रावण तो हर साल जल जाएगा पर समाज में छद्म भेष में रह रहे रावणों का क्या होगा ?

Ravana will be burnt every year but what will happen to the Ravanas living in disguise in the society?

अशोक भाटिया

भगवान राम के अयोध्या आगमन का आह्लाद और देवों को भयमुक्त करने की अलौकिक कथाएं जुड़ी हैं विजयदशमी से। बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहनकर हम मनाते हैं विजयदशमी पर मन में हर साल यह प्रश्न उमड़ता-घुमरता रहता है कि क्या हमारे हृदय में भी राम-रावण के संघर्ष की परिणति इसी रूप में हो जाती है।

राम और रावण भारतीय इतिहास के, धार्मिक मान्यताओं के बहुचॢचत चरित्र हैं। दोनों प्रकांड विद्वान, दोनों महायोद्धा पर एक को हमने भगवान के रूप में पूजा तो दूसरा आसुरी शक्ति का प्रतीक बना। त्रेता युग में राम ने रावण का वध किया था। उसके बाद से आज तक हम विजयदशमी पर प्रत्येक वर्ष रावण वध की परंपरा का निर्वाह करते हैं पर क्या वाकई आसुरी शक्तियों का विनाश अब तक हो पाया है, शायद नहीं।

दरअसल कलयुग में रावण पुतला मात्र नहीं है। रावण तो प्रतीक है आसुरी शक्तियों का। वह जो प्रकांड विद्वान और महायोद्धा होकर सम्मान का पात्र नहीं बन सका। वह जो इंद्रिय सुख के लिए पर स्त्री की ओर नजरें उठाता है। वह जो सत्ता भोगने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है जो अहंकारी है जो क्रोधी है और जो कई चेहरे रखता है।

सच पूछिए तो न राम केवल किताबों और मंदिरों में हैं और न रावण केवल पुतलों और आख्यानों में, बल्कि दोनों हमारे आसपास हैं। हमारे परिवेश में हैं, दोनों हमारे भीतर हैं। यही कारण है कि विजयदशमी पर हर साल हम खुद को राम मानते हुए रावण वध तो कर देते हैं पर आसुरी शक्तियां खत्म नहीं हो पाती हैैं। ऐसे में दरकार है कि हम अपने अंदर के दशानन की पहचान करें और आत्ममंथन करें कि कहीं हमारे मन के किसी कोने में तो रावण नहीं छिपा है। इसलिए प्रतिदिन दिल से गुनगुनाएं कि अपने भीतर है जो इंसान बचाकर रखना/ रोज काम आता है भगवान बचाकर रखना….

कहा जाता है कि रावण का क्रोध और अहंकार ही उसके विनाश का कारण बना। कागज-काठ के पुतले तो हम हर साल जलाते हैं पर अपने अहंकार को खुद ही पोषित करते रहते हैं। क्रोध पर नियंत्रण कहां कर पाते हैं। इस विजयदशमी पर इनका समूल नाश करने के लिए एक कोशिश तो कीजिए, मन मंदिर में राम विराजेंगे और हम भी सगर्व शंखनाद कर सकेंगे, वैसे ही जैसे किसी शायर ने कहा है- साल पूछे अगर कोई कह दें, आज मारा है रावण ए मगरूर।

राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था/दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था। परत दर परत चेहरों में कहां रावण छिपा है, आज पहचानना मुश्किल है। अगर हम हकीकत में अपने भीतर ईमानदारी से झांके, तब भी तो यही हाल दिखता है। बेटा फोन आए तो कह देना मम्मी घर पर नहीं हैं। घर पर रहने के बावजूद ऐसा कहकर बच्चों को क्या संदेश देना चाहती हैं आप। पारदर्शिता का खोना विश्वसनीयता का खोना है। राम के मंदिर में हम दीप जरूर जलाएंगे पर दरकार इस बार अपने मन मंदिर में भी सत्य का दीप जलाने की है अर्थात कथनी और करनी में फर्क मिटाने की है।

मेहनत, लंबे शोध का नतीजा जो तकनीक सुविधा के रूप में हमें प्राप्त है, उसका भी सदुपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा होता है।

कागज और लकड़ी से बने रावण के पुतले का हर साल दहन होता है पर सीता मैया अब तक सुरक्षित नहीं हैैं। नेशनल क्राइम रिकाड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक पूरे देश में वर्ष 2020 में प्रतिदिन औसत दुष्कर्म के 77 मामले दर्ज किए गए। देश में राजस्थान में ऐसे मामले सबसे अधिक (5310) दर्ज किए गए। उत्तर प्रदेश इस कलंक में दूसरे स्थान पर भागी रहा तो महाराष्ट्र और असम क्रमश: तीसरे और चौथे नंबर पर। देहरी के बाहर ही नहीं, भीतर भी यही हाल है। एक कवि के शब्दों में लक्ष्मण रेखा भी आखिर क्या कर लेगी/ सारे रावण घर के अंदर…। रिश्ते कलंकित हो रहे हैैं। यह भी एक गंभीर मसला है। शाम ढलने के बाद बेटी घर आई या नहीं, यह तो हम देखते हैं पर बेटा कहां शाम गुलजार कर रहा है। अधिकतर हम इससे अनभिज्ञ ही रहते हैं। सही विजयदशमी तभी होगी, जब देहरी के भीतर और बाहर दोनों जगह सीता महफूज रहें।

बेशक रावण परिवेश और हमारे मन में दिख सकता है पर यह भी सच है कि मन के किसी कोने में राम भी विराजमान हैं। राम हैं यानी उम्मीद है, आशा है, विश्वास है। इसी कारण तमाम बुराइयों के बाद भी भीतर-बाहर की लड़ाई बरकरार है। ऐसे में बस यह दरकार है कि इस शुभ मौके पर हम दशानन की पहचान करें और भीतर हो या बाहर उसे परास्त करने का प्रयास करें, क्योंकि किसी कवि ने सही कहा है देख तज के पाप रावण/ राम तेरे मन में हैं/ राम तो घर घर में हैं/ राम हर आंगन में हैं/ मन से रावण जो निकाले / राम उसके मन में हैं….

