मिलावटी भोजन: भारतीय समाज की सेहत पर संकट

Adulterated Food: A Threat to the Health of Indian Society

मुनीष भाटिया

आधुनिक भारत का जीवन तेज़ रफ़्तार से बदल रहा है।महानगरों से लेकर छोटे कस्बों तक, अब हर गली-मोहल्ले में फास्ट फूड और स्ट्रीट फूड का जाल बिछ चुका है। कॉलेज के बाहर चाट-पकौड़ी, दफ़्तरों के आसपास बर्गर-नूडल्स, और रात के बाज़ारों में सस्ते खाने के ठेले — ये सब आधुनिक जीवनशैली का हिस्सा बन गए हैं। लोग स्वाद और सस्ती कीमत के आकर्षण में भीड़ देखकर ही खाने का चुनाव कर लेते हैं, पर शायद ही कोई यह सोचता है कि यह भोजन कितना स्वच्छ या सुरक्षित है। यही लापरवाही आज भारतीय समाज की सेहत पर एक खामोश संकट बनकर मंडरा रही है।

सस्ता और स्वादिष्ट भोजन सुनने में जितना आकर्षक लगता है, हकीकत में वह उतना ही खतरनाक साबित हो सकता है। मिलावटखोर व्यापारी उपभोक्ता की जेब और स्वाद दोनों पर निशाना साधते हैं। दूध में डिटर्जेंट, घी में रिफाइंड ऑयल, मसालों में रंगीन पाउडर, और मिठाइयों में केमिकल युक्त चमकीले रंग — यह सब आम हो गया है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश में की गई जांचों में पाया गया कि बाजार में बिकने वाला लगभग 70% दूध किसी न किसी रूप में मिलावटी है। यही हाल मिर्च पाउडर, हल्दी और बेसन जैसे रोजमर्रा के सामान का है।

मिलावट का सबसे खतरनाक रूप है आर्टिफिशियल फूड कलर और एसेंस। ये पदार्थ देखने में आकर्षक जरूर बनाते हैं, पर शरीर में पहुंचने पर ये कैंसर, लीवर डैमेज, किडनी फेल्योर और हार्मोनल असंतुलन जैसी बीमारियों के बीज बो देते हैं। यूरोपीय देशों में जिन रंगों को स्वास्थ्य के लिए घातक मानकर प्रतिबंधित किया गया है, वे ही रंग भारत में खुलेआम मिठाइयों, नमकीन और पेयों में उपयोग किए जा रहे हैं।

आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लाभ की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को कुचल दिया है। खाद्य उद्योग के कई हिस्सों में प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र हो गई है कि व्यापारी “सस्ता उत्पादन” करने के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। पाम ऑइल जैसे घटिया तेलों का प्रयोग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कई देशों ने इस तेल को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हुए प्रतिबंधित कर दिया है, पर भारत में यह लगभग हर प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ — बिस्किट, नूडल्स, चिप्स, नमकीन, और यहां तक कि मिठाइयों तक — में मिलाया जा रहा है।

हमारे देश में “क्वालिटी” की जगह “क्वांटिटी” पर ज़ोर देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि उपभोक्ता भी सस्ते सामान की ओर आकर्षित होता है। वह यह नहीं सोचता कि जो भोजन आज 20 रुपये में मिल रहा है, वह भविष्य में उसकी सेहत पर कितना भारी पड़ेगा। यह एक सामाजिक मानसिकता की त्रुटि है — जहाँ हम तत्कालिक लाभ को स्थायी हानि से अधिक महत्व देने लगे हैं।

भारत में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण जैसी संस्थाएँ मौजूद हैं। इनके पास कानूनन अधिकार हैं कि वे खाद्य पदार्थों की जांच करें, लाइसेंस रद्द करें और दोषियों पर कार्रवाई करें। परंतु जमीनी स्तर पर इन व्यवस्थाओं की हालत चिंताजनक है।खाद्य निरीक्षकों की संख्या सीमित है, लैब टेस्ट की प्रक्रिया धीमी है और भ्रष्टाचार ने निगरानी व्यवस्था को खोखला बना दिया है। छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में तो भोजन सुरक्षा अधिकारी शायद ही कभी जाँच के लिए निकलते हों। यही कारण है कि मिलावटखोरों के हौसले बुलंद हैं। कहीं तेल में खनिज तेल मिलाया जा रहा है, तो कहीं मिठाइयों में कपड़े धोने का पाउडर तक मिलाने की घटनाएँ सामने आई हैं।सवाल यह है कि जब सरकारें “स्वच्छ भारत”, “फिट इंडिया” जैसे अभियान चला रही हैं, तब क्या मिलावट के खिलाफ सख्त कदम उठाना इस मिशन का हिस्सा नहीं होना चाहिए?

