दर्पण में दरार: कुंडलिया छंदों में समाज का अनछुआ सच

Crack in the mirror: The untouched truth of society in Kundaliya verses

डॉ. सत्यवान सौरभ का काव्य-संग्रह “दर्पण में दरार” हिंदी साहित्य में कुंडलिया छंद का एक सशक्त और समकालीन प्रयोग है। कुल 240 कुंडलियों में रचा यह संग्रह केवल काव्यात्मक सौंदर्य ही नहीं, बल्कि समाज का गहन आत्ममंथन भी प्रस्तुत करता है। इसमें स्त्री-पुरुष की संवेदनाएँ, रिश्तों की विडंबनाएँ, सत्ता और मीडिया की सच्चाइयाँ, प्रेम और बचपन की स्मृतियाँ—सब कुछ छंदों की लय में जीवंत हो उठता है। यह पुस्तक परंपरागत छंद और आधुनिक जीवन के यथार्थ का संगम है, जो पाठकों को सोचने पर विवश करती है और आज के समाज का अनछुआ सच सामने लाती है।

चेतना सिंह

हिंदी कविता का इतिहास साक्षी है कि समय-समय पर कवियों ने न केवल साहित्य की परंपराओं को जीवित रखा है बल्कि उसमें नए प्रयोग कर उसे प्रासंगिक भी बनाया है। डॉ. सत्यवान सौरभ का काव्य-संग्रह “दर्पण में दरार” इसी परंपरा और प्रयोग का सशक्त उदाहरण है। यह संग्रह मात्र कविताओं का संकलन नहीं है, बल्कि हमारे समाज के उस आईने की तरह है जिसमें दरारें भी दिखाई देती हैं और उन दरारों के भीतर छुपे सच भी। कवि ने परंपरागत कुंडलिया छंद को माध्यम बनाकर आधुनिक जीवन की जटिलताओं को स्वर दिया है। यही कारण है कि यह पुस्तक छंद और विषय, दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण बन जाती है।

परंपरा और प्रयोग का संगम

कुंडलिया छंद हिंदी साहित्य की एक पुरानी विधा है, जिसका प्रयोग प्रायः भक्ति और रीति काल के कवियों ने किया। लेकिन “दर्पण में दरार” यह साबित करती है कि छंद की सीमाएँ समय से बंधी हुई नहीं हैं। डॉ. सौरभ ने यह दिखाया है कि परंपरा को यदि संवेदनशीलता और ईमानदारी के साथ जोड़ा जाए तो वह आधुनिक यथार्थ को भी अभिव्यक्त करने में समर्थ हो सकती है। उनकी कविताएँ यह भरोसा दिलाती हैं कि छंद की अनुशासित संरचना के भीतर भी विचारों की व्यापकता और भावों की गहराई समाहित हो सकती है।

स्त्री की चुप्पियाँ: मौन का विद्रोह

संग्रह का पहला खंड “स्त्री की चुप्पियाँ” पाठक को गहरे भीतर तक झकझोर देता है। यहाँ कवि ने औरत के उस मौन को आवाज़ दी है जिसे समाज अक्सर सुनने से कतराता है।

“होंठ सी दिए जाते हैं / आँसू भीतर बहते हैं”

ये पंक्तियाँ न केवल स्त्री के दुख का चित्रण हैं बल्कि उस सामाजिक संरचना की आलोचना भी हैं जो उसे बोलने का अवसर नहीं देती। विशेष बात यह है कि कवि ने स्त्री को करुणा की मूर्ति मात्र न मानकर उसकी चुप्पी को विद्रोह का प्रतीक बना दिया है। यह खंड स्त्री विमर्श को नई दृष्टि प्रदान करता है।

पुरुष की पीड़ा और रिश्तों की रेत

समाज में प्रचलित धारणा है कि पुरुष कठोरता और स्थिरता का प्रतीक है। लेकिन कवि ने “पुरुष की पीड़ा” खंड में उसकी संवेदनशीलता और दबे हुए दुखों को सामने रखा है। यह खंड पाठक को यह सोचने पर मजबूर करता है कि जैसे स्त्रियाँ सामाजिक अपेक्षाओं से जकड़ी हैं, वैसे ही पुरुष भी अपने अस्तित्व के बोझ से दबा हुआ है।

