संजय सक्सेना
बिहार विधानसभा चुनाव के इस महत्वपूर्ण दौर में गांधी परिवार, विशेषकर राहुल गांधी, शुरू में काफी एक्टिव नजर आए थे, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आया, उनकी सक्रियता में जबरदस्त कमी देखी जा रही है। शुरुआत में कांग्रेस के बड़े नेता प्रचार के लिए बिहार पहुंचे, कई चुनावी सभाएं की, समर्थकों को जोश दिलाया और गठबंधन के विजन का प्रचार किया। लेकिन हाल के दिनों में पूरा गांधी परिवार, चाहे वह सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी या स्वयं राहुल गांधी हों, मंच से गायब हैं। गांधी परिवार ने बिहार से ही दूरी नहीं बना ली है, वह अपने बिहार के नेताओं से भी संपर्क में नहीं है। यह बदलाव केवल फुटेज की राजनीति नहीं, बल्कि इसके पीछे कुछ सियासी समीकरणों की भूमिका मानी जा रही है। कांग्रेस इस चुनाव में महागठबंधन के हिस्से के तौर पर लगभग 55-60 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। सीटों की साझेदारी को लेकर शुरू से ही जद्दोजहद रही थी, पर महागठबंधन यानी आईएनडीआई गठबंधन के तहत तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सभी घटक दलों ने सीटों को बांटा, जिसमें कांग्रेस को अपेक्षाकृत कम सीटें मिलीं। यह खुद को राष्ट्रीय पार्टी मानने वाली कांग्रेस के लिए किसी न किसी रूप में सीमित प्रभाव का प्रतिबिंब है।
राहुल गांधी एवं गांधी परिवार की दूरी के कई कारण सामने आ सकते हैं। पहला कारण यह है कि शुरुआत में भले ही गठबंधन ऑल इंडिया स्तर पर सशक्त दिख रहा था, लेकिन बिहार की जमीनी राजनीति में जैसे-जैसे चुनावी हवा बनी, कांग्रेस और महागठबंधन की स्थिति उतनी मजबूत नहीं दिखी। जेडीयू और बीजेपी के कुशल प्रचार, मोदी सरकार की योजनाओं की चर्चा और एनडीए के एकजुट नेतृत्व के सामने विपक्षी दलों में बिखराव नजर आया। ऐसे में संभव है कि राहुल गांधी ने सोचा हो कि बिहार का चुनाव अगर उन्हीं के चेहरे के साथ लड़ा गया, तो हार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ सकती है। इसलिए वह चुनावी मैदान से खुद को दूर रखकर हार का ठीकरा तेजस्वी यादव या अन्य नेताओं के सिर जाने देना चाहते हैं, ताकि आगे के चुनावों में अपनी छवि बचाई जा सके। दूसरी बात ये भी सामने आती है कि गांधी परिवार का प्रभाव बिहार की राजनीति में उतना मजबूत नहीं है, जितना उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या राजस्थान में है। बिहार में कांग्रेस की जमीनी पकड़ पिछले दो दशकों में कमजोर हुई है, और नई नेतृत्वकारी शक्ति के तौर पर तेजस्वी यादव उभर रहे हैं। ऐसे में अगर गांधी परिवार खुलकर मैदान में आता, तो चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी के तर्ज पर भी लड़ा जा सकता था, और एनडीए को ये मौका मिलता कि वे राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को चुनौती दें। शायद इसी आशंका से बचने के लिए गांधी परिवार ने किनारा कर लिया, ताकि चुनाव सिर्फ बिहार के स्थानीय नेताओं के मुद्दों से लड़ा जा सके, न कि राहुल गांधी की राष्ट्रीय छवि के चश्मे से।
गांधी परिवार के इस कदम से कांग्रेस प्रत्याशियों को नुकसान होना तय है। चुनावी सभाओं में बड़े नेता की गैरमौजूदगी कार्यकर्ताओं और आम वोटरों में निराशा पैदा करती है। कांग्रेस के प्रत्याशी उम्मीद करते हैं कि राष्ट्रीय नेतृत्व, विशेषकर गांधी परिवार, उनके प्रचार में भाग लेगा, सभा करेगा, जिससे मीडिया में खबर बनेगी और कार्यकर्ता उत्साहित होंगे। गांधी परिवार से दूरी कांग्रेस के प्रत्याशियों को जमीनी समर्थन और प्रचार में पिछाड़ सकती है। साथ ही, महागठबंधन के घटक दलों और वोट ट्रांसफर में भी संकोच आ सकता है, क्योंकि गठबंधन कार्यकर्ताओं को नेतृत्व की स्पष्टता चाहिए होती है। रैली और प्रचार में राहुल की गैर-मौजूदगी ने निश्चित तौर पर कार्यकर्ताओं में मायूसी भर दी है। एक पहलू ये भी है कि चुनाव प्रचार में गैर-मौजूद रहकर गांधी परिवार ने कांग्रेस को चुनावी हार से सीधा लिंक करने से बचा लिया है। अगर तेजस्वी यादव गठबंधन की हार के मुख्य चेहरे बनते हैं, तो राष्ट्रीय मोर्चे पर राहुल गांधी को इतनी आलोचना नहीं झेलनी पड़ेगी। इसमें रणनीतिक सोच भी छिपी है कि आगामी लोकसभा या अन्य राज्यों के चुनाव से पहले राहुल गांधी की छवि बची रहे।
कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार चुनाव का माहौल अगर मोदी बनाम राहुल गांधी बन जाता, तो भाजपा को ‘नेशनलाइज’ मुद्दा मिलता, जिससे एनडीए अपने राष्ट्रीय नेतृत्व को उभारता और विपक्षी गठबंधन तुष्टिकरण, बेरोजगारी या स्थानीय मुद्दों की जगह राष्ट्रीय नेतृत्व की तुलना में फंस जाता। गांधी परिवार का किनारा करना इस रणनीतिक सोच का हिस्सा भी हो सकता है कि वे बिहार के चुनाव को सिर्फ बिहार के स्थानीय नेतृत्व का मामला बनने देना चाहते हैं। लब्बोलुआब है कि कांग्रेस और गांधी परिवार की रणनीति अवसरवाद से भी प्रेरित नजर आती है जीत की उम्मीद हो तो प्रचार में पूरी ताकत, हार की आशंका हो तो दूरी। इस रवैये के चलते कांग्रेस प्रत्याशी कमजोर पड़ सकते हैं, और महागठबंधन को चुनावी लाभ नहीं मिलेगा। राहुल गांधी, सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी की राजनीति अब इस हद तक पारंपरिक हो गई है कि मुश्किल की घड़ी में मुद्दों से किनारा करने में गुरेज नहीं। बिहार चुनाव में अगर महागठबंधन हारता है, तो उसकी जिम्मेदारी तेजस्वी यादव, राजद और अन्य स्थानीय दलों के ऊपर डाली जा सकेगी। गांधी परिवार एक बार फिर अपने को चुनाव के मैदान से दूर रख लोकसभा चुनाव के लिए खुद को अपराजित दिखाने की कोशिश करेगा। यानी बिहार का चुनाव मोदी बनाम गांधी परिवार की राष्ट्रीय लड़ाई बनता-बनता रह गया, और स्थानीय नेतृत्व ही केंद्रीय फोकस बन गया।





