
संजय सक्सेना
14 अगस्त 1946 की रात थी। आसमान में चाँद लहूलुहान सा लटका था, मानो वह भी उस धरती की त्रासदी का गवाह बनने से कतरा रहा हो। गाँव की गलियाँ, जो कभी हँसी-खुशी और बच्चों की किलकारियों से गूँजती थीं, अब चीखों, आग की लपटों और तलवारों की झनझनाहट से थर्रा रही थीं। भारत का बँटवारा अभी औपचारिक रूप से नहीं हुआ था, लेकिन नफ़रत की आग पहले ही भड़क चुकी थी। धर्म के नाम पर इंसानियत कुचली जा रही थी, और सामूहिक दर्द ने हर दिल को छलनी कर दिया था। यह कहानी उस रात की है, जब गाँव का हर घर, हर गली, और हर आत्मा उस हिंसा की चपेट में आ गई, जिसने न सिर्फ़ शरीर, बल्कि आत्माओं को भी लहूलुहान कर दिया।
कमलपुर गाँव, जो कभी हिंदू, मुस्लिम और सिखों की साझा संस्कृति का प्रतीक था, अब एक युद्धक्षेत्र बन चुका था। गाँव के बीचों-बीच बनी मस्जिद और मंदिर, जो कभी एकता के प्रतीक थे, अब नफ़रत की दीवारों में कैद हो गए थे। दिन ढलते ही लोग अपने घरों में छिप गए, लेकिन छिपने से क्या होता? हिंसा का ज्वार किसी को नहीं बख्शता। पुरुषों को तलवारों और भालों से काटा जा रहा था, औरतों की इज़्ज़त लुट रही थी, और बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़कर सड़कों पर भटक रहे थे। वह रात सिर्फ़ एक तारीख नहीं थी; वह एक ऐसी त्रासदी थी, जिसने लाखों ज़िंदगियों को हमेशा के लिए बदल दिया।
गाँव के एक कोने में रहता था हरबंस सिंह का परिवार। हरबंस, उनकी पत्नी सावित्री, और उनकी सोलह साल की बेटी गुरप्रीत। हरबंस एक सिख किसान थे, जिन्होंने अपनी मेहनत से छोटा-सा घर बनाया था। उनका पड़ोसी, मजीद, एक मुस्लिम दर्जी, उनका सबसे अच्छा दोस्त था। दोनों परिवार वर्षों से एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ थे। मजीद की पत्नी बीबी फातिमा और सावित्री एक-दूसरे को बहन मानती थीं। लेकिन उस रात, दोस्ती और पड़ोस की ये सारी कहानियाँ नफ़रत की भेंट चढ़ गईं।
शाम होते ही गाँव में अफवाहें फैलने लगीं कि बाहर से आए कुछ उपद्रवी गाँव पर हमला करने वाले हैं। हरबंस ने अपनी पत्नी और बेटी को घर के पीछे बने गोदाम में छिपा दिया। “कोई आवाज़ नहीं करना,” उन्होंने गुरप्रीत के काँपते कंधों को थपथपाते हुए कहा। सावित्री ने अपनी बेटी को सीने से लगाया, लेकिन उसका दिल डर से धड़क रहा था। बाहर, गाँव जल रहा था। मकानों से धुआँ उठ रहा था, और औरतों की चीखें रात के सन्नाटे को चीर रही थीं।
उसी रात, मजीद के घर पर भी हमला हुआ। भीड़ ने दरवाज़ा तोड़ दिया और मजीद को बाहर घसीट लिया। उसकी पत्नी फातिमा चीखती रही, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। मजीद ने अपनी जान की भीख माँगी, लेकिन नफ़रत की आँखें अंधी हो चुकी थीं। उसे तलवारों से काट दिया गया, और फातिमा को भीड़ ने घसीटकर बाहर निकाल लिया। उसकी चीखें गाँव के हर कोने में गूँज रही थीं, लेकिन कोई बचाने नहीं आया। उस रात, औरतों की इज़्ज़त लुटना सिर्फ़ एक अपराध नहीं था; वह उस हिंसा का हथियार बन चुका था, जिसका मकसद था डर फैलाना और समुदायों को तोड़ना।
