दहेज हत्या: टूटते घर और छिनती जिंदगी!

Dowry murder: broken homes and lost lives!

सोनम लववंशी

भारत में दहेज प्रथा एक ऐसा ज्वलंत सामाजिक विष बन चुका है, जो महिलाओं के जीवन को तोड़ता है, परिवारों को बिखेरता है और समाज की संवेदनशीलता को चीरती है। साल 2023 के एनसीआरबी आंकड़े बताते हैं कि दहेज से संबंधित अपराधों में 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई, 15,489 मामले दर्ज किए गए और 6,156 महिलाओं ने अपनी जान गंवाई। यह केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि अनकही पीड़ा, टूटते घर और शर्मनाक वास्तविकता का दर्पण हैं। हर एक नंबर के पीछे एक जीवन की कहानी, परिवार की उम्मीदें, और अनगिनत सपनों की ध्वस्त इमारत छिपी है। उत्तर प्रदेश और बिहार ने इस कुप्रथा में अव्वल स्थान हासिल किया है। उत्तर प्रदेश में 7,151 और बिहार में 3,665 मामले दर्ज किए गए। जब हम इन आंकड़ों के पीछे देखते हैं, तो यह केवल कागज़ों पर दर्ज संख्या नहीं, हजारों महिलाएं की अनकही पीड़ा है। वहीं, 13 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में कोई मामला दर्ज नहीं हुआ, यह दर्शाता है कि दहेज केवल कानूनी या आर्थिक समस्या नहीं, सामाजिक और मानसिक जड़ों में गहरी पैठ रखता है।

इतना ही नहीं शहरी समाज भी इससे अछूता नहीं है। दिल्ली जैसे महानगर में दहेज हत्या के मामले सामने आए हैं। शहर की चमक-दमक और शिक्षा की आड़ में भी महिलाओं की जिंदगी असुरक्षित है। मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से उपलब्ध अश्लील और हिंसक सामग्री युवाओं की मानसिकता को विकृत कर रही है। यही मानसिकता महिलाओं और बच्चों के प्रति हिंसक प्रवृत्तियों को जन्म देती है, और समाज में असुरक्षा की भावना को बढ़ाती है। मध्य प्रदेश में 2023 में महिलाओं के खिलाफ 32,342 अपराध दर्ज किए गए, जिनमें 468 दहेज हत्या के मामले शामिल थे। यह दर्शाता है कि अपराध केवल कानूनी दृष्टि से नहीं, सामाजिक और मानसिक दृष्टि से फैल रहे हैं। दहेज हत्या केवल कानून का प्रश्न नहीं, हमारी मानसिकता की विफलता है। घर का माहौल, परिवार की प्रतिष्ठा और समाज की सहमति, ये सभी कारक महिलाओं के जीवन को खतरे में डालते हैं।

ऐसे में कानून मौजूद है, लेकिन कानून अकेला पर्याप्त नहीं। दहेज निषेध अधिनियम महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है, लेकिन यह तब तक पन्नों में दर्ज रहेगा जब तक समाज की मानसिकता में बदलाव न आए। बच्चों और युवाओं में नैतिक और सामाजिक संस्कार, समानता और सहानुभूति का संवर्धन ही असली समाधान है। यदि नई पीढ़ी को यह सिखा दी जाए कि किसी की गरिमा पैसों से नहीं मापी जाती, तो दहेज जैसी बुराइयों की जड़ें अपने आप कमजोर हो जाएंगी। दहेज प्रथा केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या नहीं है। यह समाज और परिवार की मानसिकता का दर्पण है, जिसमें असमानता, लालच और लम्पटता स्पष्ट रूप से झलकती है। जब समाज इसे सामान्य मानता है, जब परिवार और समुदाय इसे सामाजिक मानक मानते हैं, तब कानून केवल शब्दों तक सीमित रह जाता है। इसलिए इसे रोकने का मार्ग केवल कानून से नहीं, सामाजिक चेतना, शिक्षा और मानसिकता के बदलाव से होकर जाता है।

आज की पीढ़ी को यह समझना होगा कि दहेज हत्या केवल अपराध नहीं, मानसिकता की विफलता है। यदि हम बच्चों में सहानुभूति, समानता और नैतिकता विकसित करें, तो दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों की जड़ें अपने आप कमजोर हो जाएंगी। यही मानवता का वास्तविक पाठ है। यही वह दिशा है, जिसमें भारतीय समाज को स्थायी सुधार की आवश्यकता है। आसपास के अनुभव भी यही कहते हैं। एक लड़की, जिसकी शादी में दहेज पूरा न होने पर उसे प्रताड़ित किया गया, पुलिस को शिकायत दी गई, लेकिन रिपोर्ट आधी-अधूरी रही। अपराधी समाज की मिली-जुली मानसिकता की आड़ में बरी हो गए। यह दिखाता है कि दहेज हत्या केवल कानून का मुद्दा नहीं, समाज और प्रशासन की विफलता भी है।

समाज की वास्तविक परीक्षा यह है कि हर महिला और बच्चा- घर, स्कूल और समाज में सुरक्षित, सम्मानित और समान अधिकारों के साथ जीवन जी सके। आंकड़े चेतावनी देते हैं, लेकिन असली बदलाव तभी संभव है जब समाज अपनी मानसिकता, संस्कार और नैतिकता में सुधार लाए। तभी हर टूटते जीवन को बचाया जा सकता है, हर महिला को उसकी गरिमा और सुरक्षा मिल सकती है। दहेज हत्या केवल अपराध नहीं, यह नैतिक पतन और संवेदनाओं की कमजोरी का प्रतीक है। यदि हम इसे केवल कानून तक सीमित रखेंगे, तो हर साल वही भयावह आंकड़े हमें झकझोरते रहेंगे। लेकिन यदि हम शिक्षा, संवेदनशीलता और नैतिक संस्कार के माध्यम से मानसिकता बदलें, तो हर टूटते जीवन को बचाया जा सकता है। यही मानवता का सच्चा पाठ है और यही चुनौती है जिसे भारतीय समाज को स्वीकार करना होगा।