गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं

Govardhan Puja should increase devotion, not show-off.

“कृष्ण का पर्व हमें सिखाता है कि असली भक्ति धरती, गाय और करुणा में है, कैमरे की चमक में नहीं।”

गोवर्धन पूजा केवल भगवान कृष्ण का पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति, गाय और धरती के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति दिखावे में नहीं, संवेदना में है। आज जब पूजा इंस्टाग्राम की तस्वीर बन चुकी है और गोबर की जगह प्लास्टिक ने ले ली है, तब ज़रूरत है श्रद्धा के वास्तविक अर्थ को समझने की। गोवर्धन पर्व हमें याद दिलाता है कि मिट्टी, जल और जीव-जंतु की सेवा ही असली आराधना है। पूजा तब पूर्ण होती है जब धरती मुस्कुराती है, न कि सिर्फ़ कैमरा।

डॉ. सत्यवान सौरभ

दीपों की कतारें अभी बुझी भी नहीं होतीं कि अगली सुबह गोवर्धन पर्व आ जाता है। यह त्योहार केवल भगवान कृष्ण की पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति, गोवंश और सामूहिक श्रम के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। यह पर्व उस सादगी, मिट्टी की सुगंध और मन की पवित्रता का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति की जड़ों में रची-बसी है। लेकिन जब श्रद्धा का अर्थ केवल दिखावे, फोटो और स्टेटस तक सीमित रह गया हो, तब “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े” कहना एक कामना भी है और एक चेतावनी भी।

कृष्ण की कथा में गोवर्धन पूजा का मूल भाव बहुत गहरा है। जब इंद्र के अहंकार से तंग आकर गोकुलवासी भीषण वर्षा में डूबने लगे, तब बालक कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठा लिया। इस घटना को केवल एक चमत्कार के रूप में देखना उसके अर्थ को छोटा करना है। असल में यह एक सामाजिक प्रतीक है। यह हमें बताती है कि जब सत्ता अहंकार में अंधी हो जाती है, तब जनसाधारण को अपने सामूहिक साहस से संकट से निकलना पड़ता है। कृष्ण ने गोवर्धन पूजा की परंपरा इसलिए शुरू की ताकि लोग प्रकृति, गोमाता और अपनी श्रमशक्ति को देवत्व के रूप में स्वीकारें—क्योंकि वही असली सहायक हैं, न कि केवल आकाश के देवता।

गोवर्धन पूजा दरअसल प्रकृति पूजा है। गाय, गोबर, गोचर भूमि—ये सब उस पारिस्थितिकी का हिस्सा हैं जिसने भारतीय जीवन को आत्मनिर्भर बनाया। जब हम गोबर, मिट्टी और फूलों से गोवर्धन बनाते हैं, तो वह धरती और पर्यावरण के प्रति हमारी श्रद्धा का प्रतीक होता है। वह एक स्मरण है कि यह मिट्टी ही हमारी असली माता है, जो हर बीज को अंकुरित कर हमें अन्न देती है। लेकिन आज के दौर में यह सब प्रतीक धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। गोबर की जगह प्लास्टिक की सजावट ने ले ली है, मिट्टी की गंध पर परफ्यूम का कब्जा हो गया है। गोवर्धन पूजा अब इंस्टाग्राम पोस्ट बन गई है—जिसमें “हैप्पी गोवर्धन पूजा” के स्टिकर तो हैं, पर गाय के लिए चारा नहीं। श्रद्धा अब धरती पर नहीं, स्क्रीन पर चमकती है।

कृष्ण ने कहा था—“कर्मण्येवाधिकारस्ते।” लेकिन हमने कर्म छोड़कर कर्मकांड को पकड़ लिया। पूजा अब उस भावना से दूर जा रही है जिसमें सामूहिकता, सहयोग और संवेदना थी। पहले गाँवों में सब मिलकर गोवर्धन बनाते थे, बच्चे गोबर लाते, महिलाएँ फूल सजातीं, पुरुष दीप रखते। वह सामूहिक श्रम और सादगी का पर्व था, जिसमें न कोई प्रतियोगिता थी, न तुलना। आज हर घर में अलग-अलग पूजा होती है—मानो यह अहंकार का गोवर्धन हो गया हो। श्रद्धा भी अब प्रदर्शन बन गई है, जिसमें पूजा का असल अर्थ खो गया है।

भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि हम गाय को “माता” कहकर आँसू बहाते हैं, लेकिन सड़कों पर वही गाय भूख और दर्द से मरती है। गोवर्धन पूजा का केंद्र ही गाय है, और हम उसी केंद्र को भुला चुके हैं। यह कैसी श्रद्धा है जो दीप जलाती है पर एक मुठ्ठी चारा देने में कंजूसी करती है? पूजा का अर्थ केवल आरती नहीं, जिम्मेदारी भी है। जब तक हम गोवंश, जल, मिट्टी और वृक्षों के प्रति करुणा नहीं दिखाएँगे, तब तक हमारी पूजा अधूरी रहेगी।

