वैश्विक राजनीति में आये भूचाल के बीच दक्षिण एशिया और भारत

South Asia and India amid the global political upheaval

मनन कुमार

पिछले कुछ महीनों में पूरी दुनिया और ख़ासकर खाड़ी से लेकर दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन (power balance) में बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं, जिन्हें भारत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। भारत के लिए इन बदलावों का एक मुद्दा परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान की दक्षिण एशिया में बढ़ती भूमिका है। भारत का यह सैन्य-शासित पड़ोसी, खासकर ऑप्रेशन सिन्दूर के बाद, एक नया सुरक्षा ढांचा बनाने की कोशिश कर रहा है।

परंपरागत रूप से, अमेरिका अपने भू-राजनीतिक खेलों के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल करता रहा है, और पाकिस्तान ने हमेशा उसका साथ दिया है। इसलिए, जब सितंबर के आखिरी हफ़्ते में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेना प्रमुख फ़ील्ड मार्शल असीम मुनीर का ओवल ऑफिस में स्वागत किया, तो यह कोई अचरज की बात नहीं थी। ट्रंप को दोबारा लुभाने के लिए, इस्लामाबाद ने न केवल एक हाई-प्रोफाइल आतंकवादी को अमेरिका को सौंप दिया बल्कि ट्रंप को भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध रोकने का श्रेय भी दिया, और साथ ही उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया। बदले में, पाकिस्तान को फ़ायदा भी मिला, मसलन उसे आयातित वस्तुओं पर 19% का कम टैरिफ लगेगा (जो दक्षिण एशिया में सबसे कम है), और अमेरिका ने उसके नए खनिज क्षेत्र में $500 मिलियन के निवेश का सौदा किया है। राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा क्षेत्र के राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक समीकरणों को इस तरह बदलना भारत के हितों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।

दूसरी ओर, भारत-अमेरिका संबंध भी तनावपूर्ण हो गए हैं। राष्ट्रपति ट्रंप ने न केवल भारत को एक “मृत अर्थव्यवस्था” कहा है, बल्कि भारत के रूसी तेल खरीदने पर अमेरिकी अधिकारियों ने उसे “क्रेमलिन की “लॉन्ड्रोमैट” (अपराध धोने की मशीन) भी बताया है। अमेरिका ने भारत पर रूस से तेल खरीदने के लिए 25% ‘जुर्माना’ भी लगाया है जिसे मिलाकर भारतीय निर्यात पर कुल टैरिफ 50% पहुँच गया है जो भारतीय उद्योगों के लिए एक त्रासदी बन गया है। इसके अलावा, नए H1-B वीज़ा पर लगने वाला $100,000 का भारी शुल्क सबसे अधिक भारतीयों को प्रभावित करेगा। H1-B वीसा लेने वालों में 75% से अधिक भारतीय शामिल होते हैं। हालांकि, भारत के लिए प्रतिबंध कोई नई बात नहीं है, क्योंकि उसने 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षणों के समय भी इनका सामना किया था और हमेशा वापसी की है। इस बार भी भारत कूटनीतिक प्रयासों से यह प्रयत्न कर रहा है लेकिन साथ ही दूसरे विकसित देशों के साथ व्यापार के रास्ते भी खोल रहा है।

ये बड़े बदलाव मध्य पूर्व के साथ भारत के संबंधों पर भी असर डाल रहे हैं। 20 सितंबर को, पाकिस्तान और सऊदी अरब ने एक ‘रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौता’ किया, जिससे ज़रूरत पड़ने पर पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम सऊदी अरब के लिए उपलब्ध हो जाएगा। भारत ने कहा है कि वह इस समझौते के क्षेत्रीय स्थिरता पर पड़ने वाले असर का अध्ययन करेगा और यह उम्मीद भी जताई है कि भारत-सऊदी अरब की रणनीतिक साझेदारी (जो 2019 में बनी थी) में आपसी हितों का ध्यान रखा जाएगा। हालांकि, यह समझौता भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (IMEC) बाधा का कारण भी बन सकता है। सऊदी अरब के बाद, इस्लामाबाद ने संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के लिए भी अपना परमाणु सुरक्षा कवच बढ़ा दिया है। इस बीच, भारत और यूएई ने भी अपने द्विपक्षीय रक्षा सहयोग को मज़बूत करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। इन बदलावों को देखते हुए नई दिल्ली को भी रियाद और अबू धाबी के साथ अपने रिश्तों को बहुत सावधानी से संतुलित करने की आवश्यकता है। शतरंज की इस पेचीदा बिसात पर भारत भी अपनी चालें चल रहा है। चीन से रिश्तों में नरमी और तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान से रिश्तों में सुधार इसी जवाबी क़दम के महत्वपूर्ण पहलु हैं।