वंदे मातरम् की गौरव गाथा

The glorious story of Vande Mataram

प्रमोद भार्गव

वंदे मातरम् को भारत की शाश्वत संकल्पना बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस राष्ट्रीय गीत के 150 वर्ष पूरे होने पर वर्ष भर चलने वाले स्मरणोत्सव का शुभारंभ विशेष डाक टिकट और सिक्के के विमोचन के साथ किया। प्रधानमंत्री ने वंदे मातरम् की गौरव गाथा को विभिन्न उपमाओं-अलंककरणों से स्पंदन देते हुए इससे जुड़े इतिहास के एक काले पन्ने को खोलने के साथ कांग्रेस की मुस्लिम तुश्टिकरण की विभाजनकारी मानसिकता का खुलासा बिना किसी का नाम लिए किया। उन्होंने कहा कि ‘आजादी की लड़ाई में वंदे मातरम् की भावना ने पूरे राश्ट्र को प्रकाषित किया था, लेकिन दुर्भाग्य से 1937 में इस गीत के महत्वपूर्ण पदों को उसकी आत्मा के एक हिस्से को अलग कर दिया गया था। जिस भाव से वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए थे, कालांतर में उसी भाव ने विभाजन के बीज बो दिए थे।‘ अतीत में इस गीत की मूल रचना के साथ जो भी खिलावाड़ किया गया हो, किंतु यह सच्चाई है कि आजादी की लड़ाई में इस गीत की अहम् भूमिका रही है।

बंकिमचंद्र चटर्जी के बांग्ला भाशा में लिखे उपन्यास ‘आनंद मठ’ से राश्ट्रगीत के रुप में स्वीकारा गया यह गीत कोई मामूली गीत नहीं है। भारत को उसकी व्यापक राश्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्स इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम् क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देषव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और वह यही आंदोलन था, जिसमें गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। सुभाशचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए।

14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देष आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र-गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपस्थित लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाषवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगदृष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्य-दृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बांग्ला भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंक्तियां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया है, वह केवल आठ पंक्तियों का है।

वंदे मातरम् को इस्लाम विरोधी जताया जाता रहा है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रुप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत हुई थी। 1937 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इसमें मौलाना आजाद, पंडित नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से विचार-विमर्श कर वंदे मातरम् के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्ष के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राश्ट्रीय व सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम् के केवल दो पद गाये जाएं। ऐसे अवसरों पर भारत विभाजन के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इस गीत को आदर के साथ खड़े होकर गाया करते थे। तय है, गीत पर विवाद का समाधान स्वतंत्रता से पहले ही हो चुका था।

बाद में देष-विभाजन के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग के नेताओं ने जरूर वंदे मातरम् को बुतपरस्ती, अर्थात मूर्तिपूजा मानते हुए इसका विरोध किया। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांग्रेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इसका विरोध करने लगे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उर्दू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम् का अनुवाद ‘ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं’ किया, अर्थात हे माता, तुझे प्रणाम करता हूं। मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत क्या है ? अरबी फारसी के अनेक कवियों ने भी देष को ‘मां’ कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उद्गारों को प्रचलित रूपकों अथवा प्रतीकों में प्रकट करना मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कतई नहीं है। वंदे मातरम् एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए। इसे यदि कोई सांसद या विधायक इस्लाम विरोधी जताता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना है, जो अलगाववादी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है।

खुद बंकिमचन्द्र ने लिखा है कि ‘हिन्दू होने पर ही कोई अच्छा नहीं होता है, मुसलमान होने पर कोई बुरा नहीं होता और न ही मुसलमान होने पर कोई अच्छा होता है या हिन्दू होने पर कोई बुरा होता है। अच्छे बुरे दोनों जातियों में हैं। गोया, निर्वाचित चंद मुसलिम प्रतिनिधि इस्लाम के बहाने जिस राश्ट्रीयता का अपमान करते हैं, उसी राश्ट्रीयता के सम्मान में अन्य मुस्लिम प्रतिनिधि सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसे ही चंद सिरफिरे मुस्लिमों ने आजाद हिंद फौज के नारे, ‘जय हिंद’ का भी विरोध किया था, जब दैनिक अखबार ‘डान’ ने वंदे मातरम् की आलोचना की तो महात्मा गांधी को कहना पड़ा, ‘वंदे मातरम् कोई धार्मिक नारा नहीं है, यह विषुद्ध राजनीतिक नारा है।’ यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल कराई थी।