बिहार में जदयू का ओबीसी तो बीजेपी का अगड़ों-दलितों पर बड़ा दांव

In Bihar, JDU is betting on OBCs, while BJP is betting big on upper castes and Dalits.

संजय सक्सेना

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में एनडीए ने सीटों का बंटवारा पूरी रणनीतिक सोच और जातीय गणित को ध्यान में रखते हुए किया। भाजपा और जदयू दोनों ने अपनी परंपरागत और मजबूत जातीय आधारों को साधने के लिए टिकट वितरण में खासा फोकस रखा। दोनों दलों की सूची से साफ है कि वे बिहार के वोट बैंक की विविधता को समेटने की कोशिश में हैं, ताकि किसी भी वर्ग या समुदाय की नाराजगी ना हो और विरोधी दलों की सामाजिक न्याय की राजनीति को चुनौती दी जा सके। इस चुनाव में दागी उम्मीदवारों की संख्या भी चर्चा का विषय रही है, जिसमें एनडीए के नाम कई गंभीर आरोपों वाले प्रत्याशी शामिल हैं।

एनडीए के सीट बंटवारे की शुरुआत इस बार 243 में से भाजपा और जदयू को 101-101 सीटें देकर हुई और बाकी सीटें सहयोगी दलों को दी गईं। सीटें तय करते वक्त एनडीए ने यह ध्यान रखा कि जदयू यानी नीतीश कुमार की पार्टी पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्गों में मजबूत है, जबकि भाजपा का प्रभाव सवर्ण, वैश्य, कुछ पिछड़ी जातियों एवं दलितों में पसंद किया जाता है। टिकट वितरण के समय भाजपा ने अपनी पहली सूची में 71 उम्मीदवार उतारे, जिसमें सवर्ण यानी राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ जैसी पारंपरिक जातियों के 34 नेताओं को मौका दिया गया। ये वो जातियां हैं, जिनका बीजेपी के साथ वोट बैंक सबसे मजबूत माना जाता है।

इसके साथ ही भाजपा ने सामाजिक संतुलन साधते हुए करीब 50 फीसदी टिकट ओबीसी, दलित, ईबीसी जैसी सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को दिए। पार्टी ने 9 महिला उम्मीदवारों को भी जगह दी, ताकि महिला मतदाताओं को साधा जा सके। मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा ने एक भी नहीं उतारे। यह भी भाजपा की परंपरागत रणनीति का हिस्सा है, जहां वह हिंदू बहुल सीटों पर फोकस कर रही है। टिकट पाने वालों में दोनों डिप्टी सीएम, कई पूर्व उपमुख्यमंत्री और वरिष्ठ विधायक शामिल हैं, वहीं कुछ पुराने दिग्गजों का टिकट काटकर नई पीढ़ी को मौका भी दिया गया।

जदयू ने भी जातीय समीकरणों को साधते हुए अपनी पहली सूची में 57 उम्मीदवार उतारे, जिसमें 22 पिछड़ा वर्ग और 10 अति पिछड़ा वर्ग के प्रत्याशी हैं। यानी कुल 56 फीसदी टिकट पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को दिए गए। महादलित, दलित और मुस्लिम प्रत्याशी भी जदयू की प्राथमिकता में रहे, मगर जदयू की पहली सूची में मुस्लिम उम्मीदवार नहीं मिले जबकि दूसरी सूची में चार मुस्लिम प्रत्याशी उतारे गए हैं। अति पिछड़ा वर्ग की संख्या के लिहाज से यह फैसला बिहार के सामाजिक ताने-बाने पर सीधा असर डालता है, क्योंकि राज्य की आबादी में 36 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं जातियों का है। जदयू ने अपने पुराने मंत्रियों एवं विधायकों को दोबारा मौका दिया, जिससे इन वर्गों में पार्टी की पकड़ मजबूत बनी रहे। कुछ सीटों पर जदयू व लोजपा (चिराग पासवान) के बीच विवाद देखा गया, मगर जदयू ने अपने दावे वाली सीटों पर समझौता नहीं किया।

एनडीए की सूची दागी उम्मीदवारों के मसले पर भी सवालों की जद में रही है। चुनावी विश्लेषण और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट के अनुसार, अगर पूरे राज्य के उम्मीदवारों को देखें तो लगभग 32 प्रतिशत प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले हैं, जिनमें से करीब 25 फीसदी पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। एनडीए के कई उम्मीदवारों की गिनती विवादित श्रेणी में होती है। एनडीए में जदयू के कई उम्मीदवार, जैसे चर्चित बाहुबली नेता अनंत सिंह, जिनके खिलाफ 28 आपराधिक मामले दर्ज हैं, टिकट पाने वालों की फेहरिस्त में शामिल हैं। इनके अलावा भाजपा और जदयू दोनों की सूचियों में करोड़पति प्रत्याशियों के साथ-साथ बड़े मुकदमों वाले “बाहुबली” भी नजर आ रहे हैं।

महागठबंधन की तुलना में, एनडीए में दागियों की संख्या थोड़ी कम बताई जा रही है, लेकिन राज्य के चुनावी माहौल में ऐसे चेहरों को टिकट देने पर बहस जारी है। कई बार ऐसा देखा गया है कि जातीय और स्थानीय प्रभाव के कारण दलों को ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारना पड़ता है जिन्होंने भूतकाल में गंभीर आपराधिक मामले झेले हों, क्योंकि वे अपने इलाके में विकल्पहीन, मजबूत या लोकप्रिय माने जाते हैं। एनडीए के अंदर इस बार भी ऐसे नामों को शामिल किया गया है जो वोट बैंक को साधने के लिए जरूरी समझे गए हैं।

कुल मिलाकर बिहार चुनाव 2025 में एनडीए ने सीट बंटवारे व टिकट वितरण में जातीय संतुलन को ही अपनी जीत की कुंजी माना है। भाजपा ने सवर्णों, दलितों व ओबीसी पर, जदयू ने पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज के नेताओं पर दांव लगाया है। दोनों ने अपने मजबूत क्षेत्रों के पुराने चेहरों को दोबारा मौका देते हुए नए वर्गों में भी संदेश देने का प्रयास किया। दागी उम्मीदवारों की मौजूदगी भी दिखाती है कि सिर्फ “साफ-सुथरी राजनीति” का दावा करके बिहार जीतना फिलहाल नामुमकिन है। जातीय समीकरण और आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेताओं के बलबूते ही पार्टियां चुनावी मजबूती हासिल करने की कोशिश करती रही हैं और यही समीकरण इस बार भी पूरी तरह हावी रहा।