
अजेश कुमार
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए विस्फोट में 6 लोगों की जान गई और 100 से अधिक घायल हुए। आरंभ में यह घटना एक सामान्य आतंकवादी हमले के तौर पर देखी गई, लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, यह मामला एक राजनीतिक विस्फोट में बदल गया। हिंदुत्व से जुड़े कुछ लोगों को आरोपी बनाया गया और पहली बार ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय राजनीति और मीडिया के विमर्श में केंद्र में आ गए, लेकिन 25 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए अदालत ने सबूतों के अभाव में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया, जिसमें प्रमुख नाम थे, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित का। अदालत ने साफ तौर पर कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपों को संदेह से परे सिद्ध नहीं कर सका। यह फैसला केवल आरोपियों की व्यक्तिगत राहत नहीं है, बल्कि यह उस पूरे ‘भगवा आतंकवाद’ के नैरेटिव पर करारा प्रहार है, जिसे 2008 के बाद से भारत की राजनीति और मीडिया ने काफी हद तक गढ़ा और पोषित किया।
‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर 2010 में चर्चा में आया, जब तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने इस शब्द का प्रयोग किया। इसका निहितार्थ यह था कि कुछ हिंदू संगठनों से जुड़े तत्व भी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं, हालांकि किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में यह विचार पूरी तरह से अस्वीकार्य नहीं होना चाहिए कि कोई भी नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या विचारधारा से जुड़ा हो, कानून के दायरे में आए। परंतु भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में ‘भगवा’ का संबंध सीधे ‘सनातन धर्म’, ‘संत परंपरा’, और ‘हिंदुत्व’ से जुड़ा होने के कारण इस शब्द के प्रयोग से न केवल राजनीतिक बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी हुआ।
इस शब्द का प्रभाव इतना व्यापक रहा कि भारतीय राजनीति में लंबे समय तक कांग्रेस पर ‘हिंदू विरोधी पार्टी’ होने का आरोप लगता रहा। 2014 के बाद भाजपा ने इस नैरेटिव के खिलाफ अपना प्रबल प्रतिरोध दर्ज कराया और अब 2025 के कोर्ट फैसले को उन्होंने ‘इस नैरेटिव का खंडन’ घोषित कर, इसे ‘हिंदुत्व की जीत’ बताया। मालेगांव केस की जांच में महाराष्ट्र एटीएस से लेकर एनआईए तक शामिल रही, लेकिन न्यायालय की टिप्पणियों से साफ है कि इस पूरे मामले की जांच तथ्यों की बजाय पूर्व निर्धारित नैरेटिव के आधार पर की गई। विशेष जज ए.के. लाहोटी ने अपने फैसले में कहा कि मोटरसाइकिल का संबंध प्रज्ञा ठाकुर से जोड़ने के कोई ठोस प्रमाण नहीं थे, विस्फोट के तकनीकी साक्ष्य कमजोर थे और आरोपियों पर लगाए गए यूएपीए जैसे गंभीर प्रावधानों को भी साबित नहीं किया जा सका।
यह निष्कर्ष हमारे जांच तंत्र के लिए गंभीर आत्मचिंतन का विषय है। क्या हमारी जांच एजेंसियां राजनीतिक दबावों से मुक्त होकर, वैज्ञानिक और निष्पक्ष तरीके से काम कर सकती हैं? क्या किसी व्यक्ति को केवल उसकी विचारधारा, वेशभूषा या धार्मिक पहचान के आधार पर आतंकवादी घोषित कर देना न्यायोचित है? लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने बार-बार दावा किया कि उन्हें झूठे केस में फंसाया गया, उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और पेशेवर जीवन नष्ट कर दिए गए। साध्वी ने अदालत के बाहर कहा, “मैं सन्यासी जीवन जीती थी, मुझे आतंकवादी बना दिया गया। मेरा जीवन बर्बाद हो गया।”
