बिहार में चुनाव के आगाज के साथ दलबदल का दौर जोरो पर

With the start of elections in Bihar, the wave of defections is in full swing

अशोक भाटिया

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच एक बड़ी खबर आई है। बिहार में मतदाता सूची का विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बाद नई सूची मंगलवार को जारी होने के साथ भारत निर्वाचन आयोग ने चुनावी तैयारियों को अंतिम रूप देने के लिए 4 और 5 अक्टूबर 2025 को बिहार का दौरा करने का फैसला किया है। चुनाव आयोग का यह दौरा यह संकेत देता है कि बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा अब कभी भी हो सकती है। माना जा रहा है कि 6 अक्टूबर के बाद राज्य में आचार संहिता लागू होने की पूरी संभावना है।

राजनैतिक हलचल बढ़ने के साथ राज्य में पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय जनता दल अपने महागठबंधन या इंडिया ब्लॉक और जनता दल यूनाईटेड अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ आमने-सामने हैं। मुख्य मुकाबला इन्हीं दोनों विपक्ष और सत्ता पक्ष के गठबंधनों के बीच होना है। इसके अलावा कई छोटे दल भी चुनाव लड़ने जा रहे हैं। इन दलों की तादाद बहुत है। प्रमुख पार्टियों समेत करीब 200 छोटे दल यह चुनाव लड़ने जा रहे हैं। इसके अलावा कम से कम 6 ऐसे दल हैं जो पहली बार बिहार का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। इनमें पूर्व चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की नवगठित राजनीतिक दल ‘ जन सुराज पार्टी ‘ भी शामिल है। इन नए दलों की चुनाव में मौजूदगी का कुछ असर चुनावी नतीजों पर नजर आ सकता है। चुनाव आयोग ने हाल ही में बिहार के 17 पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को अपनी लिस्ट से हटा दिया, लेकिन अब 6 नए दल चुनाव मैदान में आ चुके हैं। अनुमान है कि बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव में 200 से अधिक पार्टियां चुनाव मैदान में होंगी। बिहार में रजिस्टर्ड पार्टियों की तादाद 184 है। राज्य के पिछले विधानसभा चुनाव में छह राष्ट्रीय दल और चार राज्य स्तरीय पार्टियां थीं। राज्य का चुनाव कुल 212 राजनीतिक पार्टियों ने लड़ा था।

दलों की संख्या बढ़ने के साथ राजनीतिक गलियारों में सबसे ज़्यादा चर्चा इस बात की है कि नेता अब रंग बदलने लगे हैं। यानी एक दल से दूसरे दल में जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। यह परंपरा हर चुनाव में देखने को मिलती है, लेकिन इस बार इसकी रफ्तार पहले से कहीं ज़्यादा है। शुरुआत बेगूसराय की राजनीति से। यहां के कद्दावर नेता और मटिहानी के पूर्व विधायक बोगो सिंह ने राष्ट्रीय जनता दल का दामन थाम लिया है।

बोगो सिंह का क्षेत्रीय प्रभाव बड़ा माना जाता है और उनके RJD में जाने से पार्टी को संगठनात्मक मज़बूती मिलेगी। बोगो सिंह ने साल 2005 में हुए दोनों विधानसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीतकर राजनीतिक हलचल मचाई थी। इसके बाद वे जदयू से 2010 और 2015 में विजयी हुए। 2020 में लोजपा के राजकुमार सिंह से उन्हें नजदीकी हार मिली। लेकिन अब राजकुमार सिंह जदयू में शामिल हो चुके हैं। ऐसे में इस बार चुनाव से पहले बोगो सिंह राजद में शामिल हो चुके हैं। मतलब साफ है कि मटिहानी में बोगो सिंह आरजेडी से चुनावी मैदान में उतरेंगे।

