
धर्म के आधार पर हिंसा के शिकार पीड़ितों की स्मृति में अंतर्राष्ट्रीय दिवस 22 अगस्त
मुनीष भाटिया
धर्म का मूल उद्देश्य शांति, करुणा और मानवता की रक्षा है, परंतु दुखद है कि दक्षिण एशिया का एक बड़ा हिस्सा आज धर्म के नाम पर फैली हिंसा का साक्षी बन रहा है। “धर्म के नाम पर हिंसा दिवस” हमें याद दिलाता है कि जब आस्था को हथियार बना दिया जाता है, तो उसका परिणाम केवल रक्तपात, असुरक्षा और मानवीय संकट होता है। आज हिंदू समुदाय विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस त्रासदी का सबसे बड़ा शिकार बना हुआ है। तीनों क्षेत्र अपने-अपने इतिहास और राजनीति में भिन्न अवश्य हैं, किंतु पीड़ा एक जैसी है— धार्मिक पहचान के कारण हिंसा, भेदभाव और असुरक्षा। यह केवल किसी एक देश का मसला नहीं रह गया है, बल्कि एक वैश्विक मानवाधिकार प्रश्न बन चुका है।
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुए आतंकी हमले में हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाया गया। निर्दोष तीर्थयात्रियों पर हमला यह संकेत है कि आतंकवाद अब केवल राजनीतिक विद्रोह का नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान को मिटाने का औजार बन चुका है। धर्म के आधार पर आतंकका यह रूप मानवाधिकारों तथा धार्मिक स्वतंत्रता दोनों पर करारा आघात है।
पश्चिम बंगाल, जिसे कभी सांस्कृतिक चेतना की राजधानी कहा जाता था, आज बार-बार धार्मिक टकराव का केंद्र बनता जा रहा है। रामनवमी, दुर्गा पूजा, हनुमान जयंती जैसे आयोजनों पर हिंसक हमले अब सामान्य हो चुके हैं। प्रशासन की निष्क्रियता और राजनीतिक चुप्पी ने इस संकट को और गहरा दिया है।
बांग्लादेश, जो 1971 में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में उभरा था, अब अपने ही वादों से दूर हो गया है। दुर्गा पूजा पंडालों की तोड़फोड़, हिंदू घरों पर भीड़ द्वारा हमले और महिलाओं के साथ अत्याचार यह दर्शाते हैं कि वहाँ अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय असुरक्षित महसूस करता है। 2021 के कमिला और नोआखली दंगों ने साफ कर दिया कि वहाँ की शासन-व्यवस्था अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में विफल रही है।
पाकिस्तान में तो स्थिति और भी भयावह है। यहाँ हिंदू लड़कियों का जबरन धर्मांतरण, मंदिरों की तोड़फोड़ और ब्लासफेमी कानून का दुरुपयोग आम हो चुका है। सिंध और बलूचिस्तान से आए दिन ऐसी खबरें आती हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि वहाँ हिंदुओं की धार्मिक स्वतंत्रता लगभग नाम मात्र ही बची है।
दुखद यह है कि जब दुनिया में कहीं और अल्पसंख्यक समुदाय पर अन्याय होता है, तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ और मानवाधिकार संगठन तत्काल आवाज़ उठाते हैं। लेकिन जब पीड़ित हिंदू होते हैं, तो एक अजीब-सी चुप्पी छा जाती है। यही चुप्पी सबसे बड़ा अन्याय है। क्या मानवाधिकार केवल राजनीतिक रूप से सुविधाजनक समुदायों तक सीमित हैं? यदि ऐसा है तो यह मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों का अपमान है।
इतिहास हमें यह भी सिखाता है कि धर्म के नाम पर हिंसा किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं रही। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों को जिस तरह नाज़ी शासन ने संगठित नरसंहार का शिकार बनाया, वह इस बात का सबसे भयावह उदाहरण है कि जब आस्था को हथियार बना दिया जाता है तो पूरा समुदाय समाप्ति के कगार पर पहुँच सकता है। आज भी दुनिया के कई हिस्सों में मुसलमान समुदाय को धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि धर्म के नाम पर होने वाला अन्याय सार्वभौमिक है, और हर पीड़ित की पीड़ा बराबर महत्व रखती है।
सिख समुदाय भी धर्म के नाम पर हिंसा का शिकार रहा है। 1984 के दंगों में देश की राजधानी दिल्ली सहित कई हिस्सों में हजारों निर्दोष सिखों की संगठित हत्या हुई, उनके घरों और गुरुद्वारों को जला दिया गया। यह त्रासदी केवल एक राजनीतिक उन्माद नहीं थी, बल्कि धार्मिक पहचान को निशाना बनाने का भयावह उदाहरण भी थी। सिखों के साथ हुआ यह अन्याय हमें याद दिलाता है कि जब धर्म और राजनीति का घातक मिश्रण होता है, तो उसका परिणाम पूरे समुदाय के अस्तित्व पर हमला बन जाता है।
“धर्म के नाम पर हिंसा दिवस” केवल एक स्मरण नहीं है, बल्कि यह हमारी नैतिकता की परीक्षा भी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि पीड़ा किसी भी धर्म की हो, वह बराबर महत्व रखती है। यदि आज हम बंगाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों पर मौन रहेंगे, तो कल यही हिंसा हमारे समाज की नींव को हिला सकती है।धर्म के नाम पर हिंसा का विरोध करना ही सच्ची धार्मिकता है। हर नागरिक को सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता दिलाना ही मानवता का कर्तव्य है। इस दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि किसी भी मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा को न केवल अस्वीकार करेंगे, बल्कि पीड़ितों की आवाज़ बनकर न्याय की राह भी प्रशस्त करेंगे।