मिलावटी भोजन केवल एक आर्थिक या नैतिक अपराध नहीं है, बल्कि यह जनस्वास्थ्य का गंभीर संकट है। लंबे समय तक ऐसे भोजन के सेवन से शरीर में ज़हर का धीमा संचय होता है। बच्चों में यह समस्या और भी गंभीर है क्योंकि उनका शरीर संवेदनशील होता है।कृत्रिम रंग और रसायन बच्चों में त्वचा रोग, एलर्जी, अस्थमा और हाइपरएक्टिविटी पैदा कर सकते हैं।मिलावटी तेल और वसा हृदय रोग, ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाते हैं।दूषित दूध और डेयरी उत्पाद पाचन तंत्र की बीमारियाँ और लीवर संबंधी विकार उत्पन्न करते हैं।बार-बार ऐसे भोजन के सेवन से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है।यानी सस्ता खाना अंततः महंगा साबित होता है—यह धीरे-धीरे हमारे शरीर की हर कोशिका को बीमार कर देता है।सच्चाई यह है कि सरकारी व्यवस्था उतनी सक्षम नहीं है कि वह हर गली और हर दुकान पर निगरानी रख सके। इसलिए मिलावट के इस जाल से बचाव की सबसे बड़ी कुंजी जागरूकता है।

हमें स्वयं यह तय करना होगा कि हम कहाँ से और क्या खा रहे हैं। घर पर बने भोजन को प्राथमिकता दें, स्थानीय विक्रेताओं से खरीदते समय सवाल पूछें, पैक्ड आइटम की FSSAI लाइसेंस संख्या, निर्माण तिथि और सामग्री सूची अवश्य पढ़ें।स्कूलों, सामाजिक संगठनों और पंचायतों के स्तर पर “स्वस्थ भोजन—सुरक्षित जीवन” जैसी जनजागरूकता मुहिम चलाई जा सकती है। यदि समाज सामूहिक रूप से इस विषय को गंभीरता से लेने लगे, तो व्यापारी भी उपभोक्ताओं के डर से सुधार करने को बाध्य होंगे।

मिलावट के खिलाफ लड़ाई केवल कानून का विषय नहीं, बल्कि एक सामूहिक नैतिक दायित्व है। सरकार को चाहिए कि वह खाद्य अपराधों को “गंभीर अपराध” की श्रेणी में लाए, त्वरित कार्रवाई की व्यवस्था करे और दोषियों को कड़ी सजा दे। साथ ही, छोटे व्यापारियों और ठेलों को भी स्वच्छता प्रशिक्षण और लाइसेंस व्यवस्था से जोड़ा जाए।दूसरी ओर, नागरिकों को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। यदि हमें किसी दुकान या होटल में गंदगी या मिलावट की आशंका दिखे, तो शिकायत दर्ज कराना हमारा कर्तव्य है। FSSAI का मोबाइल एप इसी उद्देश्य से बनाया गया है, परंतु बहुत कम लोग इसका उपयोग करते हैं।आज जो भोजन हम खा रहे हैं, वही हमारे बच्चों की अगली पीढ़ी की सेहत की नींव बनेगा। यदि हमने अभी सावधानी नहीं बरती, तो आने वाले वर्षों में कैंसर, हार्ट डिज़ीज़ और डायबिटीज़ जैसी बीमारियाँ हमारे समाज में महामारी का रूप ले सकती हैं। यह केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय उत्पादकता और अर्थव्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव डालेगा।बीमार समाज कभी भी सशक्त राष्ट्र नहीं बना सकता। अतः यह समय है जब हम स्वाद और सस्तेपन के मोह से ऊपर उठकर अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें।भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि जीवन की ऊर्जा का स्रोत है। यदि उसमें मिलावट का ज़हर घुल जाए, तो यह केवल शरीर ही नहीं, समाज की आत्मा को भी बीमार कर देता है। मिलावटी भोजन के खिलाफ लड़ाई में कानून, प्रशासन, समाज और व्यक्ति—सबको साथ चलना होगा।

अंततः, यह याद रखना होगा कि स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूँजी है। अगर इसे नजरअंदाज किया गया, तो सस्ते खाने का यह छल न केवल हमारी जीवनशैली बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को भी खतरे में डाल देगा। हमें जागरूक बनना होगा, क्योंकि सुरक्षित भोजन का अधिकार केवल कानून नहीं, बल्कि जीवन का मूल अधिकार है।