
सुनील कुमार महला
हाल ही में भारतीय संसद की संचार और सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसमें फर्जी खबरों (फेक न्यूज) के प्रसार को लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सार्वजनिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बताया गया है। फेक न्यूज़ का मतलब है-जानबूझकर गढ़ी गई, झूठी या भ्रामक खबरें, जिन्हें इस तरह पेश किया जाता है कि वे सच जैसी लगें। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था, समुदाय, विचारधारा या राजनीतिक एजेंडे को लाभ पहुँचाना, भ्रम फैलाना, या जनमत को प्रभावित करना होता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमारे देश में फेक न्यूज़ की समस्या एक बहुत बड़ी और गंभीर समस्या है। फेक न्यूज़ की विशेषता यह होती है इसमें अक्सर झूठे और ग़लत तथ्य होते हैं तथा इसमें जानकारी या सूचनाएं वास्तविकता पर आधारित नहीं होती। खबरों को अक्सर तोड़-मरोड़ कर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी न्यूज में अक्सर भावनाओं को भड़काने का काम किया जाता है और आम आदमी में डर, नफरत, सनसनी या घृणा फैलाई जाती है,जो देश और समाज के लिए घातक सिद्ध होती है। आज सोशल नेटवर्किंग साइट्स, ए आइ का जमाना है और इस युग में सोशल मीडिया, व्हाट्सएप, फेसबुक, यूट्यूब आदि के माध्यम से फेक न्यूज़ बहुत तेजी से आम लोगों तक पहुँचती है।राजनीतिक लाभ, आर्थिक फायदा, गलत प्रचार, किसी व्यक्ति या समूह को बदनाम करना आदि फेक न्यूज़ का उद्देश्य हो सकता है। बहरहाल, यहां यह गौरतलब है कि समिति ने इस समस्या(फेक न्यूज)से निपटने के लिए कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। पाठकों को बताता चलूं कि समिति ने सरकार से फर्जी खबरों की स्पष्ट कानूनी परिभाषा तय करने की मांग की है, ताकि इसके दुरुपयोग को रोका जा सके। समिति ने मौजूदा दंडात्मक प्रावधानों में संशोधन, जुर्माने की राशि में वृद्धि और जवाबदेही तय करने की सिफारिश की है। यहां तक कि सभी प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संगठनों में अनिवार्य रूप से तथ्य-जांच तंत्र और आंतरिक लोकपाल की नियुक्ति की सिफारिश की है। संपादकों, सामग्री प्रमुखों, मालिकों और प्रकाशकों को संपादकीय नियंत्रण के लिए और प्लेटफार्मों को फर्जी खबरों के प्रसार के लिए जवाबदेह ठहराने की आवश्यकता बताई गई है। सरकारी, निजी और स्वतंत्र तथ्य-जांचकर्ताओं के बीच सहयोगात्मक प्रयासों की सिफारिश की गई है। इतना ही नहीं, समिति ने ए.आई. के दुरुपयोग और महिलाओं तथा बच्चों से संबंधित फर्जी खबरों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता जताई है। समिति की रिपोर्ट को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है और इसे लोकसभा अध्यक्ष को सौंपा गया है। अगले संसद सत्र में इसे प्रस्तुत किए जाने की संभावना है। उल्लेखनीय है कि समिति के अध्यक्ष, भाजपा सांसद ने इस संबंध में यह बात कही है कि भारत को बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका या थाईलैंड जैसा नहीं बनने देंगे, और जो लोग देश विरोधी ताकतों का एजेंडा चला रहे हैं, उन पर लगाम लगाई जाएगी। वास्तव में, यह पहल फर्जी खबरों के प्रभावी नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण कदम है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखने में सहायक होगी। बहरहाल, समिति का यह मानना है कि फर्जी खबरें फैलाने वालों के खिलाफ सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। इसके साथ ही इन पर प्रतिबंध भी जरूरी है। गौरतलब है कि इन दिनों नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध को लेकर घमासान मचा हुआ है। दरअसल, नेपाल सरकार ने 4 सितंबर 2025 को 26 प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स—जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, एक्स (पूर्व में ट्विटर), और यूट्यूब—पर प्रतिबंध लगा दिया था। सरकार का इस संबंध में यह कहना था कि ये कंपनियां पंजीकरण(रजिस्ट्रेशन) में विफल रही हैं, लेकिन युवाओं ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता(फ्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन) पर