भारत में प्रतिदिन लगभग चार सौ लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। मुख्य कारण हैं — खराब सड़क डिजाइन, कमजोर प्रवर्तन, चालक प्रशिक्षण की कमी और आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था का अभाव। समाधान के रूप में वैज्ञानिक सड़क निर्माण, पारदर्शी लाइसेंसिंग, वाहन सुरक्षा तकनीक, पैदल यात्री अवसंरचना और राष्ट्रीय दुर्घटना प्रतिक्रिया जाल की स्थापना आवश्यक है। सड़क सुरक्षा केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी भी है। इसे निवारक सार्वजनिक नीति बनाकर ही “शून्य मृत्यु गलियारा” का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
डॉ प्रियंका सौरभ
भारत की सड़कों पर हर दिन लगभग चार सौ लोग अपनी जान गंवाते हैं। यह आँकड़ा किसी आपदा या महामारी से नहीं, बल्कि हमारी सड़कों पर व्याप्त अव्यवस्था और लापरवाही से जुड़ा है। अनेक योजनाएँ, अभियान और कानून बनने के बावजूद भारत आज भी दुनिया के सबसे अधिक सड़क दुर्घटना मृत्यु दर वाले देशों में गिना जाता है। सवाल यह नहीं कि सरकार ने कुछ किया या नहीं, बल्कि यह है कि हमने सड़क सुरक्षा को कितनी प्राथमिकता दी। यह स्थिति न केवल प्रशासनिक असफलता है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी और नागरिक संस्कृति की भी परीक्षा है।
भारत में सड़क सुरक्षा पर चर्चा अक्सर किसी बड़ी दुर्घटना या प्रसिद्ध व्यक्ति के हादसे के बाद तेज होती है, लेकिन कुछ दिनों में सब सामान्य हो जाता है। सड़क सुरक्षा को लेकर जो नीतियाँ बनती हैं, वे अधिकतर काग़ज़ों तक सीमित रह जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत विश्व की कुल सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु का लगभग ग्यारह प्रतिशत अकेले वहन करता है, जबकि हमारे पास विश्व की कुल गाड़ियों का हिस्सा मात्र एक प्रतिशत है। यह असंतुलन किसी भी जिम्मेदार राष्ट्र के लिए चेतावनी है।
सड़क दुर्घटनाओं के पीछे कई गहरे और परस्पर जुड़े कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण है — अवसंरचना की गुणवत्ता और डिजाइन में गंभीर खामियाँ। हमारे अनेक राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों पर संकेतक, डिवाइडर, प्रकाश व्यवस्था और सुरक्षा अवरोधक नहीं हैं। कई बार सड़कों का चौड़ीकरण बिना यातायात प्रवाह के वैज्ञानिक अध्ययन के किया जाता है। छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में सड़कें वर्षा में टूट जाती हैं और वर्षों तक बिना मरम्मत के उपयोग में रहती हैं। सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार और निम्न गुणवत्ता के कारण लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।
दूसरा बड़ा कारण है — कमजोर प्रवर्तन प्रणाली। भारत में यातायात नियम तो हैं, पर उनके पालन की संस्कृति नहीं है। तेज रफ़्तार, गलत दिशा में वाहन चलाना, बिना हेलमेट या सीट बेल्ट के यात्रा करना और नशे की हालत में गाड़ी चलाना आम बात है। पुलिस बलों के पास न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही तकनीकी प्रशिक्षण कि वे इन नियमों को सख़्ती से लागू करा सकें। “ई-चालान” जैसी पहलें केवल बड़े शहरों तक सीमित रह जाती हैं, जबकि ग्रामीण भारत में यातायात नियंत्रण लगभग नाममात्र का है।
