सपा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री की कुर्सी एक ही परिवार में क्यों

Why are the SP president and the chief minister in the same family?

संजय सक्सेना

समाजवादी पार्टी में इस समय पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) को लेकर काफी गंभीर मतभेद नजर आ रहे हैं। ऐसा इस लिये हैं क्योंकि पीडीए की बात करने वाले सपा प्रमुख अखिलेश ने पार्टी के सभी प्रमुख पदों पर अपने परिवार के लोगों को बैठा रखा है। चुनाव के समय टिकट बांटते समय भी सपा आलाकमान सबसे पहले अपने और परिवार के बारे में ही सोचता है। यही वजह है मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पहले मुलायम सिंह का कॉपीराइट हुआ करता था और उनके बाद उनके पुत्र अखिलेश यादव ने इन दोनों पदों को अपनी जागीर बना रखा है। लोकसभा में समाजवादी पार्टी नेता के पद पर भी अखिलेश यादव काबिज हैं। मुलायम कुनबे के पांच सदस्य सांसद हैं। समाजवादी पार्टी में मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का पद एक ही परिवार तक सीमित रहता है। दो बार मुलायम सिंह और एक बार अखिलेश यादव मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इसके अलावा कोई दूसरा सीएम नहीं बना। इससे आगे की बात की जाये तो मुख्यमंत्री होते हुए भी यह दोनों नेता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर भी विराजमान रहे। मुलायम कुनबे ने इन तीन पदों पर ना तो अपने से इतर कभी किसी पिछड़े समाज के नेता को आगे बढ़ाया ना ही दलित या फिर अल्पसख्यक नेता को इन पदों के लिये मौका मिला। ऐसे में अखिलेश का पीडीए छलावा ही नजर आता है। यही बात आज पार्टी से बाहर निकाली गई विधायक पूजा पाल कह रही हैं और इससे पहले भी कई नेता कह चुके हैं। ऐसे में सवाल यही है कि क्या पीडीए के अन्य नेता सीएम या पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के लायक नहीं हैं। इससे साफ संकेत मिलता है कि क्या समाजवादी एक परिवार तक सीमित होकर रह गई है। क्या पीडीए के नाम पर अखिलेश यादव अन्य जातियों को धोखा दे रहे हैं?

गौरतलब हो, उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने 2022 विधानसभा चुनावों के बाद से पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) को अपनी मुख्य रणनीति बनाया। अखिलेश ने इसे एक सामाजिक गठजोड़ के रूप में पेश किया, जहां पिछड़े वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक एकजुट होकर भाजपा को चुनौती देंगे। 2024 लोकसभा चुनावों में सपा की 37 सीटों की जीत को पीडीए की सफलता बताया गया। लेकिन पार्टी के भीतर उभरती कलह और कई नेताओं के बयान बताते हैं कि यह रणनीति महज एक चुनावी जुमला है, जिसके नाम पर अखिलेश अन्य बिरादरियों के नेताओं को धोखा दे रहे हैं। पीडीए में पी और डी को दरकिनार कर सिर्फ ए (अल्पसंख्यक, मुख्यतः मुस्लिम) पर फोकस करने के आरोप लग रहे हैं, जो पार्टी छोड़ने वाले नेताओं के बयानों से पुष्ट होते हैं। यह स्टोरी इन आरोपों की पड़ताल करती है, जहां कलह की जड़ परिवारवाद, जातिवाद और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में छिपी है।

पार्टी के भीतर कलह की शुरुआत 2023-24 से ही दिखने लगी, जब पीडीए की घोषणा के बाद कई प्रमुख नेता से अलग हुए। सबसे बड़ा नाम स्वामी प्रसाद मौर्य का है, जो पिछड़े वर्ग (कुर्मी) से आते हैं। मौर्य ने फरवरी 2024 में सपा छोड़कर अपनी राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी बनाई। उनके बयान में साफ कहा गया कि अखिलेश पीडीए के नाम पर पिछड़ों और दलितों को ठग रहे हैं। पार्टी में सिर्फ यादव और मुस्लिमों का बोलबाला है, अन्य जातियों को टिकट या पद नहीं मिलते। मौर्य ने आरोप लगाया कि सपा में परिवारवाद हावी है, जहां अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव और अन्य रिश्तेदारों को तरजीह दी जाती है, जबकि के अन्य घटक सिर्फ वोट बैंक हैं। मौर्य के जाने के बाद सपा में हलचल मची, लेकिन अखिलेश ने इसे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा करार दिया।

