दस दिन का अहम

ten days important

डॉ प्रियंका सौरभ

बड़ा भाई छठी कक्षा से ही घर संभालने लगा था। पिता ज़िम्मेदारियों से बचते रहे, तो घर चलाने की जिम्मेदारी उसी पर आ गई। दिन में पढ़ाई और शाम को ट्यूशन पढ़ाकर उसने न केवल अपनी पढ़ाई की, बल्कि छोटे भाई की फीस और बहनों की ज़रूरतें भी पूरी कीं। बहनों के कपड़े, किताबें, दवाई—सब कुछ उसकी कमाई से आता।

समय के साथ बड़ा हुआ, नौकरी मिली तो सबसे पहले घर की जर्जर दीवारें बनवाईं, पक्का मकान खड़ा किया, गाड़ी खरीदी। घर का हर छोटा-बड़ा काम उसकी तनख्वाह और पत्नी के सहयोग से चलता रहा। पत्नी की FD भी परिवार की ज़रूरतों में टूट गई। जब पत्नी की नौकरी लगी, तो उसका वेतन भी घर के खर्चों में लगा दिया गया।

फिर एक दिन छोटा भाई भी नौकरी पर लग गया। बड़े भाई को लगा अब घर का बोझ आधा हो जाएगा। पर कुछ ही दिनों में छोटे के स्वभाव में बदलाव आने लगा। उसने गिनाना शुरू कर दिया—“मैंने इतना दिया, मैंने उतना किया।” अहंकार धीरे-धीरे उसके शब्दों और व्यवहार में उतर आया।

बड़ों ने यह सब देखा, लेकिन चुप रहे। सास-ससुर ने छोटे को कभी नहीं टोका़। बात यहीं तक नहीं रही—गालियाँ देना, अपमानजनक बातें कहना आम हो गया। शादी के बाद तो हालात और बिगड़े। एक दिन छोटा भाई, उसी बड़े भाई का गला पकड़ चुका था, जिसने बचपन से उसे अपने कंधों पर बिठाकर रखा था।

बड़े भाई ने कुछ नहीं कहा। वह बस चुप रहा।

उसके मन में यही चल रहा था—
“सालों का साथ, त्याग और प्रेम… सब कुछ सिर्फ़ दस दिनों के अहम में हार गया।”