दमन,उत्पीड़न व अत्याचार के विरुद्ध एकजुटता का सन्देश देता ‘अरबईन मार्च’

'Arbaeen March' gives the message of unity against repression, oppression and tyranny

तनवीर जाफ़री

‘अरबईन’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है चालीस (40 )। चूँकि इस्लाम धर्म में में किसी व्यक्ति की मृत्यु के 40 दिन बाद उसकी याद में शोक आयोजन यानी ‘चालीसवां ‘ मनाये जाने की परंपरा है इसलिये हज़रत अली के पुत्र व पैग़ंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिजनों की शहादत के चालीसवें के दौरान इराक़ में ‘अरबईन मार्च’ आयोजित किया जाता है। ‘अरबईन मार्च’ इराक़ में ही शुरू हुआ था क्योंकि करबला इराक़ में स्थित है और हज़रत इमाम हुसैन की शहादत करबला में ही हुई थी। इस मार्च में भाग लेने के लिये धर्म व जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर दुनिया के सौ से अधिक देशों के करोड़ों लोग हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े पर हाज़िरी लगाने इराक़ के करबला शहर पहुँचते हैं। वैसे तो अरबईन मार्च का इतिहास सदियों पुराना है। इसकी शुरुआत 680 ईस्वी (61 हिजरी) में पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के एक साथी जाबिर इब्न अब्दुल्लाह अल-अंसारी ने की थी। जाबिर ने आशूरा (दस मुहर्रम ) के 40 दिन बाद करबला जाकर इमाम हुसैन की क़ब्र पर पहली ज़ियारत पढ़ी और करबला में ‘अरबईन’ यानी हज़रत इमाम हुसैन का ‘चालीसवां ‘ मनाने की परंपरा की शुरुआत की। धीरे धीरे यहाँ पहुँचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती गयी। परन्तु सद्दाम हुसैन ने अपने शासनकाल में ‘अरबईन मार्च’ को प्रतिबंधित कर दिया था। 1979-2003 के मध्य सद्दाम के शासनकाल में यह मार्च पूरी तरह प्रतिबंधित रहा परन्तु जैसे ही 2003 में सद्दाम की सत्ता का पतन हुआ उसी समय यानी 2003 के अरबईन मार्च में ही पूरी दुनिया से लाखों श्रद्धालु करबला की ओर निकल पड़े। आज स्थिति यह है कि पड़ोसी देशों के श्रद्धालु हज़ारों किलोमीटर तक का सफ़र पैदल तय कर करबला पहुँचते हैं। जबकि मुख्य मार्च हज़रत अली के रोज़े नजफ़ से शुरू होकर 80 किलोमीटर दूर स्थित करबला में इमाम हुसैन के रौज़े के मध्य होता है। आज इसे दुनिया का सबसे बड़ा वार्षिक मानव समागम माना जाता है, जिसमें करोड़ों लोग पैदल चलकर भाग लेते हैं।
इस बार ‘अरबईन मार्च’ का समापन गत 15 अगस्त को हुआ जिसमें रिकार्ड लगभग सवा दो करोड़ लोगों ने शिरकत की। यह मार्च पश्चिमी मीडिया की बेरुख़ी के बावजूद अपनी अनेक विशेषताओं के लिये पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित करता है। जिस हुसैन व उनके परिवार के लोगों को करबला में तीन दिनों तक भूखा प्यासा रहने को मजबूर किया गया और इसी भूख प्यास की शिद्दत के आलम में क्रूर सीरियाई शासक यज़ीद की सेना द्वारा उन्हें क़त्ल किया गया उसी हुसैन के रौज़े पर आने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं को ‘अरबईन मार्च’ के पूरे मार्ग पर दुनिया का सबसे मंहगा,शुद्ध व स्वादिष्ट व्यंजन परोसा जाता है। करोड़ों लोगों के हर मर्ज़ की दवा इलाज,उनके लिये हर तरह के आराम की सारी सुविधायें सब कुछ मुफ़्त उपलब्ध कराई जाती हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि इस मार्च पर अलक़ायदा व आई एस व दाईश जैसे आतंकी संगठनों की कुदृष्टि होने के बावजूद अभी तक इस मार्च में कभी कोई अनहोनी या दुर्घटना का समाचार नहीं मिला। ख़बर है कि इस बार भी इराक़ी सुरक्षा बलों ने अरबईन तीर्थयात्रियों को निशाना बनाने की साज़िश रचने वाले एक आतंकी सेल का पर्दाफ़ाश किया है। करबला के गवर्नर नासिफ़ जसीम अल-ख़त्ताबी के मुताबिक़ एक ख़ुफ़िया ऑपरेशन के दौरान 7 अगस्त, 2025 को 22 आतंकवादियों को गिरफ़्तार किया गया। ये आतंकवादी दाइश (ISIS) से जुड़े थे और अरबईन मार्च के दौरान श्रद्धालुओं पर हमला करने की साज़िश रच रहे थे। उनकी योजना हज़रत इमाम हुसैन की याद में होने वाली मजलिसों,पैदल मार्च व सुरक्षा अधिकारियों को निशाना बनाने की तो थी ही साथ ही वे किसी बहाने श्रद्धालुओं को ज़हर देने की साज़िश भी रच रहे थे।