तीसरा कारण है — ड्राइविंग लाइसेंस व्यवस्था की खामियाँ। भारत में ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करना कौशल का नहीं, बल्कि प्रक्रिया की औपचारिकता का प्रतीक बन गया है। प्रशिक्षण केंद्रों की कमी और भ्रष्टाचार के कारण बिना समुचित परीक्षण के लाइसेंस जारी कर दिए जाते हैं। परिणामस्वरूप असुरक्षित चालक सड़कों पर उतर जाते हैं। कई देशों में वाहन चलाना एक जिम्मेदारी का प्रतीक माना जाता है, जबकि भारत में यह केवल एक अधिकार की तरह देखा जाता है।
इसके अतिरिक्त, वाहनों की तकनीकी सुरक्षा प्रणाली का अभाव भी दुर्घटनाओं में मृत्यु का बड़ा कारण है। अधिकांश वाहनों, विशेषकर ट्रक, बस और ऑटो श्रेणी में टक्कर-चेतावनी प्रणाली, एयरबैग, या ऊर्जा-अवशोषक ढाँचा नहीं होता। विकसित देशों में वाहन निर्माण के समय सुरक्षा प्रावधान अनिवार्य हैं, परंतु भारत में ये केवल महंगे मॉडलों तक सीमित रहते हैं। वाहन उद्योग और नियामक संस्थाओं के बीच जवाबदेही का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
दुर्घटना के बाद की स्थिति और भी भयावह है। ट्रॉमा केयर और आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था की कमी के कारण घायल व्यक्ति समय पर उपचार नहीं पा पाते। “स्वर्णिम घंटा” यानी दुर्घटना के बाद का पहला घंटा जीवन बचाने के लिए निर्णायक होता है, परंतु हमारे देश में यह घंटा अक्सर सड़कों पर तड़पते हुए बीत जाता है। ग्रामीण इलाकों में एम्बुलेंस सेवाएँ भी सीमित हैं, और जो हैं, वे ईंधन या स्टाफ की कमी से प्रभावित रहती हैं।
सड़क दुर्घटनाओं का आर्थिक पक्ष भी गंभीर है। नीति आयोग के अनुसार, भारत हर वर्ष सड़क दुर्घटनाओं के कारण अपनी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग तीन प्रतिशत तक खो देता है। यानी न केवल लोग मर रहे हैं, बल्कि विकास की रफ़्तार भी घट रही है। एक व्यक्ति की मृत्यु परिवार, समाज और अर्थव्यवस्था के लिए स्थायी क्षति है। यह केवल आँकड़ों की बात नहीं, बल्कि मानवीय जीवन के सम्मान का प्रश्न है।
अब प्रश्न यह है कि इस स्थिति को बदला कैसे जाए? सबसे पहले तो सड़क सुरक्षा को प्रतिक्रियात्मक नहीं, निवारक नीति के रूप में अपनाना होगा। इसका अर्थ है कि दुर्घटनाओं के बाद कार्रवाई करने के बजाय पहले से ऐसा तंत्र विकसित किया जाए जो दुर्घटनाओं को रोके। इसके लिए सड़क निर्माण, वाहन प्रौद्योगिकी, यातायात प्रबंधन और आपातकालीन सेवाओं में समन्वित दृष्टिकोण आवश्यक है।
पहला कदम होना चाहिए — वैज्ञानिक सड़क डिजाइन और रखरखाव। हर सड़क परियोजना में निर्माण से पहले “सड़क सुरक्षा लेखा-परीक्षण” अनिवार्य किया जाना चाहिए। सड़कें केवल चौड़ी नहीं, बल्कि सुरक्षित और समझदार हों। संकेतक, गति अवरोधक, क्रैश बैरियर और रात्रि प्रकाश जैसे तत्वों को डिजाइन का अभिन्न भाग बनाना होगा। उदाहरण के लिए, चेन्नई और पुणे जैसे शहरों में “शून्य मृत्यु गलियारा” (Zero Fatality Corridor) योजना के तहत मृत्यु दर में पचास प्रतिशत तक कमी आई है।
दूसरा कदम, लाइसेंस व्यवस्था में सुधार। पासपोर्ट सेवा केंद्र की तरह “लाइसेंस सेवा केंद्र” बनाकर पारदर्शी, डिजिटल और कौशल आधारित मूल्यांकन किया जा सकता है। प्रत्येक चालक को सड़क सुरक्षा प्रशिक्षण से गुजरना अनिवार्य किया जाए। इससे भ्रष्टाचार घटेगा और योग्य चालक सड़कों पर उतरेंगे।
