तीन साल और तीन पड़ोसी देशों में उथल-पुथल- कुछ कहता है यह पैटर्न

Three years and turmoil in three neighbouring countries - this pattern tells us something

पड़ोस की उथल-पुथल भारत के लिए चेतावनी भी है और अवसर भी। चेतावनी इसलिए कि अस्थिरता का धुंआ हमेशा हमारी ओर भी आएगा और अवसर इसलिए कि सक्रिय पड़ोसी नीति से भारत न सिर्फ़ अपने रिश्तों को मज़बूत कर सकता है बल्कि पूरे क्षेत्र की स्थिरता में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है।

राजेश जैन

पिछले तीन साल में दक्षिण एशिया ने तीन बड़े राजनीतिक संकट देखे—2022 में श्रीलंका, 2024 में बांग्लादेश और 2025 में नेपाल। तीनों जगह हालात इतने बिगड़े कि सत्ता पलट गई और शीर्ष नेता देश छोड़कर भागे। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा बार-बार क्यों हो रहा है? क्या यह महज़ संयोग है या फिर एक गहरा पैटर्न बन रहा है?

नेपाल: सोशल मीडिया बैन और जेन-ज़ी विद्रोह

नेपाल में हाल ही में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और एक्स जैसी 26 अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों पर बैन लगा दिया। चीन के करीबी एप्स—जैसे टिकटॉक—को छूट मिली। यह फैसला सीधे चीन के प्रति झुकाव और अमेरिकी कंपनियों के विरोध का संकेत माना गया। नेपाल में पहले से ही बेरोजगारी ऊंची थी—2024 की रिपोर्ट के मुताबिक युवा बेरोजगारी दर लगभग 18% थी। इस माहौल में सोशल मीडिया बैन ने आग में घी का काम किया। आंदोलन सोशल मीडिया से शुरू होकर सड़कों पर उतर आया। संसद, राष्ट्रपति भवन और पीएम आवास तक भीड़ पहुंची और अंततः ओली को इस्तीफा देकर हेलिकॉप्टर से भागना पड़ा।

बांग्लादेश: छात्रों की ‘जुलाई क्रांति’

2024 में बांग्लादेश में हाईकोर्ट ने सरकारी नौकरियों में 30% कोटा लागू करने का आदेश दिया। यह फैसला युवाओं को भड़काने वाला साबित हुआ। आंदोलन स्टूडेंट्स अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन के बैनर तले शुरू हुआ। बांग्लादेश में बेरोजगारी दर लगभग 12% है और हर साल लाखों नए ग्रेजुएट नौकरी की तलाश में निकलते हैं। कोटा फैसले ने उनकी उम्मीदें तोड़ीं। सरकार ने लाठीचार्ज और इंटरनेट शटडाउन किया, जिससे हालात और बिगड़े। जुलाई से अगस्त के बीच झड़पों में सैकड़ों लोग मारे गए। आखिरकार 5 अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस्तीफा देकर भारत शरण लेनी पड़ी। सेना प्रमुख ने अंतरिम सरकार बनाई और नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस को सलाहकार नियुक्त किया। यह आंदोलन सिर्फ रोजगार नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन तक पहुंचा।

श्रीलंका संकट तख्तापलट

2022 में श्रीलंका का संकट सबसे गहरा था। देश पर 51 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज़ था। विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया और महंगाई 34% तक पहुंच गई। 63 लाख लोग खाने की कमी से जूझ रहे थे। 31 मार्च को राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के घर के बाहर आंदोलन शुरू हुआ। सरकार ने सोशल मीडिया बैन किया, लेकिन प्रदर्शन और फैल गए। जुलाई तक हजारों लोगों ने राष्ट्रपति भवन और पीएम आवास पर धावा बोला। राजपक्षे देश छोड़कर भागे और बाद में सिंगापुर से ई-मेल के जरिए इस्तीफा दिया। महीनों की खींचतान के बाद नई सरकार बनी।

एक जैसा पैटर्न कैसे बन रहा

तीनों देशों की घटनाओं में एक स्पष्ट पैटर्न उभरता है—युवा वर्ग में नाराज़गी थी और उन्होंने आंदोलन की शुरुआत की। संवाद की जगह दमन चुना गया, जिससे गुस्सा और बढ़ा। विदेशी दबाव और हस्तक्षेप रहा। अमेरिका और चीन जैसे देशों ने दोनों ने मौकों का फायदा उठाने की कोशिश की और तीनों देशों में नेताओं का पलायन करना पड़ा।

क्या विदेशी ताकतें शामिल हैं?

