
जीएसटी दरों में कटौती जनता के लिए राहत का संकेत है, लेकिन बार-बार बदलते तर्क सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं।
जीएसटी लागू होने के बाद सरकार ने नौ साल तक ऊँची दरों को ज़रूरी बताते हुए उनके फायदे गिनाए। अब दरें घटाने पर वही तर्क उलटे रूप में दिए जा रहे हैं। नवरात्र से लागू होने वाली टैक्स राहत निश्चित रूप से उपभोक्ताओं और व्यापार जगत के लिए सकारात्मक संदेश है, परंतु नीतियों में यह विरोधाभास जनता के विश्वास को कमजोर करता है। टैक्स नीति को राजनीति या त्योहारों से जोड़ने के बजाय दीर्घकालिक दृष्टि से स्थिर और न्यायपूर्ण बनाना ज़रूरी है, ताकि “एक देश, एक टैक्स” की असली भावना सार्थक हो सके।
डॉ सत्यवान सौरभ
भारतीय कर व्यवस्था में वर्ष 2017 से लागू हुआ जीएसटी यानी “गुड्स एंड सर्विस टैक्स” उस समय एक ऐतिहासिक सुधार माना गया था। इसे “एक देश, एक टैक्स” की संकल्पना के रूप में प्रस्तुत किया गया और जनता को विश्वास दिलाया गया कि इससे कर व्यवस्था सरल होगी, भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और व्यापारियों को सुविधा मिलेगी। शुरुआत में ही सरकार और उसके आर्थिक सलाहकारों ने ऊँचे टैक्स की दरों को जायज़ ठहराते हुए बताया था कि यह राष्ट्रहित में है और दीर्घकाल में इससे राजस्व बढ़ेगा, विकास दर तेज़ होगी तथा राज्यों को भी मज़बूती मिलेगी।
लेकिन बीते नौ वर्षों में जनता ने देखा कि जीएसटी का बोझ केवल आम उपभोक्ताओं पर बढ़ता गया। ज़रूरी सामानों से लेकर रोज़मर्रा की वस्तुओं पर टैक्स दरें ऊँची बनी रहीं। महँगाई लगातार बढ़ती रही और हर घर का बजट बिगड़ता गया। व्यापारी समुदाय ने भी कई बार शिकायत की कि जीएसटी की जटिल व्यवस्था और ऊँचे टैक्स स्लैब ने उनके कारोबार को प्रभावित किया। छोटे और मझोले उद्योगों को तो कई बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ी।
अब अचानक वही सरकार यह कह रही है कि जीएसटी की दरें घटाई जाएंगी और इससे जनता को सीधी राहत मिलेगी। नवरात्र के अवसर पर इस घोषणा को “टैक्स राहत की दिवाली” कहा जा रहा है। निश्चित ही यह कदम आम उपभोक्ता के लिए सुकून भरा संदेश है। जूते, कपड़े, टीवी, डीटीएच जैसी वस्तुओं पर टैक्स घटाना हर परिवार को सीधे प्रभावित करेगा। लोग त्योहारों के समय खरीदारी कर पाएंगे और बाज़ार में चहल-पहल बढ़ेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि जो तर्क पहले ऊँचे टैक्स के समर्थन में दिए गए थे, वही तर्क आज घटाने के समर्थन में क्यों दिए जा रहे हैं?
यह विरोधाभास केवल टैक्स दरों तक सीमित नहीं है। यह सरकार की आर्थिक नीतियों की सोच पर भी सवाल खड़े करता है। अगर ऊँचे टैक्स ही विकास का आधार थे, तो नौ साल बाद अचानक उन्हें कम करना कैसे विकास के लिए आवश्यक हो गया? और यदि वास्तव में कम टैक्स से बाज़ार और जनता को राहत मिल सकती है, तो इतने वर्षों तक जनता को ऊँचे टैक्स का बोझ क्यों झेलना पड़ा?