बोगो सिंह के अलावा भी तेजस्वी यादव के साथ भाजपा के कई पूर्व विधायकों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। जिसमें कैमूर के चैनपुर के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री बृज किशोर बिन्द और मोहनियां के पूर्व विधायक निरंजन राम हैं। इन दोनों ने भी भाजपा को अलविदा कहकर तेजस्वी के नेतृत्व में आरजेडी का दामन थाम लिया है।

हाल के दिनों में अन्य पार्टियों से पाला बदलने वाले नेताओं की लिस्ट देखें तो डॉ . अच्युतानंद ने 30 जून को लोजपा (रामविलास) से इस्तीफा देकर कांग्रेस जॉइन कर लिया। वह महनार से चुनाव लड़ना चाहते हैं और उन्हें आशंका थी कि राम सिंह की मौजूदगी में उन्हें टिकट नहीं मिलेगा।डॉ रेणु कुशवाहा, पूर्व मंत्री, पहले जदयू, फिर भाजपा और लोजपा में रहीं। अब वे राजद के साथ हैं, जहां उन्हें उम्मीद है कि नई राजनीति में उन्हें जगह मिलेगी।रामचंद्र सदा, जो 2010 में विधायक थे, टिकट कटने के बाद लोजपा चले गए थे। अब फिर जदयू में वापस लौट आए हैं।विनोद कुमार सिंह, जदयू एमएलसी रह चुके नेता, अब कांग्रेस के टिकट पर फुलपरास से चुनाव लड़ना चाहते हैं।डॉ अशोक राम, कांग्रेस से छह बार विधायक और पूर्व मंत्री, अब जदयू में। हालांकि वह जिस सीट (कुशेश्वरस्थान) से लड़ना चाहते हैं, वह पहले से जदयू के कब्जे में है।डॉ रविंद्र चरण यादव, पूर्व मंत्री, 4 अगस्त को भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए हैं।

नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इस पूरे घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि नेताओं का दल बदलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन इसमें एक फर्क है जो नेता भाजपा की विचारधारा और उनकी सांस्कृतिक सोच से ताल्लुक रखते हैं, वे वहीं जाएंगे। जबकि सामाजिक न्याय और समता की विचारधारा वाले लोग राजद और महागठबंधन से जुड़ेंगे। तेजस्वी का कहना है कि नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जदयू अब ढलान पर है और आने वाले दिनों में उसका खात्मा तय है।तेजस्वी का यह बयान सिर्फ एक टिप्पणी नहीं बल्कि चुनावी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। वे लगातार इस नैरेटिव को मज़बूत करने में लगे हैं कि नीतीश कुमार अब जनता के बीच भरोसे की राजनीति नहीं बचा पाएंगे।

जदयू की ओर से प्रवक्ता अभिषेक झा ने इस पूरे घटनाक्रम पर पलटवार करते हुए कहा कि किसी के आने या जाने से पार्टी पर कोई असर नहीं पड़ता। चुनाव के पहले यह सामान्य प्रक्रिया है। उन्होंने दावा किया कि जनता दल यूनाइटेड का संगठन मज़बूत है और जनता नीतीश कुमार पर भरोसा करती है।जदयू की यह प्रतिक्रिया उस दबाव को कम करने की कोशिश लगती है, जो नेताओं के पलायन से पैदा हो रहा है। पर सवाल यह है कि क्या वाकई नेताओं का जाना सिर्फ प्राकृतिक प्रक्रिया है या यह अंदरूनी असंतोष का नतीजा है?

भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रवक्ता प्रभाकर मिश्रा ने भी बयान दिया। उन्होंने कहा कि ऐसे लोग, जिनका पार्टी में कोई खास काम नहीं है, वही दूसरी पार्टी का दामन थामते हैं। भाजपा का संगठन इतना बड़ा और मज़बूत है कि कुछ नेताओं के जाने से पार्टी या चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।भाजपा की रणनीति साफ दिखती है। वह इस मुद्दे को हल्का करने की कोशिश कर रही है ताकि कार्यकर्ताओं में कोई नकारात्मक संदेश न जाए।

कांग्रेस प्रवक्ता स्नेहाशीष वर्धन ने इस घटनाक्रम को लेकर बड़ा दावा करते हुए कहा कि अभी तो शुरुआत है, आने वाले दिनों में सत्ता पक्ष से कई बड़े नेता महागठबंधन में शामिल होंगे। उनका कहना है कि क्योंकि सत्ता पक्ष को साफ दिख रहा है कि महागठबंधन की सरकार बनने वाली है, इसलिए वे धीरे-धीरे इधर का रुख करेंगे।कांग्रेस का यह बयान महागठबंधन की ओर आत्मविश्वास को दर्शाता है। साथ ही, यह जनता के बीच यह संदेश देने की भी कोशिश है कि सत्ता बदलना अब तय है।

देखा जाय तो बिहार की राजनीति में दल बदलने का सिलसिला नया नहीं है। हर चुनाव में ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब नेता पाला बदलकर दूसरे खेमे में चले जाते हैं। इसके पीछे कई वजहें होती हैं जैसे 1. टिकट की गारंटी: जिन नेताओं को अपनी पार्टी से टिकट मिलने की संभावना कम लगती है, वे विपक्षी खेमे में जाकर बेहतर मौका तलाशते हैं।2. सत्ता समीकरण: चुनाव से पहले हवा किस तरफ बह रही है, इसका आकलन हर नेता करता है। जहां सत्ता की संभावना ज़्यादा लगती है, वहां जाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।3 .असंतोष और उपेक्षा: कई बार नेता अपनी पार्टी की नीतियों या नेतृत्व से असंतुष्ट होते हैं। ऐसे में वे दूसरी पार्टी में सम्मान और भूमिका तलाशते हैं।4। क्षेत्रीय समीकरण: बिहार की राजनीति में जातीय और क्षेत्रीय समीकरण अहम भूमिका निभाते हैं। नेता अक्सर इस आधार पर दल बदलते हैं।

अब बड़ा सवाल यह है कि नेताओं के इस दलबदल के खेल से फायदा किसे होगा और नुकसान किसे। राजद और महागठबंधन को इसका सीधा फायदा होता दिख रहा है। क्योंकि जो नेता सत्तारूढ़ दल से निकलकर आ रहे हैं, वे एक राजनीतिक संदेश दे रहे हैं कि सत्ता पक्ष में विश्वास कम हो रहा है।बताया जाता है कि जदयू और भाजपा को नुकसान हो सकता है, खासकर वहां जहां से उनके स्थानीय नेता विपक्ष में चले जाते हैं। इससे जमीनी स्तर पर संगठन कमजोर पड़ सकता है।कांग्रेस को उम्मीद है कि जैसे-जैसे और नेता शामिल होंगे, उसकी ताकत बढ़ेगी और उसे विधानसभा चुनाव में पहले से बेहतर प्रदर्शन करने का मौका मिलेगा।

आम मतदाता अक्सर इस तरह के घटनाक्रम को संदेह की नज़र से देखता है। जनता के बीच यह संदेश भी जाता है कि नेता विचारधारा से ज़्यादा सत्ता की राजनीति से प्रेरित होते हैं। हालांकि, अगर बड़े और प्रभावशाली नेता दल बदलते हैं, तो उसका असर स्थानीय स्तर पर वोटों के ट्रांसफर में दिख सकता है।फिलहाल बिहार की राजनीति में माहौल गर्म है। एक ओर सत्ता पक्ष दल बदल को स्वाभाविक बता रहा है, वहीं विपक्ष इसे जमीन बदलने वाली राजनीति करार देकर माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है।लेकिन बड़ा सवाल अभी भी वही है किसके पाले में कितना फायदा और किसके पाले में कितना नुकसान होगा? इसका जवाब जनता होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में देगी। तब तक राजनीतिक गलियारों में रंग बदलने का यह खेल और तेज़ होने वाला है।