हरबंस ने अपनी बेटी और पत्नी को बचाने की हर संभव कोशिश की। लेकिन भीड़ ने उनके घर को भी नहीं बख्शा। गोदाम का दरवाज़ा तोड़ा गया, और सावित्री की चीखें रात में गूँज उठीं। गुरप्रीत, जो अभी तक अपनी माँ की गोद में छिपी थी, को भी नहीं बख्शा गया। हरबंस ने विरोध किया, लेकिन उसे तलवारों और लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला गया। उस रात, एक परिवार की पूरी दुनिया उजड़ गई। सावित्री और गुरप्रीत की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गई। जो बच गए, उनके लिए ज़िंदगी अब सिर्फ़ एक बोझ थी।
यह सिर्फ़ हरबंस या मजीद के परिवार की कहानी नहीं थी। गाँव का हर घर, हर गली, और हर आत्मा उस रात की त्रासदी का शिकार बनी। हिंदू, मुस्लिम, सिखकृसब एक-दूसरे से डरने लगे। पड़ोसी, जो कभी एक-दूसरे के लिए जान देने को तैयार थे, अब एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू थे। धर्म के नाम पर इंसानियत मर रही थी। औरतों को निशाना बनाया जा रहा था, क्योंकि उनकी इज़्ज़त लूटना सिर्फ़ एक अपराध नहीं था; वह एक समुदाय को अपमानित करने का तरीका था। बच्चे, जो अभी दुनिया को समझ भी नहीं पाए थे, सड़कों पर बेसहारा भटक रहे थे। कुछ अपनी माँ को ढूँढ रहे थे, कुछ अपने पिता को, और कुछ सिर्फ़ एक सुरक्षित कोने की तलाश में थे।
सावित्री, जो उस रात अपनी बेटी को नहीं बचा पाई, अब जीवित लाश बन चुकी थी। उसकी आँखों में वह दृश्य बार-बार उभरता था, जब उसकी बेटी की चीखें धीरे-धीरे थम गई थीं। वह खुद भी उस हिंसा का शिकार बनी थी, लेकिन उसका दर्द अपनी बेटी के दर्द के सामने कुछ भी नहीं था। गुरप्रीत अब बोलती नहीं थी। उसकी आँखें खाली थीं, जैसे उसकी आत्मा कहीं खो गई हो। सावित्री हर रात अपनी बेटी को सीने से लगाकर रोती थी, लेकिन कोई आँसू उस दर्द को कम नहीं कर सकता था। वह गाँव छोड़कर एक रिश्तेदार के गाँव चली गई, लेकिन वहाँ भी उसे चौन नहीं मिला। हर चेहरा उसे उस रात की याद दिलाता था।
कमलपुर गाँव अब सिर्फ़ एक भूतिया गाँव था। जो लोग बच गए, वे या तो गाँव छोड़कर चले गए, या फिर अपने ही घरों में कैद हो गए। मस्जिद और मंदिर अब खाली थे। न कोई अज़ान गूँजती थी, न कोई शंख। गाँव की गलियाँ, जो कभी बच्चों की किलकारियों से भरी रहती थीं, अब सिर्फ़ सन्नाटे का ठिकाना थीं। बँटवारे की यह आग सिर्फ़ कमलपुर तक सीमित नहीं थी। पूरे देश में ऐसी अनगिनत कहानियाँ थीं, जिनमें लोग अपने ही भाइयों, पड़ोसियों, और दोस्तों से डरने लगे थे।
14 अगस्त 1946 की वह रात सिर्फ़ एक तारीख नहीं थी। वह एक ऐसी त्रासदी थी, जिसने लाखों लोगों की ज़िंदगियों को हमेशा के लिए बदल दिया। यह सिर्फ़ ज़मीन का बँटवारा नहीं था; यह दिलों, रिश्तों, और इंसानियत का बँटवारा था। उस रात की चीखें, आग की लपटें, और खून की नदियाँ आज भी उन लोगों की यादों में ज़िंदा हैं, जो उस त्रासदी से गुज़रे। सावित्री और गुरप्रीत जैसी लाखों औरतों की ज़िंदगी उस रात हमेशा के लिए उजड़ गई। बच्चे अनाथ हो गए, परिवार बिखर गए, और एक देश, जो कभी एकता का प्रतीक था, नफ़रत की आग में जल उठा। यह कहानी सिर्फ़ एक गाँव की नहीं, बल्कि उस सामूहिक दर्द की है, जो बँटवारे ने हर उस इंसान के दिल में छोड़ा, जो उस त्रासदी का गवाह बना। यह उन औरतों की कहानी है, जिनकी इज़्ज़त लुट गई; उन बच्चों की, जो अपने माँ-बाप से बिछड़ गए; और उन पुरुषों की, जो अपनी आँखों के सामने अपनी दुनिया जलते देखकर भी कुछ न कर सके। यह कहानी उस इंसानियत की है, जो धर्म के नाम पर कुचल दी गई। और यह कहानी उस दर्द की है, जो आज भी उन लोगों के दिलों में ज़िंदा है, जो उस रात को भूल नहीं पाए।