हर बार जब छोटे देशों में बड़ा आंदोलन होता है, तो सवाल उठता है—क्या इसमें बाहरी हाथ है? हां, सही है। बाहरी ताकतें मौके का फायदा उठाती हैं और आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय रंग देने की कोशिश करती हैं। बांग्लादेश में शेख हसीना ने आरोप लगाया था कि अमेरिका उन पर दबाव डाल रहा था। नेपाल में भी कहा गया कि अमेरिका ने जेन-ज़ी आंदोलन को सपोर्ट दिया। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार मानते हैं कि अमेरिका और चीन दोनों ही इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। नेपाल के मामले में ओली की चीन-निकटता और अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों पर बैन से यह साफ दिखा। हालांकि सच यह भी है कि जनता के भीतर असंतोष न हो, तो कोई भी विदेशी ताकत आंदोलन को हवा नहीं दे सकती। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और जनता की उम्मीदों को नजरअंदाज करना ही इसका असली कारण हैं।

भारत के लिए सबक

भारत के पड़ोस में बार-बार हो रहे राजनीतिक उथल-पुथल को हल्के में नहीं लिया जा सकता। अस्थिरता से न सिर्फ सुरक्षा बल्कि आर्थिक और कूटनीतिक रिश्तों पर भी असर पड़ता है। पाकिस्तान में सेना का नियंत्रण, अफगानिस्तान में तालिबान, म्यांमार में गृहयुद्ध और अब नेपाल की स्थिति यह बताती है कि पूरा दक्षिण एशिया उथल-पुथल में है। भारत को चाहिए कि वह पड़ोसियों में लोकतंत्र और स्थिरता को मजबूत करने के प्रयास करे। क्योंकि अगर पड़ोस में आग लगी होगी, तो धुआं हमारे घर तक भी आएगा।

पड़ोस में अराजकता हो तो हम भी आगे नहीं बढ़ सकते

भारत इस संकट को चिंता के साथ देख रहा है। पड़ोस में ऐसे किसी भी संकट का स्वाभाविक ही भारत पर भी असर होता है। यह दो बड़े खतरे पैदा करते हैं। पहला, सुरक्षा से जुड़े संकट। शरणार्थी सीमा पार करके आ सकते हैं, चरमपंथी सुरक्षित जगह ढूंढ सकते हैं और अशांत लोग सीमावर्ती राज्यों में अव्यवस्था फैला सकते हैं। दूसरा खतरा है -आर्थिक दबाव। समृद्ध देश अकसर समूह में विकास करते हैं- युद्ध के बाद का यूरोप, नॉर्डिक देश या आसियान इसका उदाहरण हैं। कारण, पड़ोस में स्थिरता से स्थिर सीमाएं बनती हैं, जिससे सरकारें व्यापार, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास पर ध्यान दे पाती हैं। जबकि अशांति से भरा पड़ोस हमेशा एक बाधा साबित होता है। भारत को यह बात हाल के कड़वे अनुभवों से समझ में आ रही है। भारत फिलहाल तो स्थिति पर नजर रखे हुए है। अमेरिका के उलट, भारत अपने पड़ोसियों की घरेलू राजनीति में दखल नहीं देता। लेकिन यह उसकी उदासीनता नहीं है। जब भी जरूरत पड़ी है, भारत ने पड़ोसियों की मदद की है। हमने पूर्वी पाकिस्तान को आजादी दिलाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया। नेपाल में संविधान परिवर्तन के दौरान हमने सुझाव दिए। श्रीलंका के आर्थिक संकट के समय अरबों डॉलर की मदद दी। नेपाल में बढ़ती अराजकता के चलते भारत के लिए तीन प्राथमिकताएं सामने आ रही हैं। पहली, रिफ्यूजियों की घुसपैठ रोकना। दूसरी, नेपाल की स्थिरता के लिए मदद करना। और तीसरी, लोकतांत्रिक मजबूती को बढ़ावा देना।