प्रकृति, पवित्रता और प्रार्थना का अनूठा लोकपर्व छठ

Chhath, a unique folk festival of nature, purity and prayer

योगेश कुमार गोयल

आस्था और निष्ठा का अनुपम लोकपर्व ‘छठ’ उत्तर भारत, विशेषकर बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला सूर्योपासना का महापर्व है। यह पर्व सूर्य, उनकी पत्नी उषा तथा प्रत्यूषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्य की बहन छठी मैया को समर्पित है। उषा तथा प्रत्यूषा को सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना गया है, इसीलिए छठ पर्व में सूर्य तथा छठी मैया के साथ इन दोनों शक्तियों की भी आराधना की जाती है। षष्ठी देवी को ही छठ मैया कहा गया है, जो निसंतानों को संतान देती हैं और संतानों की रक्षा कर उनको दीर्घायु बनाती हैं। पुराणों में पष्ठी देवी का एक नाम कात्यायनी भी है, जिनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी को होती है। माना जाता है कि छठ पर्व में सूर्य की उपासना करने से छठी माता प्रसन्न होकर घर-परिवार में सुख-समृद्धि, रोगमुक्ति, सम्पन्नता और मनोवांछित फल प्रदान करती हैं।

इस साल 25 अक्तूबर से नहाय-खाय के साथ चार दिवसीय अनुष्ठान के साथ कार्तिक छठ पर्व की शुरूआत हो रही है। इस दिन छठ व्रती नियम-धर्म से सात्विक भोजन बनाकर प्रसाद स्वरूप ग्रहण करेंगे। छठी मइया को ध्यान कर छठ पूजा 2025 का संकल्प नहाय-खाय पर ही लेने का विधान है। इस दिन छठी मइया और आदित्य देव के लिए गीत गाकर उनका आह्वान किए जाने की परंपरा है। 26 अक्तूबर को खरना है। इस दिन छठ व्रती पूरी निष्ठा से छठी मइया को खीर का प्रसाद बनाकर भोग लगाती हैं। लोहंडा का यह प्रसाद घर-परिवार और पास-पड़ोस में जनमानस को ग्रहण कराने का विधान है। ऐसी मान्यता है कि खरना का प्रसाद ग्रहण करने से जीवन के सारे दूख दूर होते हैं। छठी मइया व्रती की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। 27 अक्तूबर को अस्ताचलगामी भगवान भाष्कर को संध्याकालीन अर्घ्य अर्पण किया जाएगा। इस दिन डूबते सूर्य को अर्ध्य अर्पित कर छठ व्रती अपने परिवार की सुख-समृद्धि और संतति वृद्धि की कामना आदित्य देव से करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ढ़लते सूरज को जल चढ़ाने से भगवान दिनकर छठ व्रती को भर-भरकर आशीष देते हैं। 28 अक्तूबर को उदीयमान सूर्य को प्रातःकालीन अर्ध्य दिया जाना है। इस दिन दीनानाथ के उगते स्वरूप का दर्शन कर छठ व्रती खुशहाली की कामना करती हैं। परिवार के लोग भी छठ व्रती को सामने से दूध-जल का अर्ध्य अपर्ण कर अपनी निष्ठा प्रकट करते हैं। छठी मइया से मंगलकामनाएं की जाती हैं। छठ पूजा का प्रसाद छठ घाट पर ही ग्रहण करने का विधान है। अंतिम चरण में छठ व्रती पारण कर चार दिवसीय छठ पर्व का अनुष्ठान समाप्त करती हैं।