इस पूरी यात्रा के दौरान पूरे वर्ष नजफ़,करबला अथवा किसी भी तीर्थस्थल पर कहीं भी फूल मालाएं अर्पित नहीं की जातीं। कहीं धूप अगरबत्ती या मोमबत्ती दिया बाती कुछ भी नहीं जलाई जाती। कहीं भी कलावा,मौली,चंदा पर्ची रसीद आदि का कोई फंडा नहीं है। कहीं गुल्लक या दान पेटी रखी नज़र नहीं आएगी। बस हर व्यक्ति शहीद ए करबला की याद में आँखों में श्रद्धा के आंसू लिये सीने पर हाथ रखे, या हुसैन और लब्बैक या हुसैन कहता हुआ करबला की ओर बढ़ता दिखाई देता है। दरअसल अरबईन मार्च को पूरे विश्व में उदारता और आतिथ्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक और राजनीतिक महत्व भी रखती है, जो अन्याय के ख़िलाफ़ दुनिया को एकजुट होकर खड़े होने की प्रेरणा देती है। यही वजह है कि हज़रत इमाम हुसैन को सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में माना जाता है। अब इस मार्च में केवल शिया या मुस्लिम लोग ही शरीक नहीं होते बल्कि प्रत्येक वर्ष इसमें बड़ी संख्या में अंतरधार्मिक भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। इसीलिये इस यात्रा में सुन्नी, ईसाई, यहूदी, हिंदू,सिख, यज़ीदी,क़ुर्द और ज़ोरोस्ट्रियन आदि सभी समुदायों के लोग पूरी श्रद्धा से शामिल होते हैं।
यह हज़रत इमाम हुसैन की शहादत से मिलने वाली प्रेरणा ही थी जिसने पिछले दिनों ईरान को अमेरिका व इस्राईल जैसे सशक्त परन्तु अत्याचारी शासन के विरुद्ध साहस से मुक़ाबला करने का हौसला दिया। 2014 में भी इराक़ के प्रमुख शिया धर्मगुरु आयतुल्लाह अली सिस्तानी ने आतंकवादी संगठन आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट) की बढ़ती हिंसा और आतंक के जवाब में उसके विरुद्ध जिहाद का फ़तवा जारी किया था। आईएस ने न केवल शिया समुदाय बल्कि सुन्नी, ईसाई, यज़ीदी और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को भी निशाना बनाया था। बर्बर आईएस के लड़ाके सामूहिक हत्याएं, बलात्कार, और सांस्कृतिक स्थलों का विनाश करते हुये व्यापक आतंक मचा रहे थे और कई महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों को भरी क्षति पहुंचे थी। इस फतवे के परिणामस्वरूप, हज़ारों स्वयंसेवकों ने हश्द अल-शाबी (पॉपुलर मोबिलाइज़ेशन फ़ोर्सेज़ , PMF) नामक अर्धसैनिक बल का गठन किया और इराक़ी सेना के साथ मिलकर आईएसआईएस के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई लड़ते हुये इराक़ व सीरिया को आईएसआईएस से मुक्त कराया। यह भी उसी हुसैन और करबला से मिलने वाली शिक्षा व प्रेरणा की ही देन थी। दरअसल हज़रत इमाम हुसैन की शहादत, दमन उत्पीड़न व अत्याचार के ख़िलाफ़ कड़े प्रतिरोध का वैश्विक प्रतीक है। चाहे वह उस दौर का क्रूर शासक यज़ीद हो या आज के दौर को कोई ‘यज़ीद’। रहती दुनिया तक करबला की दास्तान और शहादत ए हुसैन ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मानवता को एकजुट होने तथा त्याग व बलिदान का सन्देश देती रहेगी।