
“हर राज्य में लागू हो मासिक धर्म अवकाश — महिला सम्मान का नया अध्याय”
कर्नाटक सरकार द्वारा मासिक धर्म अवकाश नीति लागू करना एक सराहनीय और संवेदनशील पहल है। यह निर्णय महिलाओं के स्वास्थ्य, सम्मान और कार्यस्थल की समानता को नई दिशा देता है। मासिक धर्म के दौरान एक दिन का सवेतन अवकाश उन्हें शारीरिक राहत के साथ आत्मसम्मान की अनुभूति भी कराता है। अब आवश्यकता है कि यह नीति केवल कर्नाटक तक सीमित न रहे, बल्कि पूरे भारत में लागू की जाए ताकि हर कार्यरत महिला को समान अधिकार और सम्मान मिल सके। यह कदम महिला सशक्तिकरण और मानवीय संवेदनशीलता का सशक्त प्रतीक है।
डॉ प्रियंका सौरभ
आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में बराबरी से काम कर रही हैं, तब यह जरूरी है कि नीतियाँ भी उनके अनुभवों और जरूरतों के अनुसार बनें। कर्नाटक सरकार ने मासिक धर्म अवकाश की जो पहल की है, वह न केवल महिला स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐतिहासिक है, बल्कि यह सामाजिक सोच में बदलाव का प्रतीक भी है।
राज्य सरकार ने यह व्यवस्था लागू की है कि सभी सरकारी दफ्तरों, आईटी कंपनियों और फैक्ट्रियों में कामकाजी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान हर माह एक दिन का सवेतन अवकाश (Paid Leave) मिलेगा। यह कदम उस संवेदनशीलता का परिचायक है जिसकी महिलाओं को लंबे समय से प्रतीक्षा थी।
महिलाएँ समाज और अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं। मासिक धर्म उनके शरीर की प्राकृतिक प्रक्रिया है, परंतु सदियों से इसे सामाजिक असहजता और मौन के घेरे में रखा गया। इस अवधि में शारीरिक दर्द, असुविधा और मानसिक थकान का अनुभव आम है, लेकिन कार्यस्थलों पर उनसे सामान्य दिनों जैसी कार्यक्षमता की अपेक्षा की जाती रही है। अब जब सरकारें इस जैविक प्रक्रिया को नीति निर्माण में शामिल कर रही हैं, तो यह समाज के परिपक्व होने की निशानी है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मासिक धर्म के शुरुआती दिनों में विश्राम और मानसिक स्थिरता अत्यंत आवश्यक होती है। इस अवधि में अत्यधिक काम करने या तनाव लेने से महिलाओं में कई स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए यह नीति सिर्फ सुविधा नहीं बल्कि महिला स्वास्थ्य के संरक्षण का साधन भी है।
यह नीति नारी-सशक्तिकरण की परिभाषा को और गहराई देती है। सशक्तिकरण का अर्थ केवल अधिकारों की बात करना नहीं, बल्कि परिस्थितियों के अनुरूप सम्मान देना है। जब राज्य स्वयं यह स्वीकार करता है कि महिला शरीर की आवश्यकताएँ विशेष हैं, तो यह समानता की दिशा में उठाया गया वास्तविक कदम है।
कर्नाटक का यह निर्णय समाज में एक बड़ा संदेश देता है — कि महिलाओं की जैविक प्रक्रिया को अब छिपाने या शर्म की दृष्टि से देखने की बजाय सामान्य जीवन का हिस्सा समझा जाना चाहिए। यह नीति मासिक धर्म के विषय को सार्वजनिक विमर्श में लाकर इसे सामान्य और सम्मानजनक बनाती है।
इस निर्णय से यह उम्मीद भी बढ़ी है कि अन्य राज्य सरकारें और निजी कंपनियाँ भी इस दिशा में कदम उठाएँगी। कुछ वर्ष पहले केरल और ओडिशा जैसे राज्यों में इस विषय पर चर्चा तो हुई, पर नीति नहीं बनी। अब कर्नाटक ने जो उदाहरण पेश किया है, वह अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा बनेगा।