त्योहार अब भक्ति नहीं, भोग का उत्सव बनते जा रहे हैं। गोवर्धन पूजा भी अब “सेल्फी सीज़न” का हिस्सा बन गई है। प्रसाद, थाल और पूजा की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड करने की होड़ लग जाती है। लेकिन असली भोग—जो सेवा, संतोष और सादगी में था—वह कहीं खो गया है। हमारी दादी-नानी के समय यह पर्व मिट्टी और मेहनत की खुशबू से भरा होता था। अब यह कृत्रिम रोशनी और दिखावे का तमाशा बन गया है। श्रद्धा अब कैमरे की फ्लैश पर निर्भर है, आत्मा की रोशनी पर नहीं।

अगर कृष्ण आज होते, तो शायद पूछते—क्या तुम सच में गोवर्धन बना रहे हो, या गोवर्धन के मूल अर्थ को मिटा रहे हो? क्या तुम्हारी पूजा में धरती की गंध है या केवल मॉल की सुगंध? क्या तुम्हारी आरती में गाय की घंटी की आवाज़ है या मोबाइल के नोटिफिकेशन की? ये सवाल हमारे भीतर की श्रद्धा की जाँच करते हैं। क्योंकि भक्ति तभी सार्थक होती है जब वह दूसरों के सुख-दुख में सहभागी बनती है।

ग्रामीण भारत में आज भी यह पर्व आत्मीयता से मनाया जाता है। गाँव की गलियों में बच्चे नंगे पैर गोबर इकट्ठा करते हैं, महिलाएँ पारंपरिक गीत गाती हैं—“गोवर्धन धर्यो गिरधारी।” वहाँ पूजा में सादगी है, पर दिल है। वहीं शहरी भारत में गोवर्धन पूजा “रील” बन चुकी है—पाँच मिनट की पूजा, फिर पिज़्ज़ा पार्टी। यह फर्क बताता है कि विकास ने हमें सुविधा तो दी, पर संवेदना छीन ली। हमारी आधुनिकता ने हमें अपने ही मूल से काट दिया है।

जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं, तब गोवर्धन पूजा का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि ईश्वर से प्रार्थना करने से पहले हमें धरती के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह वह समय है जब हमें गोवर्धन पूजा की व्याख्या को नये अर्थों में देखना चाहिए—केवल धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली के रूप में। अगर हम इस दिन पेड़ लगाएँ, गोशाला में सेवा करें, तालाब साफ़ करें, पशुओं को भोजन दें—तो वही सच्ची श्रद्धा होगी।

श्रद्धा का अर्थ केवल झुकना नहीं, जुड़ना है—धरती से, जल से, पशु से, मनुष्य से। जब श्रद्धा जिम्मेदारी के साथ जुड़ती है, तभी वह भक्ति बनती है। वरना वह सिर्फ रस्म रह जाती है। कृष्ण का गोवर्धन पर्व हमें यही सिखाता है—कि असली धर्म दूसरों के लिए खड़ा होना है।

कृष्ण ने इंद्र का अहंकार तोड़ा था, लेकिन आज हमारे भीतर भी ऐसे सैकड़ों इंद्र पल रहे हैं—लालच, ईर्ष्या, उपभोग, दिखावा और अधिकार की अंधी चाह। हमें इन इंद्रों को शांत करने के लिए अपने भीतर एक गोवर्धन उठाना होगा। वह गोवर्धन कोई पत्थर का पहाड़ नहीं, बल्कि विवेक, संयम और करुणा का पहाड़ है, जिसे हम सबको मिलकर थामना है।

गोवर्धन पूजा का एक और गहरा पक्ष है—यह पर्व सामूहिकता का उत्सव है। जब गोवर्धन के नीचे सारा गोकुल एकत्र हुआ था, तब किसी ने किसी की जात, पद या संपत्ति नहीं पूछी थी। सब एक ही छत के नीचे थे—बराबर, सुरक्षित, जुड़ाव में। यह दृश्य बताता है कि संकट के समय समाज को एकता में रहना चाहिए। पर आज हम अपने-अपने घरों के भीतर बंद हैं, पूजा भी निजी हो गई है, और समाज से संबंध केवल औपचारिक रह गए हैं। हमें फिर वही सामूहिकता लौटानी होगी, जिसमें साथ रहना भी पूजा है।

यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि शक्ति का अर्थ केवल भौतिक बल नहीं होता। जब बालक कृष्ण ने पर्वत उठाया था, तब वह शारीरिक नहीं, नैतिक शक्ति थी। आज के युग में वह नैतिक शक्ति सबसे बड़ी कमी बन गई है। हमें हर घर में, हर हृदय में एक छोटा-सा गोवर्धन बनाना होगा—जहाँ श्रद्धा, सादगी और करुणा एक साथ बसें।

अगर गोवर्धन पूजा का सच्चा पालन करना है, तो तीन संकल्प लेने होंगे। पहला, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता—हर पूजा के बाद एक पेड़ लगाना या किसी पशु को भोजन देना। दूसरा, सादगी का पुनर्जागरण—दिखावे की जगह सच्चे भाव अपनाना। और तीसरा, सामूहिकता का पुनर्स्थापन—पूजा को फिर से मिल-जुलकर मनाने की परंपरा लौटाना, ताकि समाज में संवाद और संवेदना जिंदा रहे।

आज का समय ऐसा है जब श्रद्धा की परिभाषा बदल रही है। श्रद्धा अब विज्ञापनों और प्रचार में दिखने लगी है, पर जीवन से गायब हो रही है। हम मंदिरों में झुकते हैं, पर किसी घायल गाय या भूखे इंसान के आगे नहीं रुकते। हम दीये जलाते हैं, पर अपने मन के अंधकार से डरते हैं। यही वह विच्छेदन है जो हमें भीतर से खोखला बना रहा है। गोवर्धन पूजा उस खोखलेपन को भरने का अवसर है—अगर हम चाहें तो।

यह पर्व केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि नैतिक अनुबंध है—मनुष्य और प्रकृति के बीच। यह याद दिलाता है कि देवता की पूजा से पहले धरती की सेवा जरूरी है। गोवर्धन पर्वत अब कोई भौतिक शिला नहीं, बल्कि हमारे भीतर का आत्मबल है, जो संकट के समय खड़ा रहता है। इंद्र अब कोई स्वर्गीय देव नहीं, बल्कि हमारी इच्छाओं का प्रतीक है, जो हर सुख पर वर्षा की तरह गिरना चाहता है। और कृष्ण वह विवेक है जो उसे संयम सिखाता है।

जब हम कहते हैं “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े”, तो इसका अर्थ केवल पूजा-पाठ की बढ़ोतरी नहीं, बल्कि आस्था की गहराई से है। श्रद्धा वह शक्ति है जो हमें कर्तव्य के प्रति सचेत करती है। अगर श्रद्धा बढ़ी, तो समाज में संवेदना बढ़ेगी; अगर श्रद्धा गहरी हुई, तो राजनीति में नैतिकता लौटेगी; अगर श्रद्धा सच्ची हुई, तो पर्यावरण बचेगा।

हमारे समाज को आज एक ऐसे गोवर्धन की ज़रूरत है जो दिखावे के नहीं, दायित्व के पत्थरों से बना हो। एक ऐसे पर्व की, जो हमें सजावट नहीं, सच्चाई सिखाए। एक ऐसी श्रद्धा की, जो सोशल मीडिया पर नहीं, समाज के भीतर बसे। गोवर्धन पूजा का सार यही है—जहाँ प्रकृति, पशु और मनुष्य एक सूत्र में बंधे हों।

कृष्ण का संदेश बहुत सीधा है—“जब संकट आये, तो पर्वत उठाओ, पर मिलकर।” यही वह पंक्ति है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। अगर हम गोवर्धन पूजा के दिन अपने भीतर यह संकल्प लें कि हम दिखावे से अधिक जिम्मेदारी निभाएँगे, तो यही पूजा सबसे पवित्र होगी।

गोवर्धन पूजा हमें याद दिलाती है कि मिट्टी में ही जीवन की सबसे सच्ची सुगंध है, और उसी मिट्टी से हमारी श्रद्धा भी अंकुरित होती है। वह मिट्टी जो गाय के खुरों से पवित्र होती है, किसान के श्रम से सींची जाती है, और आकाश की धूप से सुनहरी बनती है। जब तक हम इस मिट्टी का आदर नहीं करेंगे, तब तक कोई भी पूजा पूर्ण नहीं होगी।

इसलिए इस बार जब दीप जलाएँ, तो साथ एक वचन भी लें—कि गोवर्धन पूजा से केवल घर नहीं, मन भी उजले होंगे। श्रद्धा केवल आरती की लौ में नहीं, व्यवहार की रोशनी में भी दिखेगी। तभी हम सच्चे अर्थों में कह सकेंगे— “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं।”

क्योंकि श्रद्धा बढ़ी तो ईश्वर अपने आप हमारे भीतर उतर आएगा, और शायद तब हमें किसी गोवर्धन की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी—क्योंकि हर मन स्वयं पर्वत बन जाएगा।