असीम ऊर्जा की प्रतीक देवी दुर्गा

Goddess Durga, the symbol of infinite energy

प्रमोद भार्गव

भारत में देवी की पूजा वैदिक युग में ही आरंभ हो गई थी। ऋग्वेद के देवी सूक्तम में सभी देवताओं की आंतरिक षक्ति की बात कही गई है, जो ऊर्जा की प्रतीक है। हरिवंष पुराण में कालरात्रि, निद्रा और योगमाया के समन्वित रूपों के बारे में बताया है कि जब भगवान विश्णु नींद में होते हैं, तब देवी दुर्गा ही विष्व की सुरक्षा करती हैं। इसीलिए देवी कालरात्रि की काया का रंग घने अंधकार की तरह काला है और सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला डली है। इनकी तीन आंखें हैं। तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सामान अंडाकार हैं। इन चक्षुओं से तीव्र विद्युत की किरणें निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं। जो अक्षय ऊर्जा की द्योतक हैं। यही ऊर्जा सृश्टि में फैली हुई है। इसी ऊर्जा में भगवान षिव का अर्धनारीष्वर रूप दृश्टिगोचर होता रहता है। इस रूप के स्त्री रूप से आषय विज्ञान सम्मत मानव संरचना में एक्स तत्व से है और पुरुश रूप में वाय तत्व से है। अर्थात यह रूप स्त्री-पुरुश में समानता जताता है। भारतीय वांग्मय में काम-ऊर्जा को सबसे षक्तिषाली ऊर्जा माना गया। इसीलिए पुरुश में जब वाय गुणसूत्र की अधिकता होती है तो पुरुश और स्त्रीयोचित्त गुण एक्स की अधिक्ता होती है तो स्त्री का जन्म होता है।

दैवीय षाक्तियां वे हैं, जो मनुश्य के अनुकूल हैं, अर्थात फलदायी हैं और आसुरी षाक्तियां वे हैं, जो मनुश्य के प्रतिकूल हैं, अर्थात उसे हानि पहुंचाने में समर्थ हैं। नवरात्रों का आयोजन दो ऋतुओं की परिवर्तन की जिस वेला में होता है, वह इस बात का द्योतक है कि जीवन में बदलाव की स्वीकार्यता अनिवार्य है। नवरात्रों का आयोजन अष्विन मास के षुक्ल पक्ष में किया जाता है। षुक्ल पक्ष घटते अंधकार या अज्ञान का प्रतीक है, वहीं कृश्ण पक्ष बढ़ते अंधकार और अज्ञान का प्रतीक है। प्रति माह उत्सर्जित और विलोपित होने वाले यही दोनों पक्ष जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष की प्रवृत्तियां हैं। प्रकृति से लेकर जीवन में हर जगह अंतर्विरोध व्याप्त है। इन्हीं विरोधाभासी पक्षों में सांमजस्य बिठाने का काम दुर्गा के बहुआयामी रूप करते हैं।

मार्कंडेय पुराण में प्रकाष और ऊर्जा के बारे में कहा गया है कि ‘देवों ने एक प्रकाष पुंज देखा, जो एक विषाल पर्वत के समान प्रदीप्त था। उसकी लपटों से समूचा आकाष भर गया था। फिर यह प्रकाष पंुज एक पिंड में बदलता चला गया, जो एक षरीर के रूप में अस्तित्व में आया। फिर वह कालांतर में एक स्त्री के षरीर के रूप में आष्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हो गया। इससे प्रस्फुटित हो रही किरणों ने तीनों लोकों को आलोकित कर दिया। प्रकाष और ऊर्जा का यही समन्वित रूप आदि षक्ति या आदि मां कहलाईं। छान्दोग्य उपनिशद् में कहा गया है कि ‘अव्यक्त से उत्पन्न तीन तत्वों अग्नि, जल और पृथ्वी के तीन रंग सारी वस्तुओं में अंतर्निहित हैं। अतः यही सृश्टि और जीवन के मूल तत्व हैं। अतएव प्रकृति की यही ऊर्जा जीवन के जन्म और उसकी गति का मुख्य आधार है।‘

इस अवधारणा से जो देवी प्रकट होती है, वही देवी महिशासुरमर्दिनी है। इसे ही पुराणों में ब्रह्मांड की मां कहा गया है। इसके भीतर सौंदर्य और भव्यता, प्रज्ञा और षौर्य, मृदुलता और षांति विद्यमान हैं। चरित्र के इन्हीं उदात्त तत्वों से फूटती ऊर्जा इस देवी के चेहरे को प्रगल्भ बनाए रखने का काम करती है। ऋशियों ने इसे ही स्त्री की नैसर्गिक आदि षक्ति माना है और फिर इसी का दुर्गा के नाना रूपों में मानवीकरण किया है। उपनिशदों में इन्हीं विविध रूपों को महामाया, योगमाया और योगनिद्रा के नामों से चित्रित व रेखांकित किया गया। इनमें भी महामाया को ईष्वर या प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता मानकर विद्या एवं अविद्या में विभाजित किया गया है। विद्या व्यक्ति में आनंद का अनुभव कराती है, जबकि अविद्या सांसरिक इच्छाओं और मोह के जंजाल में जकड़ती है। विद्या को ही योगमाया या योगनिद्रा के नामों से जाना जाता है।

