
प्रो. महेश चंद गुप्ता
हमारे समाज की आत्मा परिवार में बसती है। समाज की सबसे बड़ी शक्ति संयुक्त परिवार व्यवस्था रही है। तीन पीढिय़ों का एक साथ रहना, बुजुर्गों की देखरेख, बच्चों को संस्कारित करने और परिवार के बीच अपनायत ही वह धुरी थी जिस पर हमारी संस्कृति और समाज टिका हुआ था लेकिन दुर्भाग्य से आज यही मजबूत नींव दरक रही है। संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहे हैं और उनकी जगह छोटे, एकल परिवार ले रहे हैं। परिणामस्वरूप, रिश्ते कमजोर हो रहे हैं, बुजुर्ग अकेलेपन से जूझने को मजबूर हैं और नई पीढ़ी संस्कारों से दूर होती जा रही है।
हम लोग हमेशा गर्व से कहते आए हैं कि हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा परिवार है। और परिवार मेंं केवल मां-बाप और बच्चे नहीं बल्कि दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई और भाई-बहनों का पूरा कुनबा होता था, जो संयुक्त परिवार कहलाता था। इसी व्यवस्था ने हमें कठिन से कठिन दौर में भी संभाले रखा। आज यह सब कुछ बदल रहा है।
जीवन के सत्तर वसंत देख चुके मेरी पीढ़ी के लोगों ने संयुक्त परिवारों का सुनहरा जमाना देखा और जीया है। वह समय था जब दादी की गोद में बैठकर हम कहानियां सुना करते थे। रामायण और महाभारत के किस्से, पंचतंत्र की कहानियां बचपन में हमारे संस्कार बन जाते थे। लेकिन अब उनकी जगह मोबाइल स्क्रीन ने ले ली है। बच्चे असली जीवन के अनुभवों से दूर कार्टून और गेम्स की आभासी दुनिया में पल-बढ़ रहे हैं।
संयुक्त परिवारों में बच्चे बड़ों की देख-रेख में बड़े होते थे। कोई पढ़ाई में कमजोर होता तो चाचा-ताऊ उसकी मदद करते, कोई बीमार पड़ता तो चाची-ताई तुरंत सेवा में जुट जातीं। यह सहयोग केवल परिवार तक सीमित नहीं था बल्कि बच्चों की सोच में भी घर कर जाता। वे सबको साथ लेकर चलना सीखते और यही मूल्य समाज को मजबूत बनाते थे।
बड़ा सवाल है कि आखिर हमारे संयुक्त परिवार धीरे-धीरे बिखर क्यों गए? इसके पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है उपभोक्तावादी संस्कृति। बाजार चाहता है कि हर परिवार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाए ताकि हर घर के लिए अलग टीवी, अलग फ्रिज, अलग गाड़ी बिके। जब एक परिवार चार हिस्सों में बंटता है तो खपत चार गुना बढ़ जाती है। यही बाजार की रणनीति है।
दूसरा कारण है पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण। मीडिया और फिल्मों ने यह छवि गढ़ दी कि संयुक्त परिवार झगड़ों की जड़ हैं और छोटे परिवार आधुनिकता के प्रतीक। युवाओं को लगने लगा कि संयुक्त परिवार में स्वतंत्रता नहीं, बोझ है। धीरे-धीरे यह धारणा समाज में बैठ गई है।
तीसरा कारण बदलती जीवन शैली है। शहरों में नौकरी के दबाव, कॅरियर की दौड़ और कथित आजादी की सोच ने भी परिवार को पीछे धकेला। अब युवा पीढ़ी ‘मैं और मेरा परिवार’ तक सीमित हो गई है। चौथा कारण, बहुत से लोगों द्वारा बेटियों के ससुराल मेंं अनावश्यक दखलअंदाजी है। इस कारण वहां की शांति भंग होती है। बेटे-बहू अलग हो जाते हैं। संयुक्त परिवारों के बिखरने का यह भी बड़ा कारण बन रहा है।