नियम, संयम और तपस्या का महापर्व छठ चार दिनों तक चलता है लेकिन इसकी तैयारी कई सप्ताह पहले ही शुरू हो जाती है। षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले इस पर्व की शुरूआत मूल रूप से बिहार और पूर्वांचल से हुई मानी जाती है लेकिन अब यह न केवल भारत के अलग-अलग राज्यों में बल्कि विदेशों में भी मनाया जाने लगा है और बिहार तथा पूर्वांचल के ही नहीं, अन्य क्षेत्रों के बहुत से लोग भी अब छठ पर्व के प्रति आस्थावान होकर यह व्रत करने लगे हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य देवता की बहन छठी मैया संतानों की रक्षा कर उन्हें लंबी आयु प्रदान करती हैं। प्रातःकाल में सूर्य की पहली किरण (उषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्ध्य देकर दोनों को नमन किया जाता है। सूर्योपासना का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है, इसीलिए इसे छठ कहा जाता है। इस चार दिवसीय उत्सव की शुरूआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन ‘नहाय खाय’ से होती है, अगले दिन ‘खरना’ होता है, तीसरे दिन छठ का प्रसाद तैयार किया जाता है और स्नान कर अस्त होते सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है, सप्तमी को चौथे और अंतिम दिन उगते सूर्य की पूजा-आराधना के साथ इस महापर्व का समापन होता है। छठ पर्व के प्रसाद में प्रायः चावल के लड्डू बनाए जाते हैं और बांस की टोकरी में प्रसाद तथा फल सजाकर इस टोकरी की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्य को अर्ध्य देने तथा पूजा के लिए तालाब, नदी अथवा घाट पर जाकर स्नान कर डूबते हुए सूर्य की पूजा करती हैं और अगले दिन सूर्योदय के समय सूर्य को अर्ध्य देकर पूजा करने के पश्चात् प्रसाद बांटकर छठ पूजा का समापन होता है। सही मायनों में यह महापर्व जीवनदायी सूर्यदेव के प्रति आभार प्रकट करने का महापर्व है।

छठ महापर्व की शुरूआत को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी मान्यता है कि लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्यदेव ने ही की थी। सूर्य को ज्योतिष विधा में सभी ग्रहों का अधिपति माना गया है। इसीलिए मान्यता है कि यदि समस्त ग्रहों को प्रसन्न करने के बजाय केवल सूर्यदेव की ही आराधना की जाए तो कई लाभ मिल सकते हैं। माना जाता है कि सर्वप्रथम महाबली कर्ण ने ही सूर्यदेव की पूजा शुरू की थी और आज भी छठ पर्व में सूर्य को अर्ध्य देने का विशेष महत्व है। सूर्यपुत्र कर्ण तो भगवान सूर्य के परम भक्त थे, जो प्रतिदिन घंटों तक कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्ध्य दिया करते थे। सूर्यदेव की कृपा से ही वे महान् योद्धा बने थे। एक मान्यता यह भी है कि देवमाता अदिति ने प्रथम देवासुर संग्राम में असुरों से देवताओं के हार जाने पर तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। छठी मैया ने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें सर्वगुण सम्पन्न तेजस्वी पुत्र को जन्म देने का वरदान दिया, जिसके बाद अदिति ने त्रिदेव रूप आदित्य भगवान को जन्म दिया, जिन्होंने देवताओं को असुरों पर विजय दिलाई। कहा जाता है कि तभी से छठ पर्व मनाए जाने का चलन शुरू हो गया।

इस पर्व को लेकर कुछ मान्यताएं महाभारत काल से भी जुड़ी हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार पाण्डव जब अपना सारा राजपाट जुए में हार गए थे, तब श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार द्रोपदी ने छठ व्रत रखा और छठी मैया के आशीर्वाद से उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने पर पाण्डवों को राजपाट वापस मिला। पाण्डवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी आयु के लिए नियमित रूप से सूर्य की पूजा करने का उल्लेख भी मिलता है। छठ पूजा के अवसर पर नदियों, तालाबों इत्यादि के किनारे पूजा की जाती है, जिससे लोगों को इन जलस्रोतों के आसपास साफ-सफाई रखने की प्रेरणा मिलती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठ पूजा साफ-सुथरी नदी, तालाबों या अन्य जलस्रोतों के किनारे की जाती है, इसीलिए पूजा से पहले इन जलस्रोतों के आसपास पूरी साफ-सफाई करने का विधान है। यह महापर्व नदियों को प्रदूषण से मुक्त करने का प्रेरणा देता है, इसीलिए इसे सर्वाधिक पर्यावरण अनुकूल हिन्दू त्यौहार माना जाता है।