
गोपेन्द्र नाथ भट्ट
भारत की सांस्कृतिक परंपराएँ हजारों वर्षों पुरानी हैं। इनमें व्रत और उपवास केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक बंधन का प्रतीक भी रहे हैं। इन्हीं में से एक है करवा चौथ, जो आज प्रेम, समर्पण और विश्वास का उत्सव के साथ ही आधुनिक समय का सबसे लोकप्रिय व्रत बन चुका है लेकिन सवाल यह है कि क्या यह व्रत हमेशा ऐसा ही था? करवा चौथ कब और कैसे लोकप्रिय हुआ, और इसकी परंपरा कैसे विकसित होती गई है,यह जानने की उत्सुकता हर किसी के मन में है।
भारत के हिन्दू त्यौहारों में करवा चौथ जैसे सदियों पुराने अनेक व्रत और त्योहार हैं जो पति-पत्नी के प्रेम, परिवार की सुख-समृद्धि और दीर्घायु की कामना से जुड़े हैं। करवा चौथ तो उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, परन्तु अन्य प्रांतों में इसके समान अर्थ और भावना वाले अनेक पारंपरिक व्रत भी प्रचलित हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्य में मनाया जाने वाला हरियाली तीज अथवा हरतालिका तीज का त्यौहार बहुत प्राचीन है। इस त्यौहार में सुहागिन महिलाएँ भगवान शिव-पार्वती की पूजा कर पति की दीर्घायु और वैवाहिक सुख की कामना करती हैं।माना जाता है कि इसी दिन देवी पार्वती ने कठोर तप कर शिव को पति रूप में प्राप्त किया था।
सुहागिन महिलाएँ निर्जला उपवास करती है तथा हरियाली झूले, मेंहदी, गीत-नृत्य और कथा-श्रवण किया जाता है।
इसी तरह उत्तर भारत और महाराष्ट्र में वट सावित्री व्रत किया जाता है। इस व्रत में महिलाएँ वट (बरगद) वृक्ष की पूजा कर धागा लपेटती हैं, निर्जला उपवास करती हैं और करवा चौथ जैसा ही पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती है। इस व्रत के पीछे यह भावना है कि सावित्री ने जिस प्रकार सत्यवान को यमराज से वापस पाया था उसी प्रकार सभी महिलाओं का सुहाग अखंड बना रहें। यह इस कथा पर आधारित व्रत है।वरलक्ष्मी व्रतम
दक्षिण भारत (तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, तेलंगाना) में विवाहित महिलाएँ वर लक्ष्मी देवी की पूजा कर अपने परिवार की समृद्धि और पति के कल्याण की प्रार्थना करती हैं। इस व्रत में व्रती स्त्रियाँ सुबह स्नान कर सोने-चाँदी के कलश को देवी लक्ष्मी के रूप में सजाती हैं, पूजन और कथा करती हैं। इस व्रत में करवा चौथ की तरह समानता है और यह व्रत भी पति और परिवार की मंगल-कामना से जुड़ा व्रत है। देश के बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड प्रदेशों में में छठ पूजा का भव्य आयोजन किया जाता है। इस व्रत की यह विशेषता है कि परिवार के मंगल के लिए इसे स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी करते हैं। सूर्य देव और छठी माई की उपासना से परिवार की समृद्धि, संतान-सुख और दीर्घायु की कामना और भावना इस व्रत का मुख्य आधार है। चार दिन का कठिन निर्जला उपवास और सूर्य को अर्घ्य देना इस व्रत को खास बनाता है।
इसी प्रकार सावन के सभी सोमवार और सोमवती अमावस्या का व्रत पूरे भारत में सदियों से किया जाता रह है। विशेष रूप से विवाहित महिलाएँ यह व्रत भगवान शिव को समर्पित कर पति की आयु-वृद्धि की कामना करती हैं। भगवान शिव-पार्वती की पूजा, व्रत-उपवास और बेलपत्र अर्पण इस व्रत के विधान है। करवा चौथ की तरह यह व्रत भी दांपत्य-सौभाग्य का प्रतीक है। इसी तरह राजस्थान में तीज और गणगौर के त्यौहार शताब्दियों से मनाएं जाते है जिसमें सुहागन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और नव युवतियां अच्छे वर की कामना के लिए व्रत रखती है।
पूरे भारत में संतोषी माता का व्रत भी किया जाता है जिसमें महिलाएँ परिवार के सुख-शांति के लिए शुक्रवार को उपवास रखती हैं। इस व्रत के विधान में माता रानी को गुड़-चना का भोग, कथा-श्रवण और 16 शुक्रवारों तक इसका पालन किया जाता है। यह लोकप्रिय व्रत संतोष, श्रद्धा और परिवार की समृद्धि की प्रतीक माना जाता है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, नेपाल के तराई क्षेत्र में जीवित पुत्रिका व्रत (जितिया) व्रत भी किया जाता है जिसमें माताएँ अपने पुत्रों की दीर्घायु और कल्याण के लिए यह व्रत रखती हैं। यह व्रत तीन दिन का उपवास, कथा-पाठ और नदी-स्नान के साथ सम्पन्न होता है। पति सहित परिवार के सदस्यों की दीर्घायु हेतु करवा चौथ जैसे निर्जला उपवास रखा जाता है। देश भर में निर्जला एकादशी का व्रत भी प्राचीन काल से किया जाता रहा है।