पिछड़े वर्ग से ही ओम प्रकाश राजभर ने भी सपा पर हमला बोला। राजभर, जो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख हैं, 2023 में सपा से अलग होकर एनडीए में शामिल हो गये थे। अगस्त 2025 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजभर ने कहा, अखिलेश पीडीए की बात करते हैं, लेकिन असल में उन्हें धोखा देते हैं।सपा नेता गायत्री प्रजापति, रामकांत यादव जेल में हैं, लेकिन अखिलेश सिर्फ एक जाति को बढ़ावा देते हैं। वे सभी जातियों से वोट लेते हैं, लेकिन इस्तेमाल करते हैं। राजभर ने पीडीए को फर्जी बताया और कहा कि अखिलेश ने कुम्हार समुदाय जैसे छोटे पिछड़ों को कभी महत्व नहीं दिया। राजभर के बयान से सपा में पिछड़ों की नाराजगी उजागर हुई, जो 2025 बाय-इलेक्शन में पार्टी को नुकसान पहुंचा सकती है।

समाजवादी पार्टी में दलित बिरादरी भी असंतोष स्थिति में है। अवधेश प्रसाद, जो समाजवादी पार्टी के आयोध्या से सांसद हैं, के करीबी मोईद खान पर 2024 में एक नाबालिग दलित लड़की से बलात्कार का आरोप लगा। इस घटना ने पीडीए की साख पर सवाल उठाए। दलित नेता और पूर्व समाजवादी सदस्य रामजी लाल सुमन ने कहा कि अखिलेश ने 2012 में 2.5 लाख दलितों को डिमोट किया और 3 लाख बहुजन छात्रों की स्कॉलरशिप रोकी। सपा में दलितों के लिए कुछ नहीं, सिर्फ नाम।सुमन ने राजपूत शासक राणा संगा को गद्दार कहने पर भी अखिलेश की आलोचना की, जो दलित-राजपूत गठजोड़ को तोड़ता है। हाल ही में विधायक पूजा पाल को पार्टी से निकाला गया। पाल ने आरोप लगाया कि अखिलेश परिवारवाद चला रहे हैं, पीडीए सिर्फ दिखावा है। करहल में दलितों पर हमले और सीतापुर में दलित घरों को जलाने की घटनाएं समाजवादी पार्टी शासनकाल की याद दिलाती हैं, जहां दलित अपराध राष्ट्रीय औसत से 5 गुना ज्यादा थे।

अल्पसंख्यकों को छलने का आरोप सबसे गंभीर है। अखिलेश अपने परिवर के अलावा सिर्फ मुस्लिम नेताओं को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन यह भी तुष्टिकरण का खेल है। मुलायम सिंह ने हर थाने में 3-4 मुस्लिम अधिकारी रखने का आदेश दिया, अखिलेश ने मुस्लिम लड़कियों को 20,000 रुपये की योजना चलाई। लेकिन संभल दंगों में सपा सांसद जिया उर रहमान पर आरोप लगा, फिर भी अखिलेश ने दंगाइयों के परिवारों को 5 लाख दिए, जबकि हिंदू पीड़ितों को कुछ नहीं। शैलेश यादव की हत्या पर चुप्पी साधी गई। सपा नेता जैसे जाहिद बैग, साजिद पाशा, मोईन खान पर अल्पसंख्यक समुदाय से ही बलात्कार के आरोप हैं, लेकिन पार्टी उन्हें बचाती है। अखिलेश मस्जिदों में मीटिंग करते हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों को सिर्फ वोट के लिए इस्तेमाल करते हैं, विकास नहीं। 2025 में स्कूल बंदी पर अखिलेश ने पीडीए शिक्षा पर हमला बताया, लेकिन उनके शासन में मुस्लिम क्षेत्रों में भी भ्रष्टाचार था।

अन्य बिरादरियों से भी नेता भागे। अपर्णा यादव (अखिलेश की भाभी) 2022 में बीजेपी में चली गईं, आरोप लगाया कि सपा में महिलाओं और गैर-यादवों की कोई जगह नहीं। विरेंद्र बहादुर पाल पर बलात्कार का केस, रामेश्वर यादव पर जमीन हड़पने का आरोप ये सपा की छवि बिगाड़ते हैं। 2025 में ईडी रेड में सपा से जुड़े कारोबारी से 150 करोड़ मिले, जो उसका भ्रष्टाचार दर्शाता है। कुल मिलाकर, पीडीए अखिलेश के लिए चुनावी हथियार है, लेकिन पार्टी में कलह बढ़ रही है। नेता छोड़ रहे हैं क्योंकि वे महसूस करते हैं कि अखिलेश यादव परिवार और मुस्लिम तुष्टिकरण में उलझे हैं, अन्य बिरादरियों को धोखा दे रहे हैं। अल्पसंख्यकों को भी सिर्फ वोट बैंक बनाया जा रहा है, बिना सच्चे विकास के। अगर यह जारी रहा, तो 2027 विधानसभा में सपा को बड़ा झटका लग सकता है।