योगी की तारीफ से क्यों बढ़ी अखिलेश की बेचैनी

Why did Akhilesh's uneasiness increase due to Yogi's praise?

अजय कुमार

बसपा सुप्रीमो मायावती ने गत दिनों लखनऊ की महारैली में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खुलकर तारीफ की और समाजवादी पार्टी व अखिलेश यादव पर तीखा हमला बोला है, जो यूपी की सियासत में एक बड़े दांव के रूप में देखा जा रहा है। मायावती ने योगी सरकार को स्मारक स्थलों के रखरखाव व बहुजन हित में सकारात्मक भूमिका के लिए आभार जताया और साथ में सपा पर आरोप लगाया कि पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फार्मूले का इस्तेमाल सिर्फ विपक्ष में करते हैं, सत्ता में रहकर इसे भूल जाते हैं। मायावती की यह रणनीति 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए बहुजन और दलित वोटरों को अपने पक्ष में एकजुट करने का प्रयास है। उन्हें पता है कि सपा की ‘पीडीए’ रणनीति ने दलित-मुस्लिम-ओबीसी गठजोड़ को मजबूत किया है, जिससे बसपा का कोर वोटर प्रभावित हुआ है। इसी वजह से मायावती ने रैली के मंच से कहा कि बीएसपी अकेले अपने बल पर चुनाव लड़ेगी और गठबंधन से दूर रहेगी, क्योंकि पिछली बार सपा या कांग्रेस के साथ किए गए गठबंधन चुनाव में बसपा को फायदा नहीं मिला था।

भाजपा के प्रति उनका नरम रुख और योगी की तारीफ भी एक सोची-समझी रणनीति है। मायावती जानती हैं कि उनका सीधा मुकाबला भाजपा से कम और सपा-कांग्रेस के वोट कटवा फॉर्मूलों से ज्यादा है। वे दलित समाज में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती हैं, ताकि सपा के ‘पीडीए’ या कांग्रेस की जातिगत जनगणना की मांग के जरिए दलित वोट बैंक में सेंध न लगे। भाजपा के साथ नजदीकी दिखाने का खतरा जरूर है, लेकिन बीएसपी के थिंक टैंक मानते हैं कि उनका कोर वोटर जबरदस्त रूप से पार्टी के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा है। 2007 के ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ वाली व्यापक सामाजिक समीकरण को मायावती फिर से खड़ा करना चाह रही हैं।

बसपा का प्रदर्शन लगातार गिरता गया है 2007 में अकेले 206 सीटें, 2012 में 80, 2017 में 19 और 2022 में मात्र 1 सीट मिली। लोकसभा चुनावों में भी 2014 और 2024 में शून्य पर रही है। ऐसे में मायावती का दांव अपनी ताकत का सार्वजनिक प्रदर्शन, योगी से नजदीकी, और दलित-मुस्लिम व गैर-जाटव समाज को फिर से जोड़ना है। वो इसका असर पहले पंचायत चुनावों में और फिर 2027 के विधानसभा चुनावों में दिखाना चाहती हैं, ताकि भीड़ वोट में बदल सके और डाउनफॉल का सफर रुक सके। हालांकि विपक्ष सपा और कांग्रेस बीएसपी-भाजपा की ‘अंदरूनी सांठगांठ’ बताकर दलित समाज को मायावती से दूर करने की कोशिश कर रही है, साथ ही बीएसपी पर ‘बी टीम’ का आरोप भी लगा रहे हैं। लेकिन मायावती ने साफ किया है कि उनका असल टारगेट दलित, बहुजन और सर्वजन का वही पुराना समीकरण दोबारा कायम करना है, जिसके बूते 2007 में पूर्ण बहुमत मिला था। यही वजह है कि वो भाजपा या किसी गठबंधन की परवाह किए बिना अपने कोर वोटरों के साथ मजबूत रिश्ते पर फोकस कर रही हैं, भले इसके लिए कोई आलोचना झेलनी पड़े।

संक्षेप में कहा जाए तो मायावती ने इस दांव से सपा के पीडीए फॉर्मूले को कमजोर करने, भाजपा के साथ नजदीकी दिखाकर दलितों का भरोसा दोबारा हासिल करने और बहुजन समाज को पुराने जमाने की तरह एक मंच पर लाने की कोशिश की है। आने वाले चुनावों में यह दांव कितना काम करेगा, यह पंचायत चुनाव और 2027 के नतीजे ही तय करेंगे। लेकिन मौजूदा हालात में यूपी की सियासी बिसात पर ‘हाथी’ का फिर से सक्रिय होना सपा और कांग्रेस दोनों की साइकिल को डगमगाता दिख रहा है।