दक्षिण कें अभिनेता विजय थलापथि की चुनावी रैली में भगदड़

Stampede at South actor Vijay Thalapathy's election rally

नेता हादसों से मुक्ति के लिए इंटरनेट पर दें भाषण

प्रमोद भार्गव

आजकल परिवर्तन की लहर जैन जी या जनरेशन जेड के जरिए देखने में आ रही है। लाखों लोग एक संदेश से तय स्थल पर पहुंच रहे हैं। लेकिन भारतीय राजनेताओं को किसी स्थल के चयन की भी जरूरत नहीं है। वे अपने घर या दफ्तर से इंटरनेट से चलने वाले सोशल मीडिया पर अपनी बात उसी अंदाज में कह सकते हैं, जो मंच से कहते हैं। यदि हमारे नेता ऐसा करने लग जाएं तो तमिलनाडु के करूर में हुए हादसे से बचा जा सकता था। दक्षिण के लोकप्रिय अभिनेता से नेता बने विजय थलापथि की पहचान और प्रसिद्धि भी मंचों से भाशण देने की बजाय फिल्मों और डिजिटल मीडिया से पूरे देष में बनी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेडियो के माध्यम से मन की बात कार्यक्रम की प्रस्तुति देते हैं। देष के कोने-कोने में इसके श्रोता कई करोड़ की संख्या में होते हैं।

विजय एक चुनावी रैली को बस की छत पर खड़े होकर संबोधित कर रहे थे। उम्मीद थी कि दस हजार की संख्या में लोग आएंगे, लेकिन पहुंच गए पचास हजार से भी ज्यादा। प्रषासन से भी दस हजार लोगों के पहुंचने की अनुमति दी गई थी। चूंकि पूरे दक्षिण भारत में अभिनेताओं का दर्जा भगवान का रहा है। फलस्वरूप अपने प्रिय नायक को सुनने से कहीं ज्यादा देखने के लिए लोग पहुंच गए। सभास्थल के आसपास की सड़के भीड़ से जाम हो गई। सांस लेना तक कठिन हो गया। यह स्थिति इस कारण और बनी, क्योंकि विजय सभास्थल पर छह घंटे से भी अधिक की देरी से पहुंचे। उनके पहुंचते ही लोग मंच की तरफ बढ़ने लगे। इसी बीच एक नो साल की बच्ची के गुम होने की खबर फैल गई। विजय ने उसे ढूंढने की अपील मंच से की और भगदड़ मच गई। इस भगदड़ में महिला व बच्चों समेत 39 लोगों की मृत्यु की खबर है।

विजय थलापथि ने 2 फरवरी 2024 को टीवीके नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन किया है। उन्होंने 2026 के तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है। इसके चलते विजय राज्यभर में आमसभाएं कर रहे हैं। इसका उद्देष्य जनता को पार्टी के अजेंडे और विचारधारा से अवगत कराना है। इन सभाओं में वे स्वयं को सत्तारूढ़ दल डीएमके के सबसे प्रमुख विरोधी की छवि गढ़ने में लगे हैं। तमिलनाडू की राजनीति में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का जबरदस्त प्रभाव रहा है। वही मुख्यमंत्री बनते रहे है। इसका आरंभ एमजी रामचंद्रन ने 1972 में अपनी पार्टी अन्ना द्रविड मुनेत्र कड़गम किया था। उन्हें बड़ी सफलता मिली और वे राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। जे जयललिता भी 1982 में इस पार्टी में शामिल हो गई। लेकिन बाद में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और मुख्यमंत्री बनीं। 2008 में चिरंजीवी ने अपनी प्रजा राज्यम पार्टी की स्थापना की। इसी वर्श पवन कल्याण ने जनाषन पार्टी बनाई। लेकिन ये अभिनेता कमाल नहीं दिखा पाए। अब विजय इसी परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे है। उन्हें कितनी सफलता मिली है, यह 2026 में साफ होगा।

भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह््रै। यही स्थिति राजनेताओं की सभाओं में देखने में आ रही है। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल देखने में आ रहा है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ? अतएव देखने में आता है कि आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते हैं।

जरूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित किया जाता है। फलतः जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ जाता है कि सारे रास्ते पैदल भीड़ से जाम हो जाते हैं। विजय को देखने जो भीड़ उमड़ी थी, उसके अवागमन के प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत थी, उसके प्रति घटना से पूर्व सर्तकता बरतने की जरूरत थी ? इसके प्रति प्रबंधन अदूरदर्शी रहा। क्योंकि सभी रास्ते विजय के सभास्थल पर आने से पहले ही ठसाठस भर गए थे। भीड़ प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से लेते हैं। जो भारतीय मेलों और जनसभाओं के परिप्रेक्ष्य में कतई प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेश मुहूर्त्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरूपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।

दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुश्ठान अशक्त और अपंग मनुश्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढ़कर उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूर्त की शुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिश्क में हृस हो जाता है तो मानव समुदाय भजन-र्कीतन में लग जाता है। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं, जनसभाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर और नेता से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं। नेता बने विजय भी सभाओं में अपी पार्टी की लोक-कल्याणकारी सुधार योजनाएं बताने के लिए पहुंच रहे हैं। जिससे चुनाव से पहले तय हो जाए कि जनता को ज्यादा लाभ देने में कौन सक्षम है।

राजनीतिक दल और नेताओं को अपनी विचारधारा आमजन तक पहुंचना जरूरी है। लेकिन बदलते तकनीकि समय में जरूरी है कि नेता और दल प्रचार के तरीकों में बदलाव लाएं। क्योंकि जिस 1997 से 2012 के बीच जन्मीं पीढ़ी को डिजिटल दुनिया और सोषल मिडिया का अनुगामी माना जा रहा है, उस तक अपनी बात पहुंचाने के लिए विषाल जनसभाओं की जरूरत नहीं रह गई है। इन्हीं माध्यमों से नेता या युग प्रवर्तक अपनी बात बड़े जनसमुदाय तक पहुंचा सकते हैं। यही नहीं जो पीढ़ी उम्रदराज है, वह भी नेताओं की बात घर बैठे टीवी और डिजिटल माध्यमों के जरिए सरलता से सुन व देख सकती है। यदि नेता की बात में सरल जीवन जीने के लाभदायी तरीके होंगे, तो जनता उनका अनुकरण करेगी अन्यथा नाकार देगी। अतएव आम सभाओं में संदेश देने की बजाय डिजिटल माध्यमों से संदेष का प्रसारण राजनेता आरंभ कर दें तो लोगों के बेमौत मारे जाने का सिलसिला थम जाएगा।