
प्रमोद भार्गव
भारत में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस के मौके पर जारी एक विशेष पाठ में भारत के बंटवारे के लिए मोहम्मद अली जिन्ना, कांग्रेस और तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड माउंटबेटन को जिम्मेदार ठहराया है। पाठ में यह भी उल्लेख है कि विभाजन के बाद कश्मीर नई समस्या के रूप में पेश आया। भारत में यह समस्या पहले कभी मौजूद नहीं थी। इसने देश की विदेश नीति के लिए चुनौती बनाए रखी। नतीजतन कुछ देश पाकिस्तान को सहायता देते रहते हैं और कश्मीर मुद्दे के नाम पर भारत पर दबाव बनाते रहते हैं। वस्तुतः ‘भारत का विभाजन गलत विचारों के कारण हुआ। भारतीय मुसलमानों की पार्टी मुस्लिम लीग ने 1940 में लाहौर में एक सम्मेलन आयोजित किया। इसमें जिन्ना ने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाज से संबंधित हैं। अतएव एक साथ नहीं रह सकते।‘ एनसीईआरटी के विशेष पाठ में ‘विभाजन के अपराधी‘ शीर्षक वाले खंड में कहा है कि ‘अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत का बंटवारा हुआ। किंतु यह किसी एक व्यक्ति का काम नहीं था। इसके लिए तीन कारण जिम्मेदार थे, एक जिन्ना, जिन्होंने बंटवारे की मांग की। दूसरे कांग्रेस, जिसने बंटवारे को स्वीकार किया और तीसरे माउंटबेटन जिन्होंने इस पर अमल किया। माउंटबेटन एक बड़ी भूल के दोशी साबित हुए।‘
एनसीईआरटी ने उक्त दो पार्ट छापे हैं। इनमें छठी कक्षा से आठवीं के लिए और नौवीं कक्षा से बारहवीं के लिए एक-एक पाठ हैं। ये अंग्रेजी और हिंदी में पूरक पाठ हैं, नियमित पाठ्य पुस्तकों में नहीं हैं। इसलिए इनका प्रयोग परियोजनाओं, पोस्टरों और वाद-विवादों के माध्यम से किया जाना है। ये दोनों पाठ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2021 में दिए गए संदेश के साथ शुरू होते हैं, जिसमें विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की घोषणा की गई थी। साफ है, ये पाठ पूरे देश में वाद-विवाद का ऐसा हिस्सा बनें, जिससे लोग जान सकें कि वास्तव में विभाजन के अपराधी कौन हैं। केंद्र सरकार इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल होती दिख रही है। दरअसल स्वतंत्रता संघर्ष के बीच महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास से कहा था कि ‘अगर कांग्रेस बंटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश के ऊपर से गुजरना होगा। जब तक मैं जीता हूं, मैं कभी भी हिन्दुस्तान का बंटवारा स्वीकार नहीं करूंगा और जहां तक मेरा वश चलेगा कांग्रेस को भी स्वीकार नहीं करने दूंगा।‘ अलबत्ता ऐसा एकाएक क्या हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल को बंटवारे के समर्थन में खड़े होना पड़ गया। लार्ड माउंटबेटन से पहली मुलाकात में ही गांधी उनके वाग्जाल की गिरफ्त में ऐसे आए कि उनकी प्राण जाए, पर वचन न जाए, की वचनबद्धता भंग हो गई। कांग्रेस मुस्लिम अलगाववाद के आगे घुटने टेकती चली गई। नतीजतन भारत और पाकिस्तान स्वतंत्रता अधिनियम पर ब्रिटिश संसद में मोहर लगा दी गई। ब्रितानी हुकूमत में औपनिवेशिक दासता झेल रहे अखंड भारत को विभाजित कर दो स्वतंत्र देश बनाकर पृथक-पृथक सत्ता का हस्तांतरण करने का निर्णय ले लिया। संपूर्ण सत्ता सौंपने का दिन 14 अगस्त 1947 निश्चित किया। यह दिन भी एक तरह से दोनों देशों के स्वतंत्रता सेनानियों को चिढ़ाने की दृष्टि से मुकर्रर किया गया, क्योंकि इसी दिनांक को जापान मित्र देशों के समक्ष आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ था।
अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल.विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रहा जो भारत विभाजन की नींव डाल गया। इस बंटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन.भावना फूटी की बंग.भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों के साथ कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लॉर्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था। इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित व सर्तक थे, कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। क्योंकि अंग्रेज भली भांति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोष को पनपने के लिए खाद.पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोष को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है। वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप् में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। जबकि इस बंग.भंग का विरोध हिंदू और मुसलमानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किया था। इस बंटवारे का मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया। इय विभाजन से सांप्रदायिक भावना की एक तरह से बुनियाद डाल दी गई, वहीं दूसरा इसका सकारात्मक परिणाम यह निकला कि पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया। यानी फिरंगी.सत्ता के विरुद्ध एकजुटता ने देशव्यापी उग्र भावना का संचार अनजाने में कर दिया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई से मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।