यह सिर्फ एक व्यक्तिगत पीड़ा नहीं है, बल्कि यह उस प्रणाली की असफलता को दर्शाता है, जो किसी निर्दोष को 17 वर्षों तक आतंकवादी साबित करने में जुटी रही, लेकिन असफल रही। ऐसे में, यह ज़रूरी हो जाता है कि हर संवेदनशील मामले में गिरफ्तारी से पहले पर्याप्त प्रमाण जुटाए जाएं, और न्यायिक प्रक्रिया में जल्दबाजी या पूर्वाग्रह को कोई स्थान न मिले। कोर्ट के फैसले के बाद जहां भाजपा ने कांग्रेस पर तीखा हमला किया, वहीं कांग्रेस अब तक इस फैसले पर कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दे सकी है। यह चुप्पी उसकी नैतिक जवाबदेही पर सवाल उठाती है। अगर, वह वास्तव में धर्मनिरपेक्षता और न्याय में विश्वास करती है, तो उसे यह स्पष्ट करना चाहिए कि 2008-2013 के बीच उसकी जांच एजेंसियों ने किस आधार पर इन आरोपियों को आतंकवादी करार दिया।
2010 में चिदंबरम द्वारा ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग अब उनके राजनीतिक भविष्य और पार्टी की साख पर बोझ बन चुका है। पार्टी यदि आत्ममंथन नहीं करती, तो यह उसकी साख को और कमजोर करेगा, खासकर उस समय में जब भाजपा इस मुद्दे को चुनावी प्रचार में भुनाने के लिए तैयार बैठी है। कानूनी दृष्टि से देखें तो अदालत ने साफ किया है कि संदेह का लाभ आरोपियों को दिया गया है, क्योंकि कोई ठोस और विश्वसनीय सबूत नहीं मिला, लेकिन इस फैसले से यह सवाल भी उठता है कि मालेगांव के पीड़ितों को अब तक न्याय क्यों नहीं मिला? अगर इन आरोपियों को बरी कर दिया गया, तो असली दोषी कौन हैं? क्या अब इस मामले को फिर से नए सिरे से खोलकर जांच होनी चाहिए?
यह प्रश्न जनता के मन में केवल एक अपराध के लिए उत्तर की तलाश नहीं है, बल्कि यह उस व्यवस्था पर विश्वास बनाए रखने की मांग है, जो न्याय का अंतिम स्रोत है। 17 वर्षों तक न्याय का इंतजार करना अपने आप में न्याय की विफलता है। भाजपा इस फैसले को लेकर जिस प्रकार आक्रामक हुई है, उससे यह स्पष्ट है कि वह इस मुद्दे को आगामी चुनावों में भुनाना चाहती है। भाजपा प्रवक्ताओं, केंद्रीय मंत्रियों और साध्वी प्रज्ञा स्वयं इस बात को ‘हिंदुत्व की वैचारिक विजय’ बता रही हैं। यह उनके लिए एक ‘नैरेटिव युद्ध’ की जीत है, जिसमें वह कांग्रेस को एक ‘हिंदू विरोधी’ पार्टी साबित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
यह रणनीति न केवल धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती है, बल्कि भारत की बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए भी चुनौती बन सकती है। यदि, धर्म आधारित विमर्श राजनीतिक हथियार बनने लगें, तो लोकतंत्र अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है। मालेगांव मामले में, जो बातें उभरकर सामने आई हैं, वे हमारी न्यायिक प्रणाली के लिए आत्मनिरीक्षण का विषय हैं। वर्षों तक आरोपियों को हिरासत में रखना, बिना पर्याप्त सबूतों के मुकदमा चलाना, और अंत में बरी कर देना, ये सब उस प्रणालीगत दोष को उजागर करते हैं जिससे हमें अविलंब निपटना होगा। यह समय है, जब भारत को एक स्वायत्त, तकनीकी रूप से सुसज्जित और नैतिक रूप से दृढ़ जांच प्रणाली विकसित करनी चाहिए, जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप का कोई स्थान न हो। इसके साथ ही, आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों की जांच में समयबद्धता, पारदर्शिता और नागरिक अधिकारों की रक्षा प्राथमिकता होनी चाहिए।
‘भगवा आतंकवाद’ का जो नैरेटिव 2008 से गढ़ा गया था, वह आज न्यायपालिका द्वारा ध्वस्त हो चुका है, लेकिन इससे अधिक ज़रूरी है उन पीड़ितों के लिए न्याय की पुनर्खोज, जिन्हें अब भी यह समझ नहीं आ रहा कि अगर ये दोषी नहीं थे, तो फिर कौन था? यह मामला हमें बताता है कि न्याय केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं है, यह समाज के प्रति राज्य की जवाबदेही है। आज का दिन केवल प्रज्ञा सिंह या पुरोहित की व्यक्तिगत जीत नहीं है, यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक प्रश्नचिह्न भी है कि क्या हम कभी अपने संस्थानों को इतना सक्षम और निष्पक्ष बना पाएंगे कि न्याय वास्तव में समय पर और सभी के लिए सुलभ हो सके?