मन के रावण को जलाएं

Burn the Ravana in your mind

मुनीष भाटिया

आज समाज में चहुँ ओर हिंसा, अराजकता व झूठ का बोलबाला है। प्रत्येक वर्ष कागज़ के पुतले फूंक कर बुराई की इति श्री के मिथ्या भ्रम में ही उलझे रहते हैं और अपने अन्दर छिपी बुराइयों को नजरंदाज कर देते हैं I समाज की प्रत्येक इकाई से गिर रहे नैतिकता के स्तर के लिए जितना जिम्मेदार हमारे समाज की रचना है उससे कहीं अधिक जिम्मेदार व्यक्ति विशेष हैं। आज यह मानवीय प्रवृत्ति हो चुकी है कि हम दूसरे के दोषों की चर्चा तो खूब करते हैं किन्तु अपनी गलतियों पर पर्दा डाल लेते हैं। दूसरों के दोष तो हमें नजर आ जाते हैं किन्तु स्वयं का बड़े से बड़ा अपराध का भी हम आत्मनिरीक्षण करने की कोशिश तक नहीं करते। आज के गिरते मानवीय जीवन चरित्र को देखते हुए यह धारणा प्रबल हो चली है कि ‘दोस पराए देखि करि चला हसंत-हसंत’ अर्थात् यह मनुष्‍य का स्‍वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देखकर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत I दूसरों के प्रति अपने दुर्व्यवहार व अपने दोषों अनुसार सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में कबीर द्वारा कही गई वाणी अपने याद न आवई जाको आदि न अंत’ यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आत्म निरीक्षण व आत्म विश्लेषण कर अपनी गलतियों को सुधारने की बजाए हम अपने विवेक दर्पण में वही सब कुछ देखना चाहते हैं जैसा हमारा मन करता है। कबूतर की तरह आँख मूंदे रहने की भावना ने समाज को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है। राजनीतिक रूप से बदले की भावना इतनी प्रबल हो चली है कि नैतिकता के सभी आयाम को चुनौतियां दी जा रही हैं I

निज की स्वस्थ आलोचना कर व अपने गुण दोषों को हम देखना भी नहीं चाहते। यही कारण है कि सामाजिक अपराधों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। समाज की प्रथम इकाई अर्थात परिवारों में जहाँ घरेलू अपराध होते हैं व महिलाओं का शोषण होता है। वहीं दहेज, यौन उत्पीड़न की घटनाएं यह सोचने को विवश करती हैं कि आखिर नियति हमारे समाज को किस दिशा की ओर ले जाना चाहती है। कहावत है जैसा राजा वैसी प्रजा अर्थात जैसा शासन तंत्र व उससे जुड़े लोग होंगे वैसे ही जनता का आचार व्यवहार होगा। भारतीय शासन तंत्र में बैठे शीर्ष नेताओं में आत्म निरीक्षण का अभाव और प्रतिशोध की भावना के घर करने के कारण ही भारतीय समाज में अपराधों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।

आज देश में हिंसा, बलात्कार व अपहरण आम बात हो गई है। सात साल की बच्ची से लेकर सत्तर साल की वृद्धा तक का यौन शोषण हो रहा है। शासन तंत्र से उपजे अपराधों का ही सिलसिला है कि राजनीतिक स्वार्थवश एक महिला को बेरहमी से कत्ल कर तंदूर में जलाने का कुत्सित प्रयास होता है वहीं दूसरी विदेशी पर्यटक महिला से बलात्कार की कोशिश होती है। अतः जहाँ एक और आवश्यकता है कानून को समान रूप से लागू करने की, साथ ही जरूरी है कि शीर्ष पदों पर आसीन जन प्रतिनिधियों में आत्मनिरीक्षण की भावना जाग्रत हो सके । इसके लिए समाज की प्रथम इकाई से शुरुआत करनी होगी। बापू गांधी ने अपने आख्यानों में बार-बार दोहराया है -अपने को देखो। अर्थात् अपना मानस मंथन कर निज के गुण, दोषों की परख करो। उन्होंने आत्मविश्लेषण को ऐसा अचूक अस्त्र बतलाया है जिससे न केवल दोषों का निवारण होता है बल्कि इससे सत्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है। जिससे मन ना तो बुराइयों की ओर आकर्षित होता है और न ही किसी का बुरा करने के बारे में सोचता है।यदि इस तरह आत्म नियंत्रण की भावना, प्रत्येक व्यक्ति में आ जाए तो निश्चित ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के पावन उद्देश्य की प्राप्ति संभव है।