय के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने किया, जिनका उद्देश्य स्पष्ट था, वोटबैंक की तुष्टिकरण नीति, मुस्लिम समाज को डराकर एकतरफा धू्रवीकरण और हिंदू संगठन व सनातन मूल्यों को कलंकित करना। इसका परिणाम हुआ कि वर्षों तक निर्दाेष लोग जेल में सड़ते रहे। साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर को एक संन्यासी जीवन से घसीट कर हिरासत में लिया गया, प्रताड़ित किया गया और उनके आध्यात्मिक जीवन को ध्वस्त कर दिया गया। सवाल यह है कि जब सबूत नहीं थे, तब उन्हें जेल में रखने की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्यों जांच एजेंसियों ने बेसिर-पैर की कहानियों को सच मान लिया? क्यों मीडिया ने बिना परीक्षण के ‘हिंदू आतंकवाद’ की ब्रेकिंग न्यूज़ चला दी? यह वही मानसिकता थी जो आतंकवाद को धर्म से जोड़कर एक खास समुदाय को डराने और एक संप्रदाय को बदनाम करने में लगी थी। यह कांग्रेस का एक षडयंत्र एवं साजिश थी जो अब पर्दापाश हो गयी है। कांग्रेस शासित प्रांत में सत्ता का जमकर दुरुपयोग किया गया।
मुंबई से लगभग 200 किलोमीटर दूर मालेगांव शहर में एक मस्जिद के पास एक मोटरसाइकिल पर बंधे विस्फोटक उपकरण में विस्फोट होने से छह लोगों की मौत हो गई थी। धमाके में 100 से अधिक घायल हुए थे। न्यायाधीश ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि मामले को संदेह से परे साबित करने के लिए कोई विश्वसनीय और ठोस सबूत नहीं है। मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधान लागू नहीं होते। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह साबित नहीं हुआ है कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल प्रज्ञा ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी, जैसा कि अभियोजन पक्ष ने दावा किया है। यह भी साबित नहीं हुआ है कि विस्फोट कथित तौर पर बाइक पर लगाए गए बम से हुआ था। कोर्ट ने कहा, श्रीकांत प्रसाद पुरोहित के आवास में विस्फोटकों के भंडारण या संयोजन का कोई सबूत नहीं मिला। अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि विस्फोट से ठीक पहले वह साध्वी प्रज्ञा के पास थी।
इससे पहले सुबह सातों आरोपी दक्षिण मुंबई स्थित सत्र न्यायालय पहुंचे, जहां कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी। आरोपी जमानत पर बाहर थे। मामले के आरोपियों में प्रज्ञा ठाकुर, पुरोहित, मेजर (सेवानिवृत्त) रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी और समीर कुलकर्णी शामिल थे। उन सभी पर यूएपीए और भारतीय दंड संहिता तथा शस्त्र अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत आतंकवादी कृत्य करने का आरोप लगाया गया था। इस पूरे प्रकरण में न्यायपालिका की देरी और जांच एजेंसियों की लापरवाही स्वयं अदालत द्वारा उजागर की गई। अदालत ने कहा कि ना तो घटनास्थल का स्केच बनाया गया, ना फिंगरप्रिंट लिए गए, ना बम के सटीक स्रोत की पुष्टि हुई और ना ही आरोपियों के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण था।
अभियोजन पक्ष ने जिस मोटरसाइकिल को बम के लिए इस्तेमाल होने की बात कही थी, वह भी प्रज्ञा ठाकुर से जुड़ी नहीं पाई गई। यह सब कुछ बताता है कि पूरा केस पूर्वग्रहों, दुर्भावना और राजनीतिक साजिश से प्रेरित था। यदि न्याय के नाम पर निर्दाेष लोगों को प्रताड़ित किया जाए, तो वह केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि समस्त समाज और संस्कृति को दंडित करने जैसा होता है। प्रश्न यह उठता है-तो क्या अब तक इन आरोपियों को गलत तरीके से आतंकवादी घोषित कर वर्षों तक सलाखों के पीछे रखा गया?
हिंदू धर्म और आतंकवाद-ये दो शब्द आपस में मेल नहीं खाते। सनातन संस्कृति का मूल आधार ही शांति, सहिष्णुता और करुणा है। विश्व में यदि कोई धर्म ऐसा है जिसने ‘युद्ध नहीं, यज्ञ’, ‘हिंसा नहीं, अहिंसा’ का मार्ग दिखाया है, तो वह हिंदू धर्म है।
राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, विवेकानंद और गांधी-इन सभी की परंपरा में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं। ‘भगवा आतंकवाद’ एक गढ़ा गया मिथक था, जो ना केवल हिंदू समाज को कलंकित करता है, बल्कि भारत की आत्मा को भी चोट पहुंचाता है। भगवा वस्त्र तो त्याग, तपस्या और आत्मशुद्धि का प्रतीक है। उसे बम और खून से जोड़ना स्वयं भारतीयता के खिलाफ साजिश है।
इस फैसले ने जहां एक ओर निर्दाेषों को न्याय दिया, वहीं दूसरी ओर यह देश के जनमानस को आत्ममंथन का अवसर भी देता है, क्या हम इतनी आसानी से किसी को भी आतंकवादी घोषित कर देंगे? क्या हम किसी राजनीतिक विचारधारा के विरोध के कारण पूरे धर्म को कटघरे में खड़ा कर देंगे? क्या धर्म का दुरुपयोग कर वोटबैंक की राजनीति करते रहेंगे? साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की प्रतिक्रिया-“आज भगवा की जीत हुई है, हिंदुत्व की जीत हुई है” इस बयान में उनके दर्द एवं यथार्थ को समझने की आवश्यकता है। यह केवल एक साध्वी की व्यक्तिगत मुक्ति की खुशी नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों की आवाज़ है जिनके लिए भगवा आस्था और अस्मिता का प्रतीक है।
वर्षों तक मीडिया ने इस मामले को सनसनीखेज बनाकर ‘हिंदू आतंकवाद’ को ग्लैमराइज किया। प्राइम टाइम पर भगवा को हिंसा से जोड़ना, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को ‘संदिग्ध आतंकी’ की तरह चित्रित करना और बिना न्यायिक पुष्टि के चरित्रहनन करना, पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ था। वहीं, तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी ने भी इस मामले में एकतरफा विचारधारा के चलते भगवा को ‘खतरा’ घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे लोगों से अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या आप सार्वजनिक रूप से माफी मांगेंगे?
मालेगांव विस्फोट मामले में आया फैसला केवल न्यायिक विजय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। यह भारत की न्याय प्रणाली, समाज की सहिष्णुता और धर्म की शुद्धता का प्रमाण है। आज समय है, जब राष्ट्र को यह समझना चाहिए कि धर्म को आतंक से जोड़ना स्वयं एक मानसिक आतंक है। सत्य को स्वीकारने का साहस कीजिए, क्योंकि न्याय तभी पूर्ण होता है जब उसमें निष्पक्षता, संवेदना और सत्य का साथ हो। यह मामला दर्शाता है कि सत्य परेशान हो सकता है, लेकिन पस्त या पराजित नहीं। सत्यमेय जयते- यह सत्य की जीत है, सनातन की जीत है। भगवा वस्त्रों पर लगे झूठे दाग अब धुल चुके हैं, अब समय है संस्कृति के गौरव को फिर से स्थापित करने का।