लव जिहाद: विवाह, विश्वास और वंचना का द्वंद्व!

Love Jihad: The Conflict of Marriage, Trust and Deprivation!

सोनम लववंशी

भारत में प्रेम हमेशा एक सुंदर अनुभूति रही है, जहाँ राधा-कृष्ण से लेकर मीरा के भजन तक, हर प्रेम आध्यात्मिकता से जुड़ा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नई बहस ने समाज को सोचने पर मजबूर किया है कि, क्या प्रेम के नाम पर कोई छल भी हो सकता है? क्या जबरन या धोखे से धर्म परिवर्तन समाज की अखंडता पर असर डालता है? ‘लव जिहाद’ शब्द इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे लेकर आज देश में संवेदनशील और गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। सबसे पहले यह स्पष्ट कर लेना ज़रूरी है कि ‘लव जिहाद’ कोई वैधानिक या संवैधानिक परिभाषा नहीं है। भारत के संविधान में विवाह, प्रेम, और धर्म की स्वतंत्रता नागरिक अधिकारों के रूप में स्वीकृत है। फिर भी, कुछ राज्य सरकारों ने धर्मांतरण से संबंधित कानून बनाए हैं, जिनमें यह प्रावधान है कि विवाह के उद्देश्य से यदि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाकर या धोखे से किसी अन्य धर्म की लड़की से विवाह करता है और धर्म परिवर्तन करवाता है, तो उसे अपराध माना जाएगा। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में इस आशय के कानून अस्तित्व में हैं।

उत्तर प्रदेश में 2020 में लागू उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश के अनुसार, जबरन, धोखे से या लालच देकर धर्मांतरण एक दंडनीय अपराध है। इस कानून के तहत अब तक सैकड़ों मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से कुछ में धर्म छिपाकर विवाह करने और धर्मांतरण के प्रयास के प्रमाण मिले हैं, जबकि कुछ मामलों में झूठी शिकायतें भी पाई गई हैं। इसलिए इस मुद्दे पर व्यापक दृष्टिकोण जरूरी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्टों में ‘लव जिहाद’ के नाम से कोई अलग श्रेणी नहीं है, पर ‘जबरन धर्मांतरण’ से जुड़े अपराधों की सूचना राज्य सरकारों से ली जाती है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा में बताया कि वर्ष 2020 से 2023 के बीच ऐसे लगभग 430 से अधिक मामले दर्ज हुए। इनमें से बहुत से मामलों में विवेचना के बाद आरोपी बरी भी हुए, जिससे यह समझ आता है कि हर मामला एक जैसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता। इन्हीं सबके बीच हाल के दिनों में ‘छांगूर बाबा’ प्रकरण ने इस भयावह सच्चाई को सामने ला दिया है। मीडिया रिपोर्टस के अनुसार, उसने 4000 से अधिक हिंदू लड़कियों को ‘इस्लाम अपनाने’ के लिए प्रेरित किया। ऐसे में कैसे एक व्यक्ति इतनी बड़ी संख्या में युवतियों के जीवन को तबाह कर सकता है, यह इस अभियान की गहराई और विस्तार को दिखाता है। यह सिर्फ व्यक्तिगत अपराध नहीं, बल्कि संगठित सांप्रदायिक षड्यंत्र है, जो धर्मांतरण को ‘धार्मिक कर्तव्य’ मानता है।

इतना ही नहीं विभिन्न मामलों का विश्लेषण करने पर यह भी स्पष्ट होता है कि कुछ तत्व प्रेम का मुखौटा पहनकर लड़कियों को भावनात्मक रूप से फँसाते हैं, और फिर उनके धर्मांतरण का दबाव बनाते हैं। ये घटनाएं सामाजिक चिंता का विषय हैं, खासकर जब पीड़ित परिवारों को न्याय प्राप्त करने में कठिनाई होती है, या जब लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार की पुष्टि होती है। हाल के वर्षों में मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और केरल से भी ऐसे कुछ मामले सामने आए, जिनकी जाँच स्थानीय पुलिस और न्यायालयों ने की। इस प्रकार की घटनाओं से केवल पीड़िता ही नहीं, उसका पूरा परिवार सामाजिक, मानसिक और आर्थिक संकट में पड़ता है। विशेष रूप से छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में यह तनाव और भी गहरा होता है, जहाँ परिवार अपनी बेटियों को लेकर अतिरिक्त चिंता में रहते हैं। यही कारण है कि सामाजिक संगठन और स्थानीय समुदाय जागरूकता अभियान चला रहे हैं, ताकि लड़कियाँ भावनात्मक और डिजिटल शोषण से सतर्क रह सकें। लेकिन इस बहस में एक गंभीर संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। धर्मनिरपेक्ष भारत में यदि दो वयस्क आपसी सहमति से विवाह करते हैं, तो उसे केवल धर्म के आधार पर अपराध नहीं कहा जा सकता। इसलिए यह ज़रूरी है कि किसी भी मामले में बिना प्रमाण के धार्मिक पहचान को लक्ष्य बनाकर आरोप न लगाया जाए। समाज का संतुलन तभी सुरक्षित रह सकता है जब न्याय और सतर्कता, दोनों समान रूप से मौजूद हों।

इसके साथ-साथ, इस विषय का एक और पहलू भी उतना ही ज़रूरी है कि लड़कियों को आत्मनिर्भर, शिक्षित और डिजिटल रूप से जागरूक बनाना। सोशल मीडिया और मैसेजिंग एप्स के ज़रिए फैल रही भावनात्मक चालों को समझना और उनका सामना करना आज के युग की सबसे बड़ी सुरक्षा है। परिवारों को भी बेटियों से खुलकर संवाद करने की आवश्यकता है, ताकि वे निर्णय लेते समय भावनात्मक दबाव में न आएं। राज्य स्तर पर कानून लागू करना एक पहल है, पर सामाजिक स्तर पर जागरूकता और पारिवारिक शिक्षा ही दीर्घकालिक समाधान है। स्कूलों, महाविद्यालयों और मीडिया को इस विषय पर ईमानदार और तथ्य आधारित विमर्श को बढ़ावा देना चाहिए, न अतिशयोक्ति हो, न इनकार क्योंकि हर समाज की नींव उसकी बेटियाँ होती हैं। यदि उनके जीवन में छल और भय व्याप्त हो, तो वह समाज दीर्घकाल तक स्वस्थ नहीं रह सकता। इसलिए यह जरूरी है कि प्रेम, विवाह और धर्म जैसे विषयों पर गंभीरता से सोचा जाए, न्याय, सहमति और सम्मान के आधार पर।