लेकिन सोचिए, कितना कुछ खो दिया है हमने इस बीच में? संयुक्त परिवार केवल रहने का ढांचा भर नहीं था बल्कि यह जीवन जीने की पाठशाला था। दादा-दादी बच्चों को कहानियों से मूल्य सिखाते, माता-पिता अनुशासन देते और भाई-बहनों के बीच सहयोग व त्याग से धैर्य पैदा होता था। बुजुर्गों को सम्मान और सुरक्षा मिलती थी। बच्चे माता-पिता ही नहीं बल्कि पूरे परिवार से संस्कार सीखते थे। पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी, बड़ों का आदर, अतिथि देवो भव की भावना संयुक्त परिवार की ही देन थे।
इस बात से क्या कोई इनकार कर सकता है कि भारत के सेवा, त्याग, सहनशीलता जैसे महान जीवन मूल्य संयुक्त परिवारों में ही जन्मे थे। यही कारण है कि हम हजारों सालों तक आक्रमणों, संकटों और बदलावों के बावजूद टिके रहे।
इसके विपरीत, आज के छोटे परिवार की तस्वीर अलग है। बच्चे अकेलेपन से जूझते हैं। मां-बाप नौकरी में व्यस्त रहते हैं तो बच्चों का सहारा मोबाइल और इंटरनेट बन जाता है। बुजुर्ग या तो उपेक्षित हैं या वृद्धाश्रमों में धकेल दिए जा रहे हैं। रिश्तों में अपनापन घट गया है और स्वार्थ बढ़ रहा है। विवाह जैसी संस्था कमजोर हो रही है। लिव-इन रिलेशनशिप जैसे विकल्प बढ़ रहे हैं। रिश्तों में स्थायित्व की जगह अस्थिरता आ रही है। नतीजा यह है कि समाज में मानसिक तनाव, अवसाद और असुरक्षा तेजी से बढ़ रही है।
कितना अफसोसनाक है कि हम राष्ट्र की एकता की बात तो करते हैं लेकिन अपने ही परिवार की एकता नहीं बचा पा रहे। संयुक्त परिवारों के बिखरने से समाज का ताना-बाना ढीला हो गया है। रिश्तों में वह गर्माहट नहीं रही, बच्चों में वह संस्कार नहीं रहे और बुजुर्गों के लिए वह सम्मान नहीं रहा। जब परिवार टूटते हैं तो समाज भी बिखरता है और जब समाज बिखरता है तो राष्ट्र की एकता भी खतरे में पड़ जाती है।
खुशी की बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन कुटुंब प्रबोधन अभियान के जरिए परिवारों को जोडऩे का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यह काम केवल किसी संगठन का नहीं बल्कि पूरे समाज का है। हमें खुद तय करना होगा कि हम अगली पीढ़ी को किस तरह का भारत सौंपना चाहते हैं? बड़ा सवाल यह भी है कि हम आगे कैसे बढ़ें? सबसे पहले तो हमें संयुक्त परिवार को बोझ नहीं बल्कि अपनी सांस्कृतिक संपत्ति मानना होगा। हमें समझना होगा कि आधुनिकता का मतलब परंपरा से कट जाना नहीं है। असली आधुनिकता वही है जिसमें परंपरा और प्रगति का संतुलन हो। परिवारों को जोडऩा, बुजुर्गों को सम्मान दिलाना और बच्चों को संस्कार देना, यही वह रास्ता है जिस पर चलकर हम अपने समाज को फिर से मजबूत बना सकते हैं। हमें यह सोचना होगा कि अगर परिवार टूटेंगे तो समाज भी बिखरेगा और अगर परिवार मजबूत होंगे तो देश भी मजबूत होगा।
संयुक्त परिवारों का टूटना केवल सामाजिक बदलाव नहीं बल्कि भारतीयता का क्षरण है। आने वाली पीढिय़ों को अकेलेपन और उपभोक्तावाद के हवाले करना सबसे बड़ा अपराध होगा। परिवार का बिखरना समाज और राष्ट्र के विखंडन की पहली सीढ़ी है। आवश्यकता इस बात की है कि हम फिर से उस अपनायत और सामूहिकता की भावना को जीवित करें जिसने भारत को सभ्यता की सबसे पुरानी और मजबूत धारा बनाया था। याद रखिए-अगर परिवार एक होगा तो देश भी एक होगा।
(लेखक प्रख्यात शिक्षा विद्, चिंतक और वक्ता हैं।)