
प्रदीप शर्मा
बिहार में कई पिछड़ी जातियां हैं, जिनकी जनसंख्या अच्छी ख़ासी है लेकिन उन्हें उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. ये समुयअनुसूचित जाति का दर्जा और आरक्षण पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कांग्रेस इस दलित केंद्रित राजनीति का धुरी बनना चाहती है. उसने रविदास समुदाय के नेता को प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया है. लेकिन क्या वह इन बिखरी जातियों को एकजुट कर पाएगी।
बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बैठक का पटना में आयोजन इस बात की ओर इशारा करता है कि कांग्रेस बिहार को लेकर गंभीर है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, कांग्रेस को बिहार में नीतीश और भाजपा की 20 साल की सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्सी का फायदा मिलने की उम्मीद दिख रही है।
बिहार में रविदास जाति की ज़्यादातर जनसंख्या उन ज़िलों में हैं जो पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमा के साथ सटे हुए हैं, जैसे सासाराम, सिवा न,गोपालगंज, पश्चिम चंपारण, बक्सर आदि. संभवतः यही कारण है कि 1990 के दशक के आख़िरी और 2000 के दशक के दौरान जब उत्तर प्रदेश में मायावती मज़बूत हुई तब बिहार में भी बसपा के विधायक बनने लगे थे।
साल 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में मायावती के दो उम्मीदवार चुनाव जीते थे जो 2000 में बढ़कर 5 तक हो गए. अक्तूबर 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तब भी बसपा के चार विधायक थे. इस तरह से जैसे जैसे बिहार में कांग्रेस और राजद कमजर हुई, बसपा मज़बूत हुई. लेकिन जब नीतीश कुमार ने बिहार में महादलित का कार्ड खेला तब बसपा 2010 और 2015 के चुनाव में एक भी सीट नहीं हासिल कर पायी. इस दौरान बसपा भी धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश में विलुप्त होने लगी।
बिहार की तीन सबसे बड़ी दलित जातियों में से 5.31% वाले पासवान और 3.09% वाले मुसहर के पास अपना नेता और अपना पार्टी है लेकिन 5.25% वाले रविदास के पास न तो कोई नेता है न कोई पार्टी है. बिहार में ऐसी और भी कई जातियां है जिनकी जनसंख्या अच्छी ख़ासी है लेकिन उनके पास न कोई नेता है और न ही कोई पार्टी है. बिहार कांग्रेस इन नेता विहीन और दलविहीन जातियों का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास कर रही है जिसमें राजेश राम को बिहार कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाना और आईपी गुप्ता जैसे पान नेता को आगे लाना और कन्हैया कुमार के सहारे सभी पार्टियों से मोहभंग हो चुके भूमिहारों के बीच थोड़ी बहुत साख दुबारा पाने का राजनीतक प्रयास है।
पान जाति को देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग नाम से जाना जाता है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में पान समुदाय को तांत, ततमा, ततवान, सवासी, पनार नाम से जाना जाता है, तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में इन्हें कोरी और उत्तराखंड में कोली नाम से जाना जाता है. आज़ादी के बाद अनुसूचित जाति की सूची में सिर्फ़ पान और पनार का नाम दर्ज किया और बाद में उसमें सवासी को जोड़ा गया ले किन आज तक तांती, ततमा, कोरी को नहीं जोड़ा गया है।
आईपी गुप्ता का पान समाज पिछले एक दशक से अधिक समय से नीतीश कुमार का पारम्परिक समर्थक हुआ करता था क्योंकि नीतीश कुमार के प्रयास से वर्ष 2015 में तांती ततमा जाति को बिहार की अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया गया था. लेकिन पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार सरकार के उस फ़ैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि बिहार सरकार ने तांतीततमा को अनुसूचित जाति में शामिल करने की जो प्रक्रिया अपनायी थी वो ग़ैरसंवैधानिक थी क्योंकि अनुसूचित जाति की सूची में बदलाव करने के लिए राज्य सरकार को विधानमंडल से बिल पास करके संसद को भेजना पड़ता है और फिर संसद उस फ़ैसले पर आख़िरी फ़ैसला लेती है।लेकिन बिहार सरकार ने बिना संसद को जानकारी दिए तांती-ततमा को अनुसूचित जाति का सर्टिफ़िकेट जारी करना शुरू कर दिया।
इस आंदोलन के आरम्भ से ही कांग्रेस पान आरक्षण आंदोलन, उनकी मांग और उनके नेता आईपी गुप्ता को समर्थन दे रही है ताकि उस वोट को एनडीए से तोड़ा जाए जो पारम्परिक तौर पर एनडीए के वोटर थे और कांग्रेस के साथ सर्वाधिक सहज हो सकते थे।
बिहार में कई अन्य जातियां भी है जिनकी जनसंख्या अच्छी ख़ासी है लेकिन उन्हें उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. उदाहरण के लिए मुकेश सहनी अपनी वीआईपी (विकासशील इंसान पार्टी) के जरिये मल्लाह समाज को पिछले एक दशक से राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयास कर रहे हैं और अपने जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने की माँग कर रहे हैं।
कांग्रेस इस दलित केंद्रित राजनीति का धुरी बनना चाहती है. आने वाले समय में कांग्रेस उन अन्य दलित पिछड़ी जातियों को शामिल कर सकती है जिन्हें उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. उदाहरण के लिए, पासी जाति जिनका ताड़ी उतारने और बेचने का पेशाहै।शराब बंदी के बाद यह बिहार का प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन गया है लेकिन बिहार में पासी जाति का कोई राजनीतिक चेहरा नहीं बन पाया है. बिहार में पासी समाज के सबसे बड़े नेता जेडीयू के अशोक चौधरी ने अपने पूरे जीवन में शायद ही कभी अपनी जाति की राजनीति की होगी. इसी तरह से धोबी समाज से कभी डुमरलाल बैठा बिहार कांग्रेस का चेहरा हुआ करते थे, लेकिन आज पूरे बिहार में श्याम रजक को छोड़कर कोई प्रभावशाली नेता नहीं है और वो श्याम रजक भी कभी आरजेडी में जाते हैं तो कभी जेडीयू में जाते हैं। श्याम रजक का बिहार की राजनीति में राजनीति वजूद तो है लेकिन जातीय पहचान नहीं है।
इन सबके बीच कांग्रेस तांती ततमा को मल्लाह या रविदास से अधिक महत्व इसलिए भी देना चाहेगी क्योंकि कांग्रेस को पता है कि रविदास या मल्लाह को एकजुट करना उतना आसान नहीं होगा जितना आसान तांती ततमा को जिनके आगे आरक्षण की थाली परोसकर छीन ली गयी. कोई दूसरी जाति एनडीए को उतना अधिक नुक़सान नहीं दे सकती जितना तांती पान जाति, क्योंकि तांती समाज पिछले एक दशक से नीतीश कुमार और एनडीए को एकजुट-एकमुस्त समर्थन करता था।
लेकिन कांग्रेस के पास सबसे बड़ी चुनौती होगी रविदास समाज को कांग्रेस और महागठबंधन में एकजुट करना. राजेश राम जिन्हें बिहार कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है, वे कोई चर्चित राजनीतिक चेहरा नहीं हैं. बिहार में रविदास जाति का वोट सर्वाधिक बिखरा हुआ है. इन परिस्थितियों में पटना में कांग्रेस सीडब्लूसी की बैठक का असर तो आने वाला समय ही बताएगा।