वास्तव में, यह समय की माँग है कि भारत सरकार भी राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी नीति बनाए, जिससे हर क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं — सरकारी कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स, बैंक अधिकारी, फैक्ट्री वर्कर या निजी क्षेत्र की कर्मचारी — सभी को समान रूप से यह अधिकार प्राप्त हो।
यह नीति केवल छुट्टी देने का मामला नहीं है, बल्कि यह महिलाओं की गरिमा, स्वास्थ्य और आत्मसम्मान से जुड़ा प्रश्न है। इससे वे बिना अपराधबोध या झिझक के अपने शरीर की जरूरतों को प्राथमिकता दे सकेंगी।
कुछ आलोचक इस नीति को अतिरिक्त विशेषाधिकार बताकर इसे कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि समानता का अर्थ एक जैसी परिस्थितियाँ नहीं बल्कि न्यायपूर्ण व्यवहार है। पुरुषों को मासिक धर्म की शारीरिक पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती, इसलिए महिलाओं को इस समय विश्राम का अधिकार देना किसी प्रकार का पक्षपात नहीं बल्कि संवेदनशील न्याय है।
भारत में महिला जनसंख्या लगभग आधी है। यदि यह नीति पूरे देश में लागू की जाती है, तो न केवल महिलाओं का स्वास्थ्य सुधरेगा बल्कि कार्यस्थलों की उत्पादकता, वातावरण और लैंगिक समानता भी मजबूत होगी।
यह भी आवश्यक है कि कार्यस्थलों पर इस नीति के अनुपालन के साथ-साथ संवेदनशील माहौल बनाया जाए ताकि महिलाएँ इस अवकाश का उपयोग बिना झिझक कर सकें। यह शिक्षा, कॉरपोरेट जगत और मीडिया सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है कि मासिक धर्म के विषय को अब सामान्य संवाद का हिस्सा बनाया जाए।
कर्नाटक की यह पहल दर्शाती है कि सरकारें जब संवेदनशील दृष्टि से सोचती हैं, तो नीतियाँ सिर्फ प्रशासनिक दस्तावेज नहीं रहतीं — वे समाज के चरित्र को बदलने का माध्यम बन जाती हैं।
इसलिए अब आवश्यकता है कि भारत के सभी राज्यों और केंद्र सरकार को इस नीति को अपनाकर पूरे देश में लागू करना चाहिए। इससे भारत दुनिया के उन देशों की श्रेणी में शामिल होगा, जिन्होंने महिलाओं के प्रति वास्तविक समानता का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
यह नीति भारत को केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूप से भी आगे ले जाएगी। यही वह सोच है जो एक संवेदनशील, समानतापूर्ण और आधुनिक भारत के निर्माण की दिशा दिखाती है।
कर्नाटक ने रास्ता दिखा दिया है — अब बारी पूरे भारत की है। कर्नाटक की मासिक धर्म अवकाश नीति न केवल एक प्रशासनिक सुधार है, बल्कि यह भारतीय समाज के विचार और संवेदनशीलता में गहरे बदलाव का प्रतीक है। यह कदम बताता है कि जब सरकारें नीतियाँ बनाते समय महिलाओं के अनुभवों, स्वास्थ्य और गरिमा को प्राथमिकता देती हैं, तो समाज अधिक संतुलित और न्यायपूर्ण बनता है। यह नीति महिलाओं को अपने शरीर के प्रति अपराधबोध से मुक्त कर आत्म-सम्मान की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर देती है।
आज आवश्यकता है कि इस पहल को केवल कर्नाटक तक सीमित न रखा जाए। भारत के हर राज्य और केंद्र सरकार को इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर, सभी कार्यरत महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने चाहिए। इससे कार्यस्थलों पर समानता, स्वास्थ्य और उत्पादकता तीनों का संतुलन स्थापित होगा।
महिला सशक्तिकरण की असली कसौटी वही है, जहाँ नीतियाँ संवेदना के साथ न्याय भी करें। कर्नाटक का यह कदम उसी दिशा में एक सुनहरी शुरुआत है। यदि यह नीति पूरे भारत में लागू होती है, तो यह न केवल महिलाओं के लिए राहत का प्रतीक होगी, बल्कि एक संवेदनशील, आधुनिक और सम्मानजनक भारत की नींव भी रखेगी।