बुजुर्गों के प्रति हृदय में हर पल हो सम्मान का भाव

There should always be a sense of respect for the elders in the heart.

योगेश कुमार गोयल

भारतीय संस्कृति में सदा से ही बड़ों के आदर-सम्मान की परम्परा रही है लेकिन आज दुनिया के अन्य देशों सहित हमारे देश में भी वृद्धजनों पर बढ़ते अत्याचारों की खबरें समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गई हैं। अधिकांश परिवारों में वृद्ध जिस तरह की उपेक्षा झेलने को मजबूर हैं, उससे ज्यादा पीड़ादायक और क्या हो सकता है! समृद्ध परिवार होने के बावजूद घर के बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में जीवनयापन करने को विवश हैं। बहुत से मामलों में बच्चे ही उन्हें बोझ मानकर वृद्धाश्रमों में छोड़ आते देते हैं। हालांकि यह उम्र का ऐसा पड़ाव होता है, जब उन्हें परिजनों के अपनेपन, प्यार और सम्मान की सर्वाधिक जरूरत होती है। एक व्यक्ति जिस घर-परिवार को बनाने में अपनी पूरी जिंदगी खपा देता है, वृद्धावस्था में जब उसी घर में उसे अवांछित वस्तु के रूप में देखा जाने लगता है तो लगता है जैसे उस घर में रहने वालों की इंसानियत और उनके संस्कार मर चुके हैं।

विश्वभर में ऐसे हालात को देखते हुए ही वृद्धजनों के लिए कुछ कल्याणकारी कदम उठाने की जरूरत महसूस हुई थी। इसीलिए वर्ष 1982 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने ‘वृद्धावस्था को सुखी बनाइए’ जैसा नारा देते हुए ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ अभियान का शुरू किया था। वृद्धों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने और वृद्धजनों के प्रति उदारता व उनकी देखभाल की जिम्मेदारी के अलावा उनकी समस्याओं के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र ने 14 दिसंबर 1990 को निर्णय लिया कि प्रतिवर्ष एक अक्तूबर का दिन दुनियाभर में ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र की इस पहल के बाद एक अक्तूबर 1991 को पहली बार यह दिवस मनाया गया, जिसे ‘अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस’ के नाम से भी जाना जाता है। बुजुर्गों के प्रति वैसे तो सभी के हृदय में हर पल, हर दिन सम्मान का भाव होना चाहिए लेकिन दिल में छिपे इस सम्मान को व्यक्त करने के लिए औपचारिक तौर पर यह दिन निश्चित किया गया। 1991 में अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस की शुरूआत के बाद वर्ष 1999 को पहली बार ‘बुजुर्ग वर्ष’ के रूप में भी मनाया गया था। इस वर्ष ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ ‘स्थानीय और वैश्विक कार्रवाई को आगे बढ़ाने वाले वृद्धजन : हमारी आकांक्षाएं, हमारा कल्याण, हमारे अधिकार’ विषय के साथ मनाया जा रहा है। यह विषय लचीले और समतामूलक समाजों के निर्माण, अंतर-पीढ़ीगत एकजुटता को बढ़ावा देने तथा वृद्ध लोगों के अधिकारों और कल्याण को नीति और कार्रवाई का केंद्र बनाने में वृद्धों की परिवर्तनकारी भूमिका पर जोर देता है।

भारतीय समाज में सयुंक्त परिवार को हमेशा से अहमियत दी गई है लेकिन आज के बदलते परिवेश में छोटे और एकल परिवार की चाहत में संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म होती जा रही है। यही कारण है कि लोग अपने बुजुर्गों से दूर होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार से वंचित होती जा रही है। एकल परिवार के बढ़ते चलन के कारण ही परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा होने लगी है। न चाहते हुए भी बुजुर्ग अकेले रहने को मजबूर हैं। इसका एक गंभीर परिणाम यह देखने को मिला है कि बुजुर्गों के प्रति अपराध भी तेजी से बढ़े हैं। शहरों-महानगरों में आए दिन बुजुर्गों को निशाना बनाए जाने की खबरें दहला देती हैं। दूसरा गंभीर परिणाम यह कि बच्चों को बड़े-बुजुर्गों का सानिध्य नहीं मिलने के कारण उनके जीवन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। एक सर्वे के अनुसार दादा-दादी या नाना-नानी के साथ रहने वाले बच्चों का विकास अकेले रहने वाले बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा अच्छा और मजबूत होता है और ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास भी अधिक देखने को मिला है। आज पति-पत्नी दोनों ही कामकाजी हैं, ऐसे में बच्चे घर में अकेले रहते हैं और कम उम्र में ही उनमें अवसाद जैसी समस्याएं पनपने लगती हैं।

वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने हालांकि वर्ष 1999 में एक राष्ट्रीय नीति बनाई थी तथा उससे पहले वर्ष 2007 में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक भी संसद में पारित किया गया था, जिसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का प्रावधान था लेकिन इसके बावजूद देशभर में वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस तथ्य को इंगित करती है कि भारतीय समाज में वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। कुछ समय पहले 96 देशों में कराए गए एक सर्वे के बाद ‘ग्लोबल एज वॉच इंडेक्स’ जारी किया गया था। उस सूचकांक के मुताबिक करीब 44 फीसदी बुजुर्गों का मानना था कि उनके साथ सार्वजनिक स्थानों पर दुर्व्यवहार किया जाता है जबकि 53 फीसदी बुजुर्गों का कहना था कि समाज उनके साथ भेदभाव करता है।

भारतीय संस्कृति में जन्म देने वाली मां और पालन करने वाले पिता का स्थान ईश्वर से भी ऊंचा माना गया है। सदियों से मान्यता रही है कि जिन घरों में बुजुर्गों का सम्मान होता है, वे तीर्थस्थल से कम नहीं होते। ऐसे में वृद्धों के उत्पीड़न और उपेक्षा की घटनाएं बढ़ना गंभीर संकट का संकेत है। दरअसल वृद्धावस्था हर व्यक्ति के जीवन का एक पड़ाव है। यदि आज हम अपने बुजुर्गों की उपेक्षा करते हैं तो आने वाले समय में हमें भी अपने बच्चों से कोई अच्छी उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। वृद्धावस्था में बुजुर्ग शारीरिक रूप से शिथिल भी हो जाएं तो परिजनों का कर्त्तव्य है कि पूरे सम्मान के साथ उनका ध्यान रखा जाए। वृद्धावस्था में शारीरिक स्थिति में बदलव आना सामान्य बात है। बुजुर्गों में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, याद्दाश्त कमजोर पड़ने, भूलने जैसी समस्याएं आमतौर पर देखी जाती हैं लेकिन दवाओं के साथ-साथ परिजनों के अच्छे व्यवहार की मदद से ऐसी समस्याओं को कम करने में मदद मिल सकती है।

आर्थिक समस्या से जूझते वृद्धों के लिए लगभग सभी पश्चिमी देशों में पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था है। भारत में भी वृद्धावस्था पेंशन की सुविधा है लेकिन उनके सामने स्वास्थ्य समस्याओं के अलावा अकेलेपन की जो समस्या है, उसका इलाज नहीं है। यह अकेलापन वृद्धजनों को भीतर ही भीतर सालता रहता है। हालांकि 70 वर्ष या उससे अधिक आयु के सभी वर्गों के लोगों को आयुष्मान भारत योजना में शामिल करने का निर्णय निश्चित रूप से वृद्धजनों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाएगा और इससे देश में करीब साढ़े चार करोड़ पर‍िवारों को लाभ होने की उम्‍मीद है लेकिन बुजुर्गों के मामले में कई बार चिंताजनक स्थिति यह होती है कि बीमारी के समय में भी सांत्वना देने वाला उनका कोई अपना उनके पास नहीं होता। हालांकि आज कुछ ऐसी संस्थाएं हैं, जो एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे वृद्धों के लिए निस्वार्थ भाव से काम कर रही हैं लेकिन ये संस्थाएं भी अपनों की महसूस होती कमी की भरपाई तो नहीं कर सकती। बहरहाल, वृद्धजनों को अपने परिवार में भरपूर मान-सम्मान मिले, इसके लिए सामाजिक जागरूकता जैसी पहल की सख्त दरकार है ताकि वृद्धों के प्रति परिजनों की सोच सकारात्मक होने से बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम जैसे स्थानों की समाज में आवश्यकता ही महसूस नहीं हो।