रामलीला में लालाओं की लीला : जब रावण भी हैरान हो उठा

The play of Lalas in Ramlila: When even Ravana was surprised

“दिल्ली के लालकिले की रामलीला ,संस्कृति की आड़ में स्वार्थ,सत्ता, रुतबा का नाटक। लालकिले की रामलीला में केवल पुतला न जलाएँ, बल्कि उस व्यवस्था को भी जलाएँ जो रावण से भी भयावह है।”

विनोद कुमार सिंह

दिल्ली का ऐतिहासिक लाल किला, जहाँ कभी स्वतंत्रता की पहली पुकार गूँजी और जहाँ प्रधानमंत्री हर 15 अगस्त को राष्ट्र को संबोधित करते हैं, हर वर्ष भव्य रामलीला का मंच सजाता है। ध्वनि, प्रकाश और आतिशबाज़ी के बीच रामायण का मंचन होता है और अंत में रावण का विशाल पुतला दहन कर बुराई के अंत का संदेश दिया जाता है।लेकिन दुखद सच्चाई यह है कि मंच पर बैठे सफेदपोश नेता, व्यापारी और अधिकारी न तो राम के आदर्शों पर खरे हैं, न सीता की मर्यादा का सम्मान करते हैं, और न ही हनुमान की निष्ठा या लक्ष्मण की अनुशासनशीलता को जीते हैं। विडंबना यह है कि वे रावण जैसे विद्वान भी नहीं हैं, क्योंकि रावण जितना ही घमंडी था, उतना ही ज्ञानी और तपस्वी भी। आज मंच पर बैठे लोग केवल “लाला” हैं, जो स्वार्थ और सत्ता के बाजार में व्यापारी बने हैं।

रावण दहन का दृश्य-शाम का समय…ऐतिहासिक लाल किले का भव्य प्रांगण।हजारों दर्शकों का समुद्र उमड़ा है। बच्चे गुब्बारे लिए, महिलाएँ और युवतियाँ संगीत पर नृत्य कर रही हैं, और युवा हर क्षण को मोबाइल में कैद कर रहे हैं। मंच पर राम, लक्ष्मण और हनुमान बने कलाकार सुसज्जित खड़े हैं। सामने 70–80 फुट ऊँचा रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले आसमान छू रहे हैं। पटाखों से सजाया गया रावण अपने अंतिम क्षण का प्रतीक्षा कर रहा है—जब “राम”अपने धनुष से अग्निबाण छोड़ेंगे।ज्यों ही अग्निबाण निकलता है, आतिशबाज़ी की गड़गड़ाहट होती है। रावण की मूँछें जलने लगती हैं, उसका पेट धमाके से फटता है,और पूरा पुतला धधक उठता है। भीड़ तालियों से गूँज जाती है—“जय श्री राम! जय श्री राम!”,लेकिन इस उत्सव के बीच एक गहरा क्षोभ जन्म लेता है। अग्निबाण छोड़ने वाले हाथ किसी मर्यादा-पुरुषोत्तम के नहीं, बल्कि स्वार्थ और भ्रष्टाचार में लथपथ सफेदपोशों के होते हैं। रावण जल रहा है, लेकिन असली रावण—भ्रष्टाचार, महँगाई,राजनीति का नाटक और सांस्कृतिक प्रदूषण—ठीक मंच पर मुस्करा रहा है।

रावण दहन के बाद : अव्यवस्था -रावण का पुतला धधक कर राख हो चुका है।भीड़ तितर-बितर होने लगती है।जहाँ कुछ देर पहले “मर्यादा” और “धर्म” का जयघोष था, वहाँ अब: कचरे के ढेर—प्लास्टिक की बोतलें, गुटखा-पैकेट, डिस्पोज़ल प्लेटें हर तरफ बिखरी पड़ी हैं।ट्रैफिक जाम— सैकड़ों गाड़ियाँ, हॉर्न की कानफोड़ू आवाज़ें, बच्चों की चीखें, और लोगों की झुंझलाहट।सरकारी महकमें, पुलिस और सुरक्षाकर्मी— वीआईपी वाहनों को निकालने में व्यस्त,आम जनता की परेशानी से बेखबर।यह दृश्य अन्दर तक झकझोर देता है। क्या यही बुराई पर अच्छाई की विजय है? या यह केवल “तमाशा” है,जहाँ दिखावे की आग जलती है, और असल जीवन में अव्यवस्था और अन्याय और भी गहरा जाता है?रामलीला आयोजनों में सरकारें मदद देती हैं—हजारों यूनिट बिजली मुफ्त, भारी पुलिस बंदोबस्त, प्रशासन और नगर निगम का सहयोग। यह सब जनता के करों से होता है, लेकिन असल फायदा नेताओं और व्यापारियों को। जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में राहत नहीं मिलती, लेकिन “ वीआई पी रामलीला” के नाम पर करोड़ों की चमक-दमक जरूर दिखती है।आयोजक दर्शकों को खींचने के लिए फिल्मी सितारों और विवादित हस्तियों को मंच पर बुलाते हैं। पूनम पांडे जैसी हस्तियों का नाम जुड़ना केवल आस्था का मजाक नहीं, बल्कि सीता की मर्यादा पर चोट है। विडंबना यह है कि जहाँ एक ओर सीता हरण का मंचन होता है, वहीं दूसरी ओर नारी-सम्मान को तार-तार करने वाली प्रवृत्तियों को बुलाकर तमाशा बनाया जाता है।

युवाओं का मोहभंग—जब वे देखते हैं कि रामलीला नेताओं और व्यापारियों की दुकान बन गई है, तो उनकी आस्था डगमगाती है।रामलीला केवल धार्मिक आयोजन नहीं,बल्कि सांस्कृतिक एकता का धड़कता हृदय है।रावण का पुतला जलाना आसान है।असली चुनौती है -अपने भीतर और समाज–व्यवस्था में बसे रावण को जलाना।हमें अपने जीवन और व्यवस्था में छिपे भ्रष्टाचार,लोभ, सत्ता-लालसा, अन्याय और आडंबर के रावण को भी अग्निबाण से भस्म करना होगा।अन्यथा इतिहास हमें याद दिलाएगा“ उन्होंने हर साल रावण जलाया, लेकिन असली रावण को ताज पहनाकर मंच पर बैठा दिया।”

रामलीला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं,बल्कि समाज को मर्यादा, त्याग और धर्म की शिक्षा देना है।यदि यह मंच सत्ता,स्वार्थ और बाजार का अड्डा बन जाए, तो यह हमारी संस्कृति और राष्ट्र की आत्मा दोनों के लिए खतरे की घंटी है।