तालिबान विदेश मंत्री का देवबंद दौरा: धार्मिक जुड़ाव या कूटनीतिक संकेत?

Taliban Foreign Minister's Deoband Visit: Religious Connection or Diplomatic Signal?

प्रीति पांडेय

  • दारुल उलूम से तालिबान का ऐतिहासिक रिश्ता और भारत-अफ़ग़ानिस्तान के नए समीकरण
  • देवबंद में मुत्तक़ी की मौजूदगी — प्रतीक से ज़्यादा संदेश

अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी शनिवार को उत्तर प्रदेश के देवबंद पहुंचे। यह वही देवबंद है जहां इस्लामी शिक्षा की सबसे पुरानी और प्रभावशाली संस्था दारुल उलूम स्थित है।

मुत्तक़ी ने यहां नमाज़ अदा की, उलेमाओं से मुलाक़ात की और स्थानीय लोगों के बीच संवाद किया।

इससे पहले उन्होंने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से भी वार्ता की थी।
यह पहला अवसर था जब तालिबान शासन का कोई उच्च पदस्थ मंत्री भारत की यात्रा पर आया हो।

“रिश्तों का भविष्य उज्ज्वल दिख रहा है” — मुत्तक़ी

देवबंद में लोगों से बात करते हुए मुत्तक़ी ने कहा, “देवबंद के लोगों और उलेमाओं ने जिस स्नेह से स्वागत किया, मैं आभारी हूं। भारत और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते मुझे बहुत उज्ज्वल और मजबूत दिख रहे हैं।”

मुत्तक़ी के अनुसार, देवबंद इस्लामी दुनिया का एक बड़ा केंद्र है और अफ़ग़ानिस्तान के साथ इसका गहरा आध्यात्मिक संबंध है।

“जैसे हमारे छात्र भारत में आधुनिक शिक्षा के लिए आते हैं, वैसे ही इस्लामी शिक्षा के लिए भी देवबंद का रुख करते हैं।”

दारुल उलूम देवबंद — इस्लामी विचार का प्राचीन केंद्र

देवबंद में स्थित दारुल उलूम की स्थापना 30 मई 1866 को हुई थी।

1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश शासन ने मुस्लिम विद्वानों और धार्मिक संस्थाओं पर सख़्त पाबंदियाँ लगाईं थीं।
उसी कठिन दौर में कुछ विद्वानों ने इस्लामी ज्ञान और शिक्षा को जीवित रखने के लिए देवबंद में इस मदरसे की नींव रखी।

शुरुआत में यह एक छोटा शिक्षण केंद्र था, लेकिन आज यह सुन्नी इस्लाम के हनफ़ी विचारधारा का सबसे प्रमुख गढ़ बन चुका है।

देवबंद के फ़तवे और धार्मिक मार्गदर्शन को न सिर्फ भारत बल्कि दक्षिण एशिया के कई देशों में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है।

देवबंदी आंदोलन से उपजा हक्कानिया मदरसा और तालिबान

देवबंद की विचारधारा का असर सीमाओं से परे तक पहुंचा।

पाकिस्तान के अकोरा खटक में स्थित दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना 1947 में शेख़ अब्दुल हक़ ने की थी, जिन्होंने शिक्षा देवबंद से प्राप्त की थी।

हक्कानिया मदरसे ने वही शिक्षण पद्धति अपनाई जो देवबंद में प्रचलित थी — और यही संस्थान आगे चलकर तालिबान नेतृत्व का वैचारिक प्रशिक्षण केंद्र बन गया।

तालिबान के कई वरिष्ठ कमांडर और विद्वान इसी संस्था से जुड़े रहे हैं, इसलिए देवबंद को तालिबान की वैचारिक जड़ों से जुड़ा स्थान माना जाता है।

देवबंदी विचारधारा — पुनरुत्थान का संदेश

देवबंदी आंदोलन का मूल उद्देश्य था — इस्लाम के प्रारंभिक सिद्धांतों की ओर लौटना, समाज में नैतिकता व सादगी का पुनर्स्थापन और शिक्षा के माध्यम से धार्मिक चेतना जगाना।
यही विचार आगे चलकर दक्षिण एशिया में फैला और पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान की धार्मिक राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ गया।

कूटनीति के नए संकेत

मुत्तक़ी की यात्रा को महज़ धार्मिक यात्रा मानना भूल होगी।

यह भारत-अफ़ग़ानिस्तान संबंधों की नयी पृष्ठभूमि में एक कूटनीतिक संकेत भी है।

तालिबान सरकार लंबे समय से भारत के साथ व्यावहारिक संबंधों की इच्छुक रही है — और देवबंद जैसा ऐतिहासिक स्थल इस संवाद के लिए एक सहज, धार्मिक सेतु बन सकता है।

दारुल उलूम के मीडिया प्रभारी अशरफ़ उस्मानी ने कहा, “हमारे यहां देश-विदेश से मेहमान आते रहते हैं। मुत्तक़ी साहब हमारे अतिथि हैं और हमने उनका स्वागत उसी सम्मान के साथ किया जैसा हर मेहमान का करते हैं।”

मुत्तक़ी की देवबंद यात्रा केवल एक धार्मिक पड़ाव नहीं, बल्कि इतिहास, विचारधारा और कूटनीति का संगम है।

यह यात्रा इस बात का संकेत देती है कि धर्म और राजनीति के बीच खड़ी सीमाओं को कभी-कभी साझा सांस्कृतिक धरोहर जोड़ने का काम भी कर सकती है।

भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच यह मुलाक़ात शायद एक नए दौर की शुरुआत हो — जहाँ संवाद की राह धर्म और इतिहास के पुल से होकर गुज़रे।