मुकदमेबाजी की भूलभुलैया में बिखरता विश्वास

Trust shattered in the labyrinth of litigation

मुनीष भाटिया

“न्याय में देरी, न्याय से इनकार है” — यह प्रसिद्ध कथन हमारे देश की न्याय प्रणाली की सबसे ज्वलंत समस्याओं में से एक को उजागर करता है। जब कोई व्यक्ति पीड़ा और अन्याय का शिकार होता है, तो वह अदालत की शरण इस विश्वास के साथ लेता है कि उसे समय पर न्याय मिलेगा। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है और केस वर्षों या दशकों तक चलता रहता है, उस व्यक्ति का भरोसा धीरे-धीरे न्याय प्रणाली से उठने लगता है। यही स्थिति आज भारत की अदालतों में लाखों लंबित मामलों के कारण बन चुकी है, जहां न्याय मिलना एक लंबे, थकाऊ और अक्सर निराशाजनक इंतजार का रूप ले चुका है। भारत में न्यायिक प्रणाली की जमीनी सच्चाई यह है कि यहां लगभग 5 करोड़ से अधिक मामले विभिन्न स्तरों की अदालतों में लंबित हैं। इनमें संपत्ति विवाद, दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, सरकारी मामलों से जुड़े मुकदमे और व्यापारी विवाद जैसे अनगिनत मामले शामिल हैं। एक साधारण व्यक्ति के लिए एक मामला सुलझाने में सालों लग जाते हैं, और जब फैसला आता भी है, तब तक या तो वह व्यक्ति बूढ़ा हो चुका होता है या फिर उसका जीवन पूरी तरह बदल चुका होता है।

देरी के पीछे सबसे बड़ा कारण है—न्यायिक संसाधनों की कमी। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में प्रति दस लाख लोगों पर न्यायाधीश की सीमित संख्या हैं, जबकि वैश्विक मानक इससे कई गुना अधिक है। इससे न्यायाधीशों पर कार्यभार असामान्य रूप से बढ़ जाता है। वे एक दिन में दर्जनों मामलों की सुनवाई करते हैं, और कई बार केवल तारीखें देकर काम चलाना पड़ता है। साथ ही, अधिवक्ताओं की हड़तालें, सरकारी गवाहों का अनुपस्थित रहना, फॉरेंसिक रिपोर्टों में देरी और बार-बार स्थगन भी प्रक्रिया को और जटिल बना देते हैं। अदालतों की बुनियादी सुविधाओं की भी बात करें तो कई निचली अदालतों में अभी भी डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। फाइलों का ढेर, धीमा प्रचलित सिस्टम और पेपर-आधारित प्रक्रिया पूरे तंत्र को बोझिल बना देते हैं। जो तकनीकी समाधान उपलब्ध हैं—जैसे ई-कोर्ट, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ई-फाइलिंग—उनका पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है, खासकर ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में।

किसी भी व्यक्ति के लिए एक कानूनी लड़ाई शुरू करना केवल एक न्यायिक प्रक्रिया नहीं होती, बल्कि यह उसके जीवन की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती है। वकीलों की फीस, बार-बार अदालतों में जाना, कार्य से छुट्टी लेना, परिवार पर दबाव—ये सब उस व्यक्ति को भीतर से तोड़ने लगते हैं। खासकर तब, जब वह देखता है कि उसका मामला सालों तक तारीख पर तारीख पाता रहता है, लेकिन कोई ठोस निर्णय नहीं निकलता। इसका असर केवल वादी या प्रतिवादी पर नहीं, बल्कि पूरे समाज में न्याय के प्रति असंतोष और अविश्वास फैलाता है। इस चुनौतीपूर्ण स्थिति से बाहर निकलने के लिए कई अहम कदम उठाने की जरूरत है: सबसे पहले, न्यायपालिका में खाली पदों को प्राथमिकता से भरा जाए। साथ ही, नई अदालतों की स्थापना भी की जानी चाहिए ताकि मुकदमों का भार समान रूप से विभाजित हो। ई-फाइलिंग, ई-सम्मन, ऑनलाइन सुनवाई जैसी प्रणालियों को और अधिक व्यापक बनाया जाए। इससे सुनवाई की प्रक्रिया तेज होगी और दस्तावेज़ी प्रक्रियाओं की जटिलता घटेगी। विशेष रूप से महिला सुरक्षा, बच्चों के उत्पीड़न, वरिष्ठ नागरिकों के मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाई जाए ताकि इन संवेदनशील मामलों में जल्दी न्याय मिल सके। साथ ही, मध्यस्थता, पंचायती न्याय और समझौता समितियों को प्रोत्साहित किया जाए ताकि छोटे और साधारण मामलों को अदालत से बाहर ही सुलझाया जा सके। न्यायपालिका से जुड़े कर्मचारियों को आधुनिक तकनीक और प्रक्रिया आधारित प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे कार्यकुशल बनें और अदालत की कार्यवाही अधिक व्यवस्थित हो।

न्याय केवल एक कानूनी शब्द नहीं, बल्कि यह आमजन का लोकतंत्र और संविधान पर विश्वास बनाए रखने का आधार है। जब कोई निर्दोष व्यक्ति सालों तक न्याय की प्रतीक्षा करता है, तो उसके मन में केवल व्यवस्था के प्रति आक्रोश ही नहीं, बल्कि पूरे तंत्र के प्रति निराशा उत्पन्न हो जाती है। यह लोकतंत्र के लिए एक खतरे की घंटी है। समय आ गया है कि मुकदमेबाजी की इस भूलभुलैया से बाहर निकलकर हम न्याय की प्रक्रिया को सरल, सुलभ और त्वरित बनाएं। न्याय का असली मूल्य तभी है जब वह समय पर मिले। यदि अदालतें अधिक दिनों तक काम करें, तो लंबित मामलों का निपटारा तेजी से हो सकता है। अदालतों को आधुनिक बनाना चाहिए और डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करना चाहिए। इससे न केवल समय की बचत होगी, बल्कि प्रक्रिया में पारदर्शिता भी आएगी।न्याय की देवी का पलड़ा तभी संतुलित रह पाएगा जब हर व्यक्ति को समय पर न्याय मिलेगा। देर से मिला न्याय वास्तव में पीड़ित के लिए एक और पीड़ा बन जाता है।