आम नागरिक इन सवालों का जवाब चाहता है। वह देख रहा है कि टैक्स नीतियाँ कई बार राजनीति और चुनावी रणनीतियों से जुड़कर बदल जाती हैं। त्योहारों के अवसर पर टैक्स कटौती की घोषणा निश्चित रूप से लोगों को आकर्षित करती है, लेकिन क्या यह दीर्घकालिक समाधान है? कर नीति को समय-समय पर बदलना और हर बार इसे जनता के हित में बताना, पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है।
आज जब सरकार कहती है कि टैक्स घटाने से अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी, तो यह बात सही भी है। टैक्स बोझ कम होने पर लोगों की क्रयशक्ति बढ़ती है, उपभोग बढ़ता है और बाज़ार में रौनक आती है। इससे उत्पादन बढ़ता है और रोजगार सृजन भी होता है। लेकिन फिर वही प्रश्न—तो इतने वर्षों तक टैक्स ऊँचे रखकर किस उद्देश्य को साधा गया? क्या उस दौरान जनता केवल राजस्व संग्रह की मशीन बनकर रह गई?
सच्चाई यह है कि भारत जैसे विकासशील देश में कर नीति केवल राजस्व जुटाने का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक संतुलन का आधार भी होनी चाहिए। ज़रूरी सामानों और रोज़मर्रा की वस्तुओं पर टैक्स बोझ कम से कम रखा जाना चाहिए ताकि गरीब और मध्यम वर्ग को राहत मिले। जबकि विलासिता की वस्तुओं पर अपेक्षाकृत ऊँचे टैक्स लगाए जा सकते हैं। लेकिन पिछले वर्षों में हमने देखा कि कई बार यह संतुलन बिगड़ गया और आम नागरिक की जेब पर सीधा असर पड़ा।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि टैक्स में राहत से सरकार के राजस्व पर भी असर पड़ता है। जब राजस्व घटता है तो सरकार या तो घाटा बढ़ाती है या फिर कहीं और से वसूली करती है। ऐसे में जनता को राहत वास्तव में कितनी मिलती है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। यदि बिजली, ईंधन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर सीधे या परोक्ष रूप से टैक्स का बोझ बना रहेगा, तो बाकी वस्तुओं पर टैक्स घटाने का असर सीमित ही होगा।
जीएसटी के नाम पर जिस “एक देश, एक टैक्स” का सपना दिखाया गया था, वह आज भी अधूरा है। अलग-अलग वस्तुओं पर अलग-अलग स्लैब, राज्यों की शिकायतें, जटिल रिटर्न फाइलिंग और बार-बार नियमों का बदलना, ये सब मिलकर इसे जटिल बनाते रहे हैं। अब जबकि टैक्स दरों को घटाने का निर्णय लिया गया है, तो ज़रूरत इस बात की है कि इसे केवल त्योहारों तक सीमित राहत न बनाया जाए, बल्कि पूरी व्यवस्था को स्थिर और संतुलित बनाया जाए।
सरकार को चाहिए कि वह टैक्स नीतियों को राजनीति से ऊपर उठाकर, दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टि से तय करे। लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि टैक्स वास्तव में राष्ट्र निर्माण में उनका योगदान है, न कि केवल बोझ। इसके लिए आवश्यक है कि टैक्स से मिलने वाले राजस्व का सही और पारदर्शी उपयोग हो। यदि जनता देखेगी कि उसके द्वारा दिए गए टैक्स का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आधारभूत संरचना पर हो रहा है, तो वह टैक्स चुकाने में संकोच नहीं करेगी।
आज की टैक्स राहत का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठाना ज़रूरी है कि क्या यह केवल तात्कालिक आकर्षण है या फिर एक दीर्घकालिक सुधार की शुरुआत। जीएसटी जैसे बड़े सुधार को राजनीति और चुनावी लाभ से जोड़कर देखने के बजाय इसे जनता और अर्थव्यवस्था के वास्तविक हित में आगे बढ़ाना होगा। तभी वास्तव में “टैक्स राहत की दिवाली” हर नागरिक के जीवन में रोशनी ला सकेगी।