तीसरा कदम, वाहनों में सुरक्षा प्रौद्योगिकी का प्रसार। सरकार को सभी वाहनों में एयरबैग, सेंसर और टक्कर चेतावनी प्रणाली जैसे फीचर अनिवार्य करने चाहिए। “भारत वाहन सुरक्षा मूल्यांकन कार्यक्रम” (भारत एनसीएपी) सही दिशा में है, परंतु इसे प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
चौथा कदम, पैदल यात्रियों और गैर-मोटर चालित वाहनों के लिए सुरक्षित अवसंरचना का विकास। हमारे शहरों में फुटपाथ अक्सर गायब हैं या दुकानों और पार्किंग में बदल जाते हैं। सुरक्षित ज़ेब्रा क्रॉसिंग, फुटओवर पुल और संकेत व्यवस्था से हजारों जानें बचाई जा सकती हैं। कोपेनहेगन और टोक्यो जैसे शहरों की तरह पैदल और साइकिल यात्रियों के लिए समर्पित मार्ग विकसित करने होंगे।
पाँचवाँ कदम, आपातकालीन प्रतिक्रिया नेटवर्क को मज़बूत करना। हर पचास किलोमीटर पर ट्रॉमा केंद्र, चौबीस घंटे एम्बुलेंस सेवा और हेल्पलाइन के साथ “राष्ट्रीय दुर्घटना प्रतिक्रिया जाल” तैयार किया जा सकता है। उपग्रह आधारित प्रणाली से एम्बुलेंस को शीघ्रतम मार्ग मिल सकता है। निजी अस्पतालों को दुर्घटना पीड़ितों को तत्काल प्राथमिक उपचार देने का दायित्व कानूनी रूप से लागू किया जाना चाहिए।
साथ ही, जनजागरूकता का पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सड़क सुरक्षा केवल सरकार की नहीं, बल्कि नागरिकों की जिम्मेदारी भी है। विद्यालय स्तर पर सड़क सुरक्षा शिक्षा, हेलमेट और सीट बेल्ट अभियान, तथा मीडिया के माध्यम से निरंतर जनसंवाद से व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है। जब तक नागरिक स्वयं जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब तक कोई भी नीति स्थायी परिणाम नहीं दे पाएगी।
कई देशों में सड़क सुरक्षा को राष्ट्र-निर्माण का अंग माना गया है। स्वीडन की “विजन ज़ीरो” नीति इसका उदाहरण है, जहाँ 1997 से यह लक्ष्य रखा गया कि किसी को भी सड़क पर मरना नहीं चाहिए। इस नीति ने डिज़ाइन, प्रवर्तन और तकनीक के संयोजन से मृत्यु दर को आधे से अधिक घटा दिया। भारत को भी इसी सोच के साथ आगे बढ़ना होगा, जहाँ मानव जीवन की कीमत सर्वोपरि हो।
अंततः यह स्वीकार करना होगा कि भारत की सड़क सुरक्षा समस्या केवल अवसंरचना की नहीं, बल्कि मानसिकता की भी है। जब तक लोग स्वयं अनुशासन को अपनाने और दूसरों के जीवन का सम्मान करने नहीं सीखेंगे, तब तक कोई भी कानून कारगर नहीं होगा। सड़क सुरक्षा को राजनीतिक नारे से आगे बढ़ाकर सामाजिक आंदोलन बनाना होगा।
भारत आज आर्थिक शक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, पर यह विडंबना है कि हर साल लाखों लोग केवल इसलिए मर जाते हैं क्योंकि हमारी सड़कें असुरक्षित हैं। विकास का वास्तविक अर्थ तभी होगा जब सड़कों पर चलने वाला हर व्यक्ति — चाहे वह चालक हो, साइकिल सवार या पैदल यात्री — स्वयं को सुरक्षित महसूस करे।
समय आ गया है कि सड़क सुरक्षा को “परिवहन मुद्दे” नहीं बल्कि “मानव अधिकार मुद्दे” के रूप में देखा जाए। यह केवल गति की नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा का सवाल है। हमें तय करना होगा कि भारत की सड़कों पर रफ़्तार जीने का प्रतीक बने या मरने का कारण।