योगमाया सृश्टि की वैष्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि योगनिद्रा सृश्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अंधकार के क्षेत्र में प्रवेष को दर्षाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंततः यही आदि षक्तियां क्षीर सागर में षेशषैया पर लेटे भगवान नारायण, नरायाण यानी जल में निवास करने वाले विश्णु को चेताती है कि समाधि के षून्य-भाव से जागों और अंधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्मांड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएं सत्व, रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृश्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती हैं। इसीलिए देवी को आद्य या असाधारण षक्ति कहा गया है। विष्व की इस जननी के बिना षिव भी ‘षव‘ मात्र हैं।

जब ब्रह्मांड र्में उऊा का विघटन होता है तो आसुरी षक्तियां जागृत हो जाती हैं। ऊर्जा जब अव्यवस्थित हो जाती है, तब ध्वंसात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। आज विध्वंसकारी वैज्ञानिक प्रयोगों के चलते दुनियाभर में ऊर्जा का ध्वंसात्मक रूप दिखाई दे रहा है। अराजक बनता यही परिवेष नकारात्मक यानी आसुरी ऊर्जा को बढ़ाता है। इस ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम ब्रह्मा, विश्णु, महेष करते हैं। देवी महात्म्य में कहा भी गया है कि देव और असुरों के बीच जब महायुद्ध हुआ तो वह सौ दिन तक चला। इस समय राक्षस महिश असुरों का राजा था और इंद्र देवताओं के अधिपति थे। इस संघर्श में असुरों ने देवताओं का परास्त कर दिया। फलतः महिश देवों का भी सम्राट बन बैठा।

पराजित देवता प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में विश्णु व षिव के पास गए। उन्होंने युद्ध और फिर पराजय का दुखद वृत्तांत विश्णु व षिव को सुनाया। इसे सुनकर दोनों आक्रोष से लाल हो गए। विश्णु ने मुख खोला और उससे तीव्र गति से अक्षय ऊर्जा बाहर आई। ऐसा ही रोश ब्रह्मा और षिव ने ऊर्जा के रूप में मुख से प्रकट किया। इंद्र के षरीर से भी ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ। अन्य देवों ने भी अपने-अपने मुखों से ऊर्जा छोड़ी। ऊर्जा के इस प्रवाह से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होने लग गई। मुखों से उत्सर्जित इन ऊर्जा रूपी लपटों ने एक पर्वत का आकार ग्रहण कर लिया। इसी पर्वत से कात्यायनी प्रकट हुईं। दुर्गा का यही रूप महिशासुरमर्दिनी कहलाया।

लीला भाव में यही दुर्गा चार पैरों के राजा सिंह की पीठ से टिककर खड़ी हैं। सिंह भी क्रूर षक्ति का प्रतीक है, लेकिन उसे वष में कर लिया गया है। देवी अराजक महिश के षरीर को रौंद रही हैं। उनका एक पैर असुर के सिर पर है। महिश षक्तिषाली तो है, लेकिन उसका आचरण क्रूर है, इसलिए वह ब्रह्मांड के आध्यात्मिक आधार के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि कात्यायनी महिश को पददलित कर उसके अहंकार को चूर-चूर कर देती हैं। महिश के प्राण हरने के बाद कात्यायनी महिशासुर-मर्दिनी कहलाती हैं। इसीलिए इन्हें ब्रह्मांड की जननी कहा गया, जो पृथ्वी की प्रतीक है। ब्रह्मांड के अस्तित्व का यही बीज है। प्रकृति के इन्हीं रूपों का मानवीकरण करते हुए ऋग्वेद में कहा है कि ‘ज्ञान के सभी विशय और क्रियाकलाप अंततः देवी के रूप हैं।‘ सृश्टि सृजन के आरंभ से लेकर अब तक नारियां मां का रूप हैं। नारी के मातृत्व की डिंब में स्थित इस ऊर्जा को प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं विभाजित करके मानव के अस्तित्व को सृजित किया था। वह नारी ही है, जो अपनी ऊर्जा से मनुश्य को मनुश्यतत्व प्रदान करती है। साफ है, भगवती दुर्गा मूल प्रकृति का वह रूप है, जिसमें समस्त षक्तियां समाहित हैं।