इसी प्रकार “रिश्तों की रेत” खंड में परिवार और संबंधों के टूटते-बिखरते स्वरूप का चित्रण है। यहाँ कवि ने दिखाया है कि कैसे झूठे दिखावे, स्वार्थ और संवादहीनता रिश्तों को रेगिस्तान बना देते हैं। छंदों में व्यक्त यह पीड़ा बहुत सटीक और यथार्थपरक है।

सत्ता-संस्कृति और मीडिया की पोल खोल

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है इसका व्यंग्यात्मक स्वर। “सत्ता-संस्कृति की विडंबनाएँ” और “मंच-मंडियाँ और मीडिया” खंडों में कवि ने राजनीति और मीडिया की दोहरी मानसिकता को बेनकाब किया है।

“झूठ का जनादेश”, “लोकतंत्र का तमाशा” और “मीडिया का मुखौटा” जैसे छंद हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे की कमज़ोरियों को उजागर करते हैं। कवि का व्यंग्य किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं है, बल्कि पूरे तंत्र की विडंबना को इंगित करता है। यह कविताएँ पाठक को हँसाती नहीं, बल्कि चिंतन की ओर प्रेरित करती हैं।

प्रेम, आत्मा और बचपन की स्मृतियाँ

“प्रेम और पराजय” खंड संग्रह का भावुक पक्ष है। यहाँ प्रेम की नाजुकता, उसकी टूटन और असफलता का मार्मिक चित्रण है। यद्यपि कुछ छंदों में पुनरावृत्ति का आभास होता है, फिर भी भावनाओं की प्रामाणिकता उन्हें प्रभावी बनाती है। “आत्मा की पुकार” में कवि जीवन की गहरी दार्शनिकताओं को छूता है। यह खंड आध्यात्मिकता और आत्ममंथन के लिए आमंत्रण जैसा है। वहीं “बचपन की चिट्ठियाँ” हमें मासूमियत, खेलकूद और भूली-बिसरी यादों की ओर खींच ले जाती हैं। कवि का यह रूप संवेदनशील और आत्मीय है।

भाषा और शैली

डॉ. सौरभ की भाषा सरल और प्रवाहमान है। वे कठिन और गूढ़ विषयों को भी सहज शब्दों में व्यक्त करते हैं। छंद की बंधनकारी संरचना के बावजूद भाव कहीं बंधे हुए नहीं लगते। उनकी शैली में व्यंग्य की तीक्ष्णता और करुणा की गहराई दोनों का संतुलित मेल है। यही संतुलन पाठक को बाँधे रखता है।

समग्र मूल्यांकन

“दर्पण में दरार” केवल कविताओं का संग्रह नहीं है, यह हमारे समय की एक साहित्यिक और सामाजिक घोषणापत्र है। इसमें कवि की गहरी छंद-साधना झलकती है, साथ ही समाज की गंभीर पड़ताल भी।

सकारात्मक पक्ष

परंपरागत छंद का आधुनिक प्रयोग। समाज के लगभग सभी पहलुओं को स्पर्श करने का प्रयास। व्यंग्य और करुणा का संतुलित प्रयोग।

सुधार की संभावना

आरंभ में कुंडलिया छंद की संक्षिप्त जानकारी जोड़ दी जाए, ताकि सामान्य पाठक इसे आसानी से समझ सके। प्रेम संबंधी छंदों में कुछ और नयापन लाने की गुंजाइश है। डॉ. सत्यवान सौरभ का “दर्पण में दरार” समकालीन हिंदी कविता में एक सार्थक और आवश्यक योगदान है। यह संग्रह छंद-काव्य की परंपरा को पुनर्जीवित करता है और आधुनिक जीवन की विडंबनाओं को उजागर करता है। पाठकों के लिए यह पुस्तक केवल काव्य-पाठ नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर भी है।

समाज के आईने में जो दरारें हम अनदेखी कर देते हैं, कवि ने उन्हें अपनी रचनात्मक दृष्टि से उकेरा है। यही इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि यह हमें केवल दूसरों को नहीं, खुद को भी देखने पर मजबूर करता है।

शीर्षक :दर्पण में दरार (कुंडलिया छंद)
लेखक :डॉ. सत्यवान सौरभ
प्रकाशक :आर.के. फीचर्स, प्रज्ञानशाला (पंजीकृत), भिवानी
मूल्य :₹250/-
पृष्ठ संख्या : 120 पृष्ठ