हमला मानते हुए विरोध प्रदर्शन शुरू किया। विरोध प्रदर्शन में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पों में 19 लोगों की मौत हो गई और 100 से अधिक लोग घायल हो गए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार काठमांडू और पोखरा में सरकारी इमारतों, पुलिस स्टेशनों, और नेताओं के घरों में आगजनी की गई और 13,500 से अधिक कैदी जेलों से फरार हो गए। हिंसा के बढ़ने के बाद, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया तथा नेपाल सेना ने काठमांडू में कर्फ्यू लागू किया और प्रमुख सरकारी इमारतों की सुरक्षा बढ़ा दी। बहरहाल , कहना ग़लत नहीं होगा कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के कारण युवाओं ने सरकार के खिलाफ गुस्से का इज़हार किया। प्रदर्शनकारियों ने नेताओं के आलीशान जीवनशैली की तुलना आम लोगों की कठिनाइयों से की, जिससे आक्रोश और बढ़ा। हालांकि, सरकार ने प्रतिबंध हटा लिया है, लेकिन विरोध प्रदर्शन जारी है।कांतिपुर मीडिया समूह के कार्यालयों में आगजनी की गई, क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने मीडिया को सरकार का पक्षधर मानते हुए हमला किया। इसके बावजूद, पत्रकारों ने अपने घरों से अखबार प्रकाशित किए, जिससे प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा की।नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने युवाओं को सशक्त किया, लेकिन इसके परिणामस्वरूप हिंसा, राजनीतिक अस्थिरता, और सामाजिक तनाव बढ़ा है। बहरहाल, यहां इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि नेपाल में विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व ‘जेन जी’ कर रहा है। यह युवाओं का एक ऐसा समूह है, जो पिछले कुछ समय से भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहा है। इस समूह ने पिछले दिनों सोशल मीडिया के जरिए सरकार के मंत्रियों और अन्य प्रभावशाली हस्तियों के बच्चों की फिजूलखर्ची तथा उनकी जीवनशैली को लेकर गंभीर सवाल उठाए थे। दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने के सरकार के फैसले को अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी के साथ-साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज को दबाने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। इसमें दोराय नहीं कि किसी भी देश में अभिव्यक्ति की आजादी हर हाल में होनी चाहिए, लेकिन क्या हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ ही इसका एकमात्र समाधान है? बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल की सरकार और युवा वर्ग देश एवं समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे और माहौल का शांत कर बातचीत की राह पर लौटेंगे। अंत में यही कहूंगा कि यह ठीक है कि प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र की रीढ़ है, परंतु फेक न्यूज़ पर लगाम उससे भी अधिक आवश्यक है, ताकि सूचना विश्वसनीय और समाज जागरूक बना रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेस की स्वतंत्रता हर लोकतांत्रिक देश की पहचान है। एक स्वतंत्र मीडिया समाज को सही जानकारी देती है, यह भ्रष्टाचार उजागर करती है और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करती है। यही वजह है कि प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ या वाच डॉग कहा जाता है ।आज के इस डिजिटल युग में फेक न्यूज़ या झूठी खबरें समाज में भ्रम, नफरत और तनाव पैदा कर देती हैं। कभी-कभी यह हिंसा, घृणा और अविश्वास का कारण बन जाती हैं। इसलिए यह बहुत ही जरूरी व आवश्यक है कि प्रेस की स्वतंत्रता के साथ-साथ जिम्मेदारी भी बढ़े। वास्तव में, मीडिया को तथ्यों की पुष्टि कर ही समाचार प्रकाशित करना चाहिए। वहीं, नागरिकों को भी सावधानी बरतनी चाहिए और किसी भी खबर को बिना जांचे साझा नहीं करना चाहिए।स्वतंत्र प्रेस और सच की रक्षा-दोनों साथ चलें तभी समाज और देश मजबूत, जागरूक और प्रगतिशील बन सकता है। फेक न्यूज़ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक गंभीर और बड़ा खतरा है।