यही नहीं कर्जन ने अपने वाकचातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थन और अचानक उदय हुए स्वदेशी आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया। सलीमुल्ला कर्जन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में मुस्लिम लीग संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधर पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया। इस दुर्विनार स्थिति के निर्माण होने पर ब्रिटिश पत्रकार एच डब्ल्यू नेविंसन ने गार्जियन अखबार में लिखा, ब्रिटिश न्यायिक अधिकारी जानबूझकर हिंदुओं पर अत्याचार के साक्ष्यों को नजरअंदाज करते हैं और मुस्लिमों के कथन पर एक तरफा यकीन करते हैं।
गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथकतावादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग.भंग विरोध आंदोलन को देश के एक मात्र मुस्लिम-प्रांतष की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बंटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो से शिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक मतदाता सूची बनाए जाने की मांग उठा दी। मिंटो इस मंशा पूर्ति के लिए ही भारत भेजे गए थे कि मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध एक समुदाय के रूप में खड़ा किया जाए। अतएव मिंटो ने नगर पालिकाओं, जिला मंडलों और विधान परिषदों में मुस्लिमों की संख्या आबादी के अनुपात में बढ़ाने की पहल कर दी। यही नहीं मुस्लिमों को महत्व ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी के आधार पर भी रेखांकित की गई। इसी कालखंड में हिंदुओं के खिलाफ मुल्लाओं ने घृणित प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली। एक लाल पुस्तिका छापी गई। जिसमें कहा गया कि् हिंदुओं ने इस्लाम के गौरव को लूटा है। उन्होंने हमारा धन और सम्मान लूटा है। स्वदेशी का जाल बिछाकर हमारी जान लेना चाहते हैं। इसलिए वो मुसलमानों एहिंदुओं के पास अपना धन मत जाने दो। हिंदुओं की दुकानों का बहिष्कार करो। वह सबसे नीच होगा, जो उनके साथ वंदे मातरम् कहेगा। इस सब के बावजूद कांग्रेस को उच्च शिक्षित वकील जिन्ना से समन्यवादी सहयोग की उम्मीद थी। जिन्ना के नेतृत्व में शिक्षित व युवा मुस्लिम सहयोगी बने भी रहे। लेकिन ब्रितानी हुकूमत के पास हिंदू-मुस्लिम एकता और सद्भावना नष्ट-भृष्ट करने की औजार थी। अतएव 1909 में मोर्ले.मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए अलग मतदाता सूची की मांग मंजूर कर ली गई। इस पहल ने हिंदु-मुस्लिम एकता की राह में स्थायी दरार उत्पन्न कर दी।
6 दिसंबर 1946 ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय शिष्टमंडल भेजा। ये लार्ड लारेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स और एवी अलेक्जेंडर थे। इन्हें शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए भेजा गया था। इस मिशन ने कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों से बातचीत की और सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच साझा सत्ता की योजना को मूर्त रूप देना चाहा। इस संवाद में अनेक विरोधाभासी पहलू सामने आए। जिन्ना भारत के साथ रहना तो चाहते थे, लेकिन संविधान में मुसलमानों को विशेष राजनीतिक संरक्षण गारंटी चाहते थे। जिसमें हिंदूओं के साथ बराबरी की मांग प्रमुख थी। यही वह दौर था, जिसमें ठीक दीपावली पर्व के बीच नोआखली में भयंकर सांप्रदायिक दंगे भड़के। मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदू नरसंहार, मंदिरों का विध्वंस और आगजनी की दर्जनों घटनाएं घटी। हिंदू महिलाओं का अपहरण, दुष्कर्म और धर्मांतरण कराकर जबरन विवाह भी रचाए गए। इन घटनाओं से गांधी को जबरदस्त सदमा पहुंचा और शांति के लिए नोआखली पहुंच गए। बहरहाल कैबिनेट मिशन की शिमला बैठक में कोई कारगर परिणाम नहीं निकला।
लॉर्ड माउंटबेटन इतना चतुर निकला कि उसने विभाजन के लिए जिन्ना, नेहरू, पटेल और यहां तक की गांधी को भी मना लिया। भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों में भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। यही नहीं पंजाब और बंगाल को भी कपड़े की तरह दो टुकड़ों में चीर दिया गया,जिससे भारत हमेशा गृह कलह की आंच से सुलगता रहे। यह पाकिस्तान के अस्तित्व से भी ज्यादा खतरनाक था। ब्रिटिश अधिकारियों ने जानबूझ कर 652 भारतीय रियासतों की प्रभुसत्ता उन्हें वापस सौंप दी। उन्हें भारत या पाकिस्तान मिल जाने की छूट तो थी ही, स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की छूट भी दे दी गई थी। अर्थात भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ विभाजन तो आधा सच है, पूरा सच तो देश के 652 टुकड़े कर देने का बन गया था। जिसे पटेल ने संभाला और रियसतों का विलय भारतीय गणतंत्र में हो पाया। अतएव जिन दो पाठों में जिन्ना, कांग्रेस और लाउंटबेटन को दोशी ठहराया गया है, वह कोई केंद्र की वर्तमान सरकार का झूठ नहीं, अपितु ऐतिहासिक सत्य है, जो निश्पक्ष भाव से लिखे स्वतंत्रता आंदोलन की इतिहास पुस्तकों में पूर्व से ही दर्ज है।