भारत की सांस्कृतिक परंपरा में केवल ये केवल व्रत मात्र उपवास नहीं, बल्कि नारी-श्रद्धा, प्रेम और परिवार-निष्ठा का प्रतीक है। यही भावना देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न नामों और रूपों में जीवित है । चाहे वह हरतालिका तीज, वर लक्ष्मी, वट सावित्री, छठ पूजा या जीवित पुत्रिका और करवा चौथ आदि व्रत ही क्यों न हो।
आधुनिक काल में करवा चौथ को बहुत अधिक लोकप्रियता और नई पहचान मिली है । विशेषकर 1990 के दशक में करवा चौथ ने अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की। इस परिवर्तन में सबसे बड़ी भूमिका हिंदी सिनेमा और टीवी धारावाहिकों ने निभाई है। *दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” (1995), *हम दिल दे चुके सनम*, *कभी खुशी कभी ग़म*, *कभी अलविदा न कहना* जैसी फिल्मों में करवा चौथ को रोमांटिक पर्व के रूप में दिखाया गया। टीवी सीरियल्स में भी करवा चौथ का चित्रण पत्नी का प्रेम और पति की प्रतीक्षा के भावनात्मक ढंग से हुआ। मीडिया के विभिन्न माध्यमों ने इस व्रत को गाँवों से निकालकर शहरों और युवाओं के बीच भी लोकप्रिय बना दिया। 21वीं सदी में करवा चौथ ने परंपरा और आधुनिकता का सुंदर संतुलन स्थापित किया और यह वैश्वीकरण और आधुनिकता का संगम बन बहुत लोकप्रिय हो गया है। अब कई स्थानों पर पति-पत्नी दोनों उपवास रखते हैं। सोशल मीडिया पर करवा चौथ सेल्फी और ऑनलाइन पूजा जैसी नई प्रवृत्तियाँ उभरी हैं। विदेशों में बसे भारतीय समुदाय भी इस व्रत को भारतीय संस्कृति से जुड़े रहने के माध्यम के रूप में मनाते हैं। आज करवा चौथ धार्मिक से अधिक भावनात्मक, सांस्कृतिक और पारिवारिक उत्सव बन चुका है।
करवा चौथ का प्राचीन मूल
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि करवा चौथ का उल्लेख किसी एक ग्रंथ में स्पष्ट रूप से नहीं मिलता, परंतु इसके संकेत महाभारत और पुराणों में भी मिलते हैं। कथाओं के अनुसार महाभारत में जब अर्जुन तपस्या के लिए नीलगिरी पर्वत पर गए थे, तब द्रौपदी ने भगवान कृष्ण की सलाह पर कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि का व्रत किया था ताकि अर्जुन सुरक्षित लौट आएं। इसी कथा को आगे चलकर करवा चौथ व्रत से जोड़ा गया।
कुछ विद्वानों का यह मत है कि करवा चौथ की जड़ें वैदिक युग में भी मिलती हैं, जब महिलाएँ अपने पतियों की सुरक्षा और परिवार की समृद्धि के लिए अन्नपूर्णा या गौरी पूजन करती थीं।
मध्यकाल (10वीं से 16वीं शताब्दी) के दौरान जब पुरुष युद्धों और सीमाओं की रक्षा के लिए महीनों दूर रहते थे, तब स्त्रियों ने उनके सुरक्षित लौटने की कामना हेतु यह व्रत करना शुरू किया।
महिलाएँ करवा (मिट्टी का घड़ा) में जल भरकर अपने मित्रों, पड़ोसियों को देतीं थी जो सहेलीपन और एकता का प्रतीक था। व्रत के दिन महिलाएँ एकत्र होकर कथा सुनतीं, गीत गातीं और पारस्परिक प्रेम का आदान-प्रदान करती थीं।
इस काल में यह व्रत विशेष रूप से राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय हुआ।इसलिए कहा जा सकता है कि करवा चौथ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक परंपरा के रूप में विकसित हुआ।
राजस्थान और पंजाब के राजघरानों की रानियों ने करवा चौथ को राजसी गरिमा प्रदान की।
वह दिनभर उपवास रखतीं, श्रृंगार करतीं और चांद देखकर पति की दीर्घायु की कामना करतीं।
लोककथाएँ भी इस व्रत को लोकप्रिय बनाने में सहायक रहीं। इसमें करवा की कथा का विशेष उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, करवा नामक एक पतिव्रता स्त्री ने अपने पति को नागदंश से बचाने के लिए यमराज से प्रार्थना की और अपने तप से उसे पुनर्जीवित कराया।
यह कथा स्त्रियों में विश्वास और आस्था का प्रतीक बनी और इस व्रत का नाम “करवा चौथ” पड़ा। यह व्रत भारतीय नारी की अंतःशक्ति और स्नेहशीलता का दर्पण है, जो समय के साथ और भी सशक्त होती गई है।
मध्यकाल और ब्रिटिश काल तक, यह व्रत गाँवों की स्त्रियों के बीच सामूहिक पर्व बन चुका था।
महिलाएँ दिनभर निर्जल उपवास रखतीं है।
दोपहर में करवा (मिट्टी का पात्र) से पूजा करती है।रात्रि में चांद देखकर पति के हाथ से जल ग्रहण करतीं है। इसका उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं बल्कि यह पर्व आज सामूहिक सौहार्द, स्त्री-संघटन और पारिवारिक एकता का प्रतीक बन गया है।