हमारे कर्म राक्षसी, प्रवृत्ति दंभी व व्यभिचारिणी, विवेक सुप्त, निष्ठा संकीर्ण, क्षुद्र व स्वार्थी और संस्कार यदि दूषित हैं तो धर्म, जाति, कुल, प्रतिष्ठा, मान्यता व राजयोग हमारे भीतर के रावण को अधिक समय तक समाज की नजरों से छिपाए नहीं रख सकते। इसीलिए आज हमें चारों ओर रावण ही रावण नजर आ रहे हैं। हम इन रावणों के पुतलों का दहन तो कर देते हैं, लेकिन रावणी प्रवृत्ति का दहन करने का हौसला आज तक हममें नहीं। हम रावण के इसी रूप से पाठकों को परिचित करा रहे हैं।

विजयदशमी के दिन हम हर साल धूमधाम से बुराई एवं असत्य के प्रतीक रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि के पुतले जलाते हैं। समाज से बुराइयों को खत्म करने और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों पर चलने का भावनात्मक संकल्प लेते हैं। बावजूद इसके सवाल वहीं का वहीं है कि क्या हम वास्तव में रावण का अंत कर पाए। क्या रावण हमारे अंदर नहीं है। सच तो ये है कि रावण आज चप्पे-चप्पे में मौजूद है। वह पारिवारिक रिश्तों में भी है और सामाजिक जिम्मेदारियों में भी। कला, संस्कृति, साहित्य, शिक्षा व कानून-व्यवस्था में भी रावण के दर्शन किए जा सकते हैं। बल्कि, अब तो न्याय भी इसकी छाप लिए होने का आभास देता है। बस! हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं या यूं कह लीजिए की पहचानना ही नहीं चाहते।

विचार कीजिए, यदि मुखौटों के भीतर छिपे रावण को हम पहचानेंगे नहीं तो उसे मार कैसे पाएंगे। क्या अपने अंदर बैठे रावण से दो-दो हाथ किए बिना हमें चारों ओर फैले पड़े रावणों से कभी मुक्ति मिल पाएगी।देवाधिदेव भगवान शंकर के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित, सप्तऋषियों में से एक पुलस्त्य का पौत्र, महापंडित विश्रवा का पुत्र रावण ऋषिकुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस केरूप में ही याद किया जाता है।

यह कर्मों की गति ही तो है। आज रावण संज्ञा नहीं, संज्ञेय है, परिभाष्य है। वह मात्र एक पात्र नहीं, चरित्र है। महज स्त्रीहर्ता नहीं, सुसंस्कार द्रोही है। घटना नहीं, परंपरा है और इसीलिए एकल नहीं, बहुल है, सर्वत्र है। घूसखोर, बेईमान, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, दंभी, क्रोधी, स्वार्थी, संस्कारहीन, विवेक सुप्त आदि सभी रावण के ही तो प्रतिरूप हैं। यदि तात्कालिक स्वार्थों में अंधे होकर हम इन रावणों को पहचान नहीं रहे या पहचानते हुए इस ओर आंखें मूंदे हुए हैं तो प्रकारांतर से यह एक और रावण के भ्रूण विकास की सूचना ही तो है। अगर आदमीयत, समाज एवं राष्ट्र की शुचिता की कोई अहमियत हमारे भीतर है तो इन बालिग-नाबालिग व गर्भस्थ रावणों को पहचानने के लिए अपनी क्षमता का विकास करना हमारा नैसर्गिक ही नहीं, नैतिक दायित्व भी है।

रावण तो तीनों लोकों की सत्ता हासिल करने का भ्रम पाले बैठा था । अलग-अलग रूप और अपने-अपने दायरे में वह स्वयं को त्रिलोकपति समझने लगा था । इसलिए वह स्वयं को सामाजिक विधानों से ऊपर मानता था । हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ नहीं मालूम कि रावण दशानन है। उसके दस चेहरे हैं। राम प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि वह कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब ही अनेक है, क्योंकि दस से बड़ी कोई संख्या नहीं। दस आखिरी संख्या है और इसके आगे हम मनचाही संख्या जोड़ सकते हैं। रावण असुर है और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी दशानन की तरह बहुत सारे चेहरे होते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या है। इस स्थिति में अपने भीतर मौजूद दशानन को हम कैसे जलाएं। ऐसा तो रावण को नकारने पर ही संभव हो पाएगा। …और इसके लिए हमें रावण के अस्तित्व को नकारने का शुतुरमुर्गी तरीका अपनाने की जगह उसकी आंखों में आंखें डालकर उसे ही सच्चाई का दर्पण दिखाना होगा। हमें समाज में छद्म भेष में रह रहे रावणों का का अंत करना होगा तभी हमारा विजय दशमी का उत्